Bhagwat duteey skandha Story2 भागवत कथा नाक द्वितीय स्कंध भाग 2

भागवत कथानक द्वितीय स्कंध ,भाग- 2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
राजा परीक्षित श्री शुकदेव जी से प्रश्न करते हैं, भगवान श्री हरि अपनी माया से किस प्रकार इस जगत की सृष्टि करते हैं, सृष्टि विषय प्रश्न पूछने पर शुकदेव जी मंगलाचरण करते हैं|

अभी तक श्री शुकदेव जी ने मंगलाचरण नहीं किया था क्यों कि राजा परीक्षित ने जब प्रश्न किया जो मरने वाला है उसे क्या करना चाहिए राजा परीक्षित के हृदय में उस मृत्यु का डर था इसलिए श्री शुकदेव जी ने उस समय पहले परीक्षित को अभय दान दिया, उनके भय को समाप्त किया जैसे कुशल डॉक्टर पहले रोग का निदान करता है फिर फॉर्मल्टी अदा करता है |

तथा जब राजा परीक्षित ने सृष्टि विषय प्रश्न पूंछा तो श्री शुकदेव जी ने विचार किया यह संसार बंधन में डालने वाला है मोह में डालने वाला है,कहीं इसका वर्णन करके मैं इसमें फंस ना जाऊं इसलिए भगवान का स्मरण किया जैसे कठल काटना हो तो पहले चाकू छुरी में तेल लगाया जाता है क्योंकि उसके बाद वह छूरी काठ से चिपकती नहीं |

इस प्रकार संसार में प्रवेश करने से पूर्व भगवान नाम रूपी स्नेह को स्निग्धता को धारण कर लेना चाहिए,
श्री सुखदेव जी मंगलाचरण करते हैं |
नम: परस्मै पुरुषाय भूयसे 
       सदुद्भवस्थाननिरोध लीलया |
गृहीत शक्तित्रितयाय देहिना 
       मन्तर्भवायानुपलक्ष्य वर्त्मने ||2,4,12
यत्कीर्तनं यत्स्मरणं यदीक्षणम् 

        यद्वन्दनं यच्छ्रवणं यदर्हणम् |
लोकस्य सद्यो विधुनोति कल्मषं
        तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ||2,4.15
मैं उन परम पुरुष भगवान जो इस जगत की उत्पत्ति पालन और संघार की लीला के लिए ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों रूप को धारण करते हैं जो समस्त प्राणियों में अंतर्यामी रूप से विराजमान है उन परम ब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूं |

जिन भगवान श्री हरि का कीर्तन स्मरण दर्शन वंदन श्रवण और पूजन प्राणियों के कल्मष को पापों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है,उन पवित्र कीर्ति भगवान को मैं बारंबार नमस्कार करता हूं | परीक्षित जो प्रश्न तुमने मुझसे पूछा है वही प्रश्न देवर्षि नारद ने अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा था एक बार देवर्षि नारद ने अपने पिता ब्रह्मा जी को ध्यान करते हुए देखा तो कहा पिताजी इस संपूर्ण सृष्टि की रचना आपने की है इस जगत के कारण आप हैं |

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 फिर आप आंख बंद करके किसका ध्यान कर रहे हैं ब्रह्मा जी ने कहा बेटा नारद इस जगत का कारण मैं नहीं भगवान नारायण मैं उन्हीं का ध्यान कर रहा था सूर्य चंद्रमा ग्रह नक्षत्र तारे सभी भगवान नारायण के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं |
नारायण परा वेदा देवा नारायणाग्ङजा |
नारायणपरा लोका नारायण परा मखा ||
नारायणपरो योगो नारायण परम तपः | 

नारायण परं ज्ञानम नारायण परा गतिः ||
वेद, देवता ,लोक,यज्ञ ,योग, तपस्या, ज्ञान और गति सबका पर्यावसान भगवान नारायण में ही है उन भगवान नारायण की इच्छा जब--
    ~एकोहं बहुस्यामः~
एक से बहुत होने की हुई तो उन्होंने माया से अपने स्वरूप में काल कर्म और स्वभाव को स्वीकार किया|
 काल ने तीन गुणों में छोभ उत्पन्न किया स्वभाव ने उन्हें रूपांतरित किया और कर्म ने महतत्व को जन्म दिया | महतत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ वह अहंकार सात्विक राजस तामस इन तीन प्रकार का हुआ।

तामस अहंकार से पंचमहाभूत -(पृथ्वी तेज जल वायु आकाश)और 5 तन्मात्राओं  की-( शब्द स्पर्श रूप रस गंध ) उत्पत्ति हुई सात्विक अहंकार से मन और इंद्रियों के देवता उत्पन्न हुए और राजस अहंकार से पांच ज्ञानेंद्रियां (वाक पाणि पाद पायु और उपस्थ ) शक्ति प्रदान बुद्धि और क्रिया शक्ति प्रधान प्राण उत्पन्न हुए इन सब ने मिलकर ब्रह्मांड की रचना की |

यह ब्रह्म निर्जीव रूप से जल में पड़ा रहा 1000 वर्षों के पश्चात भगवान ने इसमें चेतनता प्रदान की और इसे फोड़कर विराट पुरुष निकले जिनके हजारों सिर हजारों पर हजारों हाथ हजारों मुख थे |
इन्हें विराट पुरुष की नाभि कमल से मेरी उत्पत्ति हुई......
ना भारती मेङ्ग मृषोपलक्ष्यते 
    न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः |
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे 
     यन्मे हृदौत्कण्ठवता धृतो हरिः ||
       ( 2,6,33 )
नारद इन्ही भगवान नारायण के ध्यान में मग्न रहता हूं जिसके कारण मेरी वाणी कभी असत्य  भाषण नहीं करती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प  नहीं करता और मेरी इंद्रियां कुमार्ग में नहीं जाती |

उत्पन्न होने के पश्चात जब चारों ओर मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया तो मैं अपने उत्पत्ति स्थान को जानने की इच्छा से कमल नाल के सहारे जल में उतरा परंतु हजारों वर्ष तक ढूंढने पर भी मैं उस कमल के मूल भाग का पता नहीं लगा पाया | हार थक कर में पुनः अपने स्थान में लौट आया और चिंतन करने लगा उसी समय आकाशवाणी हुई........
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
        निष्किञ्चनानां नृप यद् धनं विदुः |
आकाशवाणी को मैंने सुना तो उसमें दो अक्षर सुनाई दिए त और प |  आकाशवाणी कहां से हुई यह देखने के लिए जब मैं चारों ओर घुमा तो मेरे 4 सिर हो गए आकाशवाणी को सत्य मान में तपस्या करने लगा मेरी तपस्या से प्रसन्न हो भगवान ने मुझे अपने बैकुंठ लोक का दर्शन कराया और आज्ञा दी सृष्टि करो मैंने कहा प्रभु आप मुझे ज्ञान प्रदान कीजिए जिससे जगत की सृष्टि करने पर भी मैं उसमें मोहित ना होउं उस समय भगवान ने मुझे चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया|

इन चतुश्लोकी भागवत के पहले इस लोक में परमात्म तत्व का ब्रह्म तत्व का वर्णन किया गया है ,दूसरे मे माया तत्व का वर्णन किया गया है तीसरे में जीव तत्व का और चौथे श्लोक में संसार से मुक्त होने का उपाय बताया गया हैै......
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् |
पश्चादहं यदेतच्च योवशिष्येत सोस्म्यहम् ||
ब्रह्मा जी इस जगत की सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था मेरे अलावा और कुछ नहीं था इस जगत के रूप में मैं ही विद्यमान हूं और जब यह जगत नहीं रहेगा तब केवल मैं ही रहूंगा |
ऋतेर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि |
तद्विद्यादात्मनो  मायां यथा भासो यथा तमः ||
वास्तविक वस्तु उस परमात्मा को छोड़कर जिस की प्रतीति होती है उस आत्म तत्व परमात्मा की प्रतीति नहीं होती उसे माया कहते हैं| जैसे आकाश में चंद्रमा एक है परंतु आंख के सामने उंगली रखने पर वह दो प्रतीत होते हैं और आकाश में तारों के मध्य राहु नामक ग्रह विद्यमान हैं परंतु वह दिखाई नहीं देता इसी प्रकार चराचर जगत में परमात्मा विद्यमान हैं परंतु उसका ज्ञान नहीं होता |

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु |
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ||
जैसे प्राणियों के छोटे बड़े शरीर में आकाश आदि पंचमहाभूत प्रविष्ट होते हैं और पहले से ही विद्यमान रहने के कारण प्रविष्ट नहीं भी होते ऐसे ही ब्रह्मा जी प्राणियों के शरीर में आत्म रूप से मैं सदा प्रविष्ट हूं और मेरे अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं इसलिए मैं उस में प्रविष्ट नहीं हूं|
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुनात्मनः |
अन्वयव्यतिरेकेभ्यां यत् स्यात सर्वत्र सर्वदा ||
यह ब्रह्म नहीं यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेध की पद्धति से अथवा यह ब्रह्म है यह ब्रह्म है इस प्रकार ब्रह्म है इस प्रकार अनवय की पद्धति से यही सिद्ध होता है की सर्वदा सब जगह है वह ब्रह्म विद्यमान है |
जो परमात्म तत्व को जानना चाहते हैं उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है |

ब्रह्मा जी तुम इस ज्ञान में निष्ठ हो जाओ जिससे कल्प कल्पान्तरों  में भी सृष्टि करते हुए तुम सृष्टि में मोहित नहीं होगे |
 इस प्रकार उपदेश देकर भगवान नारायण अंतर्ध्यान हो गए परीक्षित श्रीमद्भागवत में 10 लक्षणों का वर्णन किया गया है.........
अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः |
मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ||
सर्ग ,विसर्ग ,स्थान ,पोषण, ऊति, मन्वंतर, ईशानु कथा ,निरोध, मुक्ति और आश्रय |
तृतीय स्कंध को सर्ग कहते हैं-- इसमें सूक्ष्म सृष्टि का वर्णन किया गया है |
चतुर्थ स्कंध को विसर्ग कहते हैं --ब्रह्मा जी से लेकर चराचर जगत की सृष्टि विसर्ग है |
पंचम स्कंध को स्थान कहते हैं-- प्रतीक्षण विनाश की ओर बढ़ने वाली सृष्टि को एक मर्यादा में स्थिर रखने से भगवान की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है उसे स्थान कहते हैं |

छठमें स्कंध को पोषण कहते हैं-- भगवान की अपने भक्तों पर अहैैतुक कृपा ही पोषण है|
 सातमें स्कंध को ऊति कहते हैं-- जीवों की बे वासनाएं जो उन्हें कर्म बंधन में डाल देती हैं उन्हें ऊति कहते हैं |
 आठवें स्कन्ध को मन्वंतर कहते हैं---मन्वंतर के अधिपति जो मनु राजा पालन रूप सुधर्म का अनुष्ठान करने वाले हैं उसे मन्वंतर कहते हैं |
नवमें स्कंध को ईषानु कथा कहते हैं--- भगवान और भगवान के भक्तों की विविध आख्यानों को ईशानुकथा कहा गया है |

 दशम स्कंध निरोध है----जब भगवान योग निद्रा का आश्रय ले सयन करना चाहते हैं उस समय जीव अपनी उपाधियों के साथ प्रभु में लीन हो जाता है वही निरोध है|
 11 में स्कंध को मुक्ति कहते हैं------
मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ||
अनात्म भाव का परित्याग और अपने वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थित होना ही मुक्ति हैै
और बारहवें स्कन्ध को आश्रय कहते हैं ------इस जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्व से प्रकाशित होता है वह परम ब्रह्म ही सबका आश्रय है |
परीक्षित इन 10 लक्षणों से युक्त श्रीमद् भागवत महापुराण को ब्रह्मा जी ने नारद जी को सुनाया और उसे ही अब मैं तुम्हें सुना रहा हूं |
    ((  द्वितीय स्कन्ध का विश्राम ))

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भागवत कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें 

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