F stories of shrimad bhagwat in hindi श्रीमद्भागवत महापुराण कथानक द्वितीय स्कंध (1) - bhagwat kathanak
stories of shrimad bhagwat in hindi श्रीमद्भागवत महापुराण कथानक द्वितीय स्कंध (1)

bhagwat katha sikhe

stories of shrimad bhagwat in hindi श्रीमद्भागवत महापुराण कथानक द्वितीय स्कंध (1)

stories of shrimad bhagwat in hindi श्रीमद्भागवत महापुराण कथानक  द्वितीय स्कंध (1)
            भागवत कथानक द्वितीय स्कंध.भाग- 1         

वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप |
आत्मवित्सम्मतः पुसां श्रोतव्यादिषु यः परः ||
राजन तुमने लोकहित के लिए बड़ा उत्तम प्रश्न पूछा है आत्म ज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्न की बड़ी प्रशंसा करते हैं शास्त्रों में अनेकों बातें करने एवं सुनने की बताई गई है परंतु जिन्हे आत्म तत्व तत्व का ज्ञान नहीं है |

ऐसी अज्ञानी जो घर गृहस्थी में फंसे हुए हैं जिनकी रात्रि सोने में अथवा स्त्री प्रसंग में व्यतीत हो जाती है  और दिन कुटुंब के भरण पोषण के लिए धन की चिंता में व्यतीत हो जाता है वह प्रतिक्षण मृत्यु की ओर अग्रसर होते हुए भी चेतते नहीं है|
तसमाद्भारत सर्वात्मा भगवानीश्वरो हरिः |
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ||
परीक्षित जो अभय पद को प्राप्त करना चाहते हैं ऐसे पुरुषों को  सदा सर्वदा सर्वात्मा भगवान श्री हरि की ही कथा का श्रवण करना चाहिए उनके ही नामों का कीर्तन करना चाहिए और उनका ही स्मरण करना चाहिए मनुष्य जन्म का परम लाभ यही है कि अंत समय में भगवान नारायण की स्मृति बनी रहे परीक्षित इसलिए ही जो  निर्वित्ति पारायण महापुरुष है वह सदा सर्वदा भगवान श्रीहरि के ही गुणों में रमे रहते हैं |

अद्वैत सिद्धांत के अचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती जी एक बार वृंदावन आए उनकी दृष्टि जैसे ही बिहारी जी पर पड़ी वह श्री कृष्ण के दीवाने हो गए उन्होंने श्लोक लिखा=
अद्वैत वीथी पथिकैरूपास्या
          स्वराज्यसिघांसन लब्धदिक्षा |
षठेन केनापि वयं हठेन्
           दासीकृता गोपवधू विटेन  ||
अद्वैत वेदांत की गलियों में भ्रमण करने वाले आत्म राज्य को प्राप्त कर चुके मुझे गोप कुमारियों के स्वामी श्री कृष्ण ने दृढ़तापूर्वक अपना भक्त बना लिया अपना दास बना लिया
परिनिष्ठितोपि नैर्गुण्य उत्तमश्लोकलीलया|गृहीतचेता राजर्षे आख्यानं यदधीतवान ||

परिक्षित मेरी निष्ठा भी निर्गुण ब्रह्म मे थी परंतु भगवान श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं ने मेरे हृदय को अपनी ओर खींच लिया जिसके कारण मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया और उसे ही मैं तुम्हें सुनाऊंगा परिक्षित तुम यह मत सोचो कि तुम्हारे पास केवल सात दिवस है सूर्यवंश में महाराज खट्वांग हुए हैं जब उन्हें पता चला कि उनकी आयु मात्र  48 मिनट शेष बची है उतने में ही उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर भगवान को प्राप्त कर लिया |

परीक्षित जन्म मृत्यु का समय निकट आए उस समय घबराएं नहीं वैराग्य रुपी सस्त्र के द्वारा शरीर और शरीर से संबंध रखने वालों की ममता को काट दे घर से निकल कर किसी तीर्थ में आ जाएं वहां पवित्र जल में स्नान करें और एकांत में आसन बिछाकर दृढ़तापूर्वक में बैठ जाएं और भगवान का ध्यान करें |
पातालमेतस्य हि पादमूलं
         पठन्ति पार्ष्णिप्रपदे रसातलम् |
महातलं विश्वसृजोथ गुल्फौ 
          तलातलं वै पुरुषस्य जघें ||
पाताल विराट भगवान के तलवे हैं रसातल पंजे हैं महातल एड़ी के ऊपर की गांठ है तलातल पिंडलियां है सुतल घुटने हैं वितल और अतल दोनों जघांयें हैं | नाभि तक नाभि से नीचे का स्थान नाभि भुवर्लोक छातीस्वर्ग लोक है गला महर लोक है मुख जनलोक है |

ललाट तपो लोक है और मस्तक सत्यलोक है| ब्राह्मण विराट भगवान के मुख हैं छत्री भुजाएं हैं वैस्य जघां है़ और शूद्र भगवान के चरण है इस प्रकार संपूर्ण ब्रह्मांड भगवान का ही स्वरुप है इसलिए सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करें संसारिक पदार्थों के लिए अधिक परिश्रम ना करें क्योंकि भाग वसात उनकी प्राप्ति स्वतः ही हो जाएगी |
आयुः कर्म च वित्तं च
        विद्या निधन नेव च |
पञ्च्यैतान्यपि सृज्यन्ति
         गर्भस्थस्यैव देहिनः ||
आयु विद्या धन मृत्यु और कर्म इन पांचों का निर्माण गर्भ में ही हो जाता है |
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासै
               र्बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् |
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या 
               दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ||
यदि पृथ्वी पर सोने से काम चल जाता है तो गद्दे के लिए पलंग के लिए प्रयास करने की क्या आवश्यकता है | भुजाओं के होते हुए तकिए की क्या आवश्यकता अंजलि के होते हुए बहुत से पात्र एकत्रित करने की क्या आवश्यकता और चीर वतकल पहन कर काम चल जाता है तो अनेकों वस्त्रों से क्या प्रयोजन |
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
    नैवाङ्घ्रिपाः परभृतः सरितोप्यशुष्यन् |
रुद्धा गुहाः किमजितोवति नोपसन्नान्
    कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ||
क्या  मार्ग में चीरवत्कल नहीं पड़े रहते क्या वृक्षों ने हमें फल फूल की भिक्षा देना बंद कर दिया है क्या नदियों का जल सूख गया है क्या शरणागत की रक्षा करना पालन करना भगवान ने बंद कर दिया है|

यदि यह सब कुछ है तो विद्वान लोग धन के मद में अंधे लोगों की चापलूसी क्यों करते हैं | क्यों गुलामी करते हैं |         ( दृष्टांत )
एक   अलमस्त संत श्मशान में रहते थे किसी ने कहा बाबा नगर में चलो बाबा ने कहा नगर में ना जाने सब मिले या ना मिले एक दिन सबको यही आना है सब से यही मिलेंगे भक्तों ने कहा बाबा कुछ गद्दे तकिये का इंतजाम कर दे |अलमस्त संत ने कहा-
जमी पर लेट जाते हैं सिराने हाथ रखते हैं |
हम तो अपना गद्दा तकिया सदा ही साथ रखते हैं||
श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं परीक्षित कुछ भक्त भगवान का अपने हृदय में ध्यान करते हैं भगवान का स्वरूप प्रदेश मात्र का है सुंदर चार भुजाएं हैं जिनमें उन्होंने शंख चक्र गदा पद्म धारण कर रखा है | प्रसन्नता से युक्त मुखारविंद है सुंदर मुख मंडल पर कमल के समान विशाल नेत्र हैं | 

शरीर में पीतांबर शोभायमान हो रहा है वक्षस्थल पर सुनहरी श्रीवत्स की रेखा है गले में कौस्तुभमणि और वनमाला शोभायमान हो रही है परीक्षित जब तक भगवान में मन स्थिर ना हो जाए तब तक भगवान के एक-एक अंग का ध्यान करें और साधक जब इस लोक को छोड़ना चाहे तो उसके दो प्रकार बताए गए हैं -
   (१)सद्यो मुक्तिः  और  (२)क्रम मुक्तिः
जो साधक सद्यो मुक्ति चाहता है |वह मूलाधार , ्स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध इन पांचों चक्रों से प्राण वायु को ऊपर ले जाकर कुछ देर प्राणवायु को आज्ञा चक्र में स्थित करें फिर सहस्त्रार का भेदन कर शरीर आदि इंद्रियों को छोड़ ब्रह्म में स्थित हो जायें |

जो साधक योगियों की भांति अष्ट सिद्धियों को प्राप्त करना चाहता है | आकाश चारी सिद्धों के समान भ्रमण करना चाहता है  वह क्रम मुक्ति का आश्रय ले मन और इंद्रियों के साथ शरीर से बाहर निकले वहां से साधक अग्नि लोक में जाता है |वहां उसके बजे कुचे मल जलकर भस्म हो जाते हैं |

और वह ज्योतिर्मय शिशुमार चक्र में पहुंचता है ,शिशुमार चक्र से महर लोक में पहुंचता है प्रलय के समय जब शेषनाग के मुख से निकली हुई अग्नि नीचे के लोकों को जलाने लगती है|

तब वह साधक सत्यलोक ब्रह्मलोक में पहुंच जाता है उस ब्रह्मलोक में किसी भी प्रकार का शोक ,बुढ़ापा ,मृत्यु और उद्वेग नहीं है वह साधक अज्ञानी पृथ्वी वासियों को संसार के काम-धंधों में फंसा हुआ देखता है तो उन पर कृपा करने के लिए पृथ्वी में जन्म ग्रहण करता है और सांसारिक प्राणियों का कल्याण कर स्वयं भी भगवान को प्राप्त कर लेता है|

परीक्षित यदि सांसारिक वस्तुओं की भी कामना हो तो वह वैदिक अनुष्ठानों का ही आश्रय ले भूत प्रेत तंत्र  आदि के चक्करों में ना फंसे ब्रह्म तेज की कामना से बृहस्पति की उपासना करें ,संतान की कामना के लिए प्रजापतियों की उपासना करें ,तेज के लिए अग्नि की, धन के लिए अष्टवसुओं की ,स्वर्ग की इच्छा से देवताओं की ,आयु की वृद्धि के लिए अश्विनीकुमारों की।

रूप के लिए गंधर्वों की ,यश के लिए भगवान यज्ञ नारायण की, विद्या के लिए भगवान शंकर की, पति पत्नी में प्रेम के लिए मां पार्वती की उपासना करें---
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः |
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||
कोई कामना हो अथवा ना हो तथा समस्त कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें--
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः |
न यत्कर्णपथोपेतो जातुनाम गदाग्रजः ||
परीक्षित- जिसने कभी भी इस जीवन में भगवान श्री कृष्ण के मधुर लीलाओं का श्रवण नहीं किया वह मनुष्य कुत्ते ,सूकर, ऊंट और गधे के समान है |
जिन हरि कथा सुनी नहिं काना |
श्रवणरन्ध्र अहि भवन समाना ||१
जो नहिं करहिं राम गुण गाना |
जीह सो दादुर जीह समाना ||२
ते सिर कटु तुम्बरि सम तुला |
जे ना नमत हरि गुरु पद मूला ||३
नयनहिं संत दरस नहीं देखा |
लोचन मोर पंख कर लेखा ||४
जिन हरि भगति ह्रदय नहिं आनी | 
जीवत सव समान तेहि प्रानी ||५
कुलिश कठोर निठुर सोइ छाती |
सुन हरि चरित न जे हरसाती  ||६
रामचरितमानस
(बाल काडं) दोहा नंबर-११३
जिन्होंने अपने कान से अपने कर्णपुटों  से भगवान श्रीकृष्ण की कथा का श्रवण नहीं किया उनके कान सांप के बिल के समान हैं |जिन्होंने अपनी वाणी से भगवान श्री हरि के गुण चरित्रों का वर्णन नहीं किया उनकी जीभ मेंढक की जीभ के समान मात्र बकवाद करने के लिए है|

जिनका सिर संत और भगवंत के चरणों में नहीं झुकता वह सिर्फ कड़वी तुम्बरी के समान हैं |जिन्होंने अपने नेत्रों से भगवान के पवित्र तीर्थ और संतों का दर्शन नहीं किया उनकी आंख मोर के पंख में बनी हुई आंख के समान है जो होते हुए भी देख नहीं सकते|

जिसके जीवन में भगवान की भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हुआ वह जीता जी मुर्दे के समान है और जिसका हृदय भगवान के मधुर चरित्र को सुनकर हर्षित नहीं होता वह हृदय पत्थर के समान कठोर है |

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

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