भागवत कथानक तृतीय स्कन्ध:,भाग-1

तृतीय स्कंध को सर्ग कहते हैं- भूत - पंचमहाभूत तन्मात्राएं और इंद्रिय अादि सूक्ष्म सृष्टि को सर्ग कहते हैं |
राजा परीक्षित श्री शुकदेव जी से पूछते हैं गुरुदेव विदुर जी का मैत्रेय जी के साथ समागम कहां हुआ था और इन दोनों के मध्य क्या वार्ता हुई तब श्री शुकदेव जी कहते हैं |
यदा तू राजा स्वसुतानसाधून्
पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः |
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ||
परीक्षित जिस समय अंधे राजा धृतराष्ट्र पुत्र मोह में अंधे हो रहे थे वह अन्याय पूर्वक अपने पुत्रों का पालन पोषण कर रहे थे उस समय उन्होंने निरपराध महाराज पांडु के पुत्रों को जो सब तरह से योग्य थे उन्हें लाक्षा भवन में जलाकर मारना चाहा परंतु पांडव विदुर जी की सहायता से वहां से निकलने में सफल हुए मार्ग में हिडिंब से भीमसेन का युद्ध हुआ।
भीमसेन ने हिडिंब का वध कर दिया हिडिंब की बहन हिडिंबा ने भीमसेन के पुरुष को देखा तो मोहित हो गई और दोनों का विवाह हुआ जिससे घटोत्कक्ष का जन्म हुआ |
पांडवों ने वन में निवास किया | जिस समय महाराज द्रुपद ने द्रोपती के स्वयंबर का आयोजन किया उस समय देश विदेश से अनेकों राजा स्वयंवर में आए पांडव भी महात्मा के भेष में वहां आए महात्मा वेषधारी पांडवों को भगवान श्रीकृष्ण ने देखा पहचान गए कि यह पांडव है।
पांडवों ने दूर से ही भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम किया स्वयंवर में सर्त रखी गई जो भी तेल में चलती हुई मछली की परछाई देखकर मत्स्यभेद कर देगा उसके साथ द्रोपती का विवाह होगा अनेकों राजा आए उनमें से कई तो धनुष भी नहीं उठा पाए जिससे धनुष उठा धनुष में प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाया।
करण ने धनुष भी उठा लिया उसमें प्रत्यंचा भी चढ़ा ली वह मत्स्य भेद भी कर सकता था परंतु भगवान श्री कृष्ण के इशारा करने पर द्रोपती ने कहा मैं राजकुमारी हूं किसी सूतपुत्र से विवाह नहीं करूंगी इससे अपमानित होकर कर्ण सभा से बाहर निकल आया तब दुर्योधन ने कर्ण को अपना अंगदेश प्रदान कर उसे अपना मित्र बना लिया जब किसी से भी मत्स्य भेद नहीं हुआ तो तब महाराज युधिष्ठिर के आज्ञा देने पर अर्जुन मत्स्य भेदने आए --
भीमसेन ने हिडिंब का वध कर दिया हिडिंब की बहन हिडिंबा ने भीमसेन के पुरुष को देखा तो मोहित हो गई और दोनों का विवाह हुआ जिससे घटोत्कक्ष का जन्म हुआ |
पांडवों ने वन में निवास किया | जिस समय महाराज द्रुपद ने द्रोपती के स्वयंबर का आयोजन किया उस समय देश विदेश से अनेकों राजा स्वयंवर में आए पांडव भी महात्मा के भेष में वहां आए महात्मा वेषधारी पांडवों को भगवान श्रीकृष्ण ने देखा पहचान गए कि यह पांडव है।
पांडवों ने दूर से ही भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम किया स्वयंवर में सर्त रखी गई जो भी तेल में चलती हुई मछली की परछाई देखकर मत्स्यभेद कर देगा उसके साथ द्रोपती का विवाह होगा अनेकों राजा आए उनमें से कई तो धनुष भी नहीं उठा पाए जिससे धनुष उठा धनुष में प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाया।
करण ने धनुष भी उठा लिया उसमें प्रत्यंचा भी चढ़ा ली वह मत्स्य भेद भी कर सकता था परंतु भगवान श्री कृष्ण के इशारा करने पर द्रोपती ने कहा मैं राजकुमारी हूं किसी सूतपुत्र से विवाह नहीं करूंगी इससे अपमानित होकर कर्ण सभा से बाहर निकल आया तब दुर्योधन ने कर्ण को अपना अंगदेश प्रदान कर उसे अपना मित्र बना लिया जब किसी से भी मत्स्य भेद नहीं हुआ तो तब महाराज युधिष्ठिर के आज्ञा देने पर अर्जुन मत्स्य भेदने आए --
प्रभुहिं प्रणाम मनहिं मन कीन्हा ||
मन ही से भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम किया बाएं हाथ से धनुष उठाया उसमें प्रत्यंचा चढ़ाई और तेल में मत्स्य की परछाई देखकर एक ही क्षण में मत्स्यभेद कर दिया | चारों ओर जय जयकार होने लगे भगवान श्रीकृष्ण ने द्रोपती को बताया यह गांडीव धारी अर्जुन हैं |
द्रोपती ने वरमाला अर्जुन के गले में डाल दी पांडव द्रोपती को लेकर माता कुंती के पास आए द्वार के बाहर से आवाज लगाई हम भिक्षा ले आए माता तो माता कुंती ने कहा सभी भाई आपस में बांट लो जिससे द्रोपदी के पांच पति हुए |
द्रोपती ने वरमाला अर्जुन के गले में डाल दी पांडव द्रोपती को लेकर माता कुंती के पास आए द्वार के बाहर से आवाज लगाई हम भिक्षा ले आए माता तो माता कुंती ने कहा सभी भाई आपस में बांट लो जिससे द्रोपदी के पांच पति हुए |
मार्कंडेय पुराण में ऐसा वर्णन मिलता है- जिस समय इंन्द्र ने अपने गुरु विश्वरूप का वध किया उस समय इंद्र के शरीर से धर्म निकल गया और धर्मराज यमराज में समाहित हो गया जिस समय इंन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया उस समय इंद्र का बल निकलकर वायु में समाहित हो गया जिस समय इंद्र ने ऋषि गौतम की नारी अहिल्या का अपराध किया उस समय इंद्र का रूप निकलकर अश्वनी कुमारों में समाहित हो गया।
कालांतर में ऋषि दुर्वासा के वरदान स्वरूप माता कुंती ने जब धर्मराज का आवाहन किया तो इंद्र के धर्म के रूप में धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ वायु देवता से इंद्र केबल के रूप में भीमसेन का जन्म हुआ अश्विनी कुमारों से इंद्र के रूप में नकुल और सहदेव का जन्म हुआ और अर्जुन के रूप में स्वयं इंद्र उत्पन्न हुआ द्रोपती यज्ञ से उत्पन्न हुई जो इंद्र की पत्नी सची देवी है |
जिससे पांचों पांडवों का विवाह हुआ जब महाराज धृतराष्ट्र को यह पता चला पांडव जीवित है तो उन्हें हस्तिनापुर बुलवाया गया पांडवों को रहने के लिए महाराज धृतराष्ट्र ने खांडव वन प्रदान किया अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से इंद्र पर विजय प्राप्त कर खांडव वन अग्नि को प्रदान किया और मैदानव की रक्षा की जिससे मैदानव प्रसन्न हो गया और उसने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ नामक नगरी बनाई।
जब पांडव समृद्ध हो गए तो उन्होंने राजसूय यज्ञ किया उस राजसूय यज्ञ में जब भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा करने जाने लगी उस समय शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को अपशब्द कहने लगा भगवान श्री कृष्ण ने उसके शव अपराध क्षमा किये जैसे ही शिशुपाल ने 101 अपराध किया भगवान श्री कृष्ण ने चक्र सुदर्शन का स्मरण किया और शिशुपाल का वध कर दिया।
उस समय चक्र की तीव्रता के कारण भगवान श्री कृष्ण की तर्जनी अंगुली से रक्त बहने लगा यह देख द्रोपती ने अपनी नवीन साड़ी फाड़कर श्री कृष्ण की अंगुली में बांधी भगवान श्री कृष्ण ने कहा द्रोपती तुम्हें मेरे छोटे से घाव के लिए इतनी कीमती साड़ी फाडने की क्या आवश्यकता थी द्रोपती ने कहा----------
कालांतर में ऋषि दुर्वासा के वरदान स्वरूप माता कुंती ने जब धर्मराज का आवाहन किया तो इंद्र के धर्म के रूप में धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ वायु देवता से इंद्र केबल के रूप में भीमसेन का जन्म हुआ अश्विनी कुमारों से इंद्र के रूप में नकुल और सहदेव का जन्म हुआ और अर्जुन के रूप में स्वयं इंद्र उत्पन्न हुआ द्रोपती यज्ञ से उत्पन्न हुई जो इंद्र की पत्नी सची देवी है |
जिससे पांचों पांडवों का विवाह हुआ जब महाराज धृतराष्ट्र को यह पता चला पांडव जीवित है तो उन्हें हस्तिनापुर बुलवाया गया पांडवों को रहने के लिए महाराज धृतराष्ट्र ने खांडव वन प्रदान किया अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से इंद्र पर विजय प्राप्त कर खांडव वन अग्नि को प्रदान किया और मैदानव की रक्षा की जिससे मैदानव प्रसन्न हो गया और उसने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ नामक नगरी बनाई।
जब पांडव समृद्ध हो गए तो उन्होंने राजसूय यज्ञ किया उस राजसूय यज्ञ में जब भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा करने जाने लगी उस समय शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को अपशब्द कहने लगा भगवान श्री कृष्ण ने उसके शव अपराध क्षमा किये जैसे ही शिशुपाल ने 101 अपराध किया भगवान श्री कृष्ण ने चक्र सुदर्शन का स्मरण किया और शिशुपाल का वध कर दिया।
उस समय चक्र की तीव्रता के कारण भगवान श्री कृष्ण की तर्जनी अंगुली से रक्त बहने लगा यह देख द्रोपती ने अपनी नवीन साड़ी फाड़कर श्री कृष्ण की अंगुली में बांधी भगवान श्री कृष्ण ने कहा द्रोपती तुम्हें मेरे छोटे से घाव के लिए इतनी कीमती साड़ी फाडने की क्या आवश्यकता थी द्रोपती ने कहा----------
सुनो प्यारे भाई घनश्याम आप के आवे जो काम |
चीर दूं मैं नसों को यह तो रेशम के धागे हैं ||
धागे भी पुराने इन्हें हम माने क्या |
यह दूल्हा दुल्हन के जोड़े और बाने हैं ||
फिर मैंने कब फाड़ा है चीर |
सुनते ही पीर मेरा चीर छोड़ भागे हैं ||
वे धागे है अभागे जो ना लागे काटी अंगुली पर |
जो लागे काटी उंगली पर भाग्य उनके ही जागे हैं ||
भगवान श्री कृष्ण ने कहा द्रोपती तुमने अपना ऋणी बना लिया यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात दुर्योधन आदि इंद्रप्रस्थ नगरी की शोभा देखने निकले जिस स्थान पर स्थल था वहां दुर्योधन को जल का भ्रम हुआ जिससे वह धोती उठाकर चलने लगा और जिस स्थान पर जल था वहां उसने स्थल समझा और धड़ाम से गिर गया पानी में उसके वस्त्र भीग गए यह देख द्रोपती को हंसी आ गई जिस से अपमानित महसूस कर दुर्योधन हस्तिनापुर लौट आया |
उसने पांडवों को द्यूत क्रीड़ा का आमंत्रण भेजा पांडव जब जुआ खेलने आए तो शकुनि के छल भरे पासों से पांडव अपना राजकोष और बल सब कुछ हार गए यहां तक कि स्वयं भी दास बन गए दुर्योधन ने कहा एक और चाल हो जाए अबकी बार द्रोपती को दाव में लगा दो यदि जीत तुम्हारी हुई तो जो कुछ भी हारे हो वह सब तुम्हें वापस मिल जाएगा महाराज धृतराष्ट्र ने संसार को यह दिखाया की जुआ खेलने वालों की क्या गति होती है।
द्रोपती को दाव में लगा दिया इस बार पांडवों ने और इस बार भी कौरवों की विजय हुई दुर्योधन ने दुशासन को आज्ञा दी जाओ द्रोपती के केस पकड़ कर घसीटते हुए उसे सभा में ले आओ दुशासन से द्रोपती ने बहुत अनुनय विनय की परंतु दुशासन एक नहीं माना घसीटते हुए द्रोपती को सभा में ले आया दुर्योधन ने आज्ञा दि द्रोपती को मेरी जंघा में बिठाल दो यह सुन भीमसेन को क्रोध आ गया |
उसने पांडवों को द्यूत क्रीड़ा का आमंत्रण भेजा पांडव जब जुआ खेलने आए तो शकुनि के छल भरे पासों से पांडव अपना राजकोष और बल सब कुछ हार गए यहां तक कि स्वयं भी दास बन गए दुर्योधन ने कहा एक और चाल हो जाए अबकी बार द्रोपती को दाव में लगा दो यदि जीत तुम्हारी हुई तो जो कुछ भी हारे हो वह सब तुम्हें वापस मिल जाएगा महाराज धृतराष्ट्र ने संसार को यह दिखाया की जुआ खेलने वालों की क्या गति होती है।
द्रोपती को दाव में लगा दिया इस बार पांडवों ने और इस बार भी कौरवों की विजय हुई दुर्योधन ने दुशासन को आज्ञा दी जाओ द्रोपती के केस पकड़ कर घसीटते हुए उसे सभा में ले आओ दुशासन से द्रोपती ने बहुत अनुनय विनय की परंतु दुशासन एक नहीं माना घसीटते हुए द्रोपती को सभा में ले आया दुर्योधन ने आज्ञा दि द्रोपती को मेरी जंघा में बिठाल दो यह सुन भीमसेन को क्रोध आ गया |
उसने कहा दुर्योधन जिस जंघा पर तू द्रोपती को बैठाने के लिए कह रहा है उस जंघा को मैं अपने प्रचंड गदा से विदीर्ण कर दूंगा |
दुर्योधन बोला कि दास को ऊंचे स्वर में नहीं बोलना चाहिए दुर्योधन दुशासन को आज्ञा दी द्रोपती को भरी सभा में निर्वस्त्र कर दो दुशासन द्रोपती की साड़ी खींचने लगा द्रोपती ने सभा में बैठे हुए सब से सहायता मांगी पर जब कोई भी सहायता के लिए नहीं आया तो द्रोपती ने गोविंद का स्मरण किया उसी समय भगवान श्री कृष्ण वस्त्रावतार धारण कर प्रकट हो गए.....|
दुर्योधन बोला कि दास को ऊंचे स्वर में नहीं बोलना चाहिए दुर्योधन दुशासन को आज्ञा दी द्रोपती को भरी सभा में निर्वस्त्र कर दो दुशासन द्रोपती की साड़ी खींचने लगा द्रोपती ने सभा में बैठे हुए सब से सहायता मांगी पर जब कोई भी सहायता के लिए नहीं आया तो द्रोपती ने गोविंद का स्मरण किया उसी समय भगवान श्री कृष्ण वस्त्रावतार धारण कर प्रकट हो गए.....|
बोलिए वस्त्रावतार भगवान की जय
दुशासन साड़ी खींचता जा रहा था परंतु साड़ी थी कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थी दुशासन सोचने लगा............
साड़ी बीच नारी है कि नारी बीच साडी है |
की साड़ी की ही नारी है कि नारी की साड़ी है ||
कहां करें बैरी प्रबल जो सहाय यदुवीर |
दस हजार गज बल थक्यो घट्यो न दस गज चीर||
भक्त कवि श्री सुरकिशोर जी कहते हैं...........
सुने री मैंने निर्बल के बलराम
दुशासन की भुजा थकित भई
वसन रुप भये श्याम | सुने री..............!
अप बल तप बल और बाहु बल
चौथा है बल दाम|
सूरकिशोर कृपा ते सब बल हारे को
हरिनाम ||सुने री मैंने..............!
भगवान श्री कृष्ण ने भरी सभा में द्रोपदी की लज्जा की रक्षा की द्रोपती कौरवों को श्राप देने लगी उस समय माता गांधारी ने द्रोपदी को श्राप देने से रोका पांडवों को 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास दिया गया|वन में जहां-तहां रहकर अनेकों कष्टों को सहकर पांडवों ने 12 वर्ष व्यतीत किए अज्ञातवास के समय पांडव वेश बदल कर महाराज विराट के यहां आए वहां धर्मराज युधिष्ठिर महाराज विराट के सलाहकार बने भीम ने रसोइये का काम किया अर्जुन को उर्वशी अप्सरा का नपुंसक होने का 1 वर्ष का श्राप था इसलिए बृहन्नला बनकर अर्जुन ने महाराज विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य गान की शिक्षा प्रदान की।
नकुल और सहदेव अश्वपाल हुए जब अज्ञातवास का 1 वर्ष समाप्त होने वाला था उस समय कीचक की दृष्टि द्रोपती पर पड़ी द्रोपती ने यह बात भीम को बताई तो भीम ने द्रोपती के माध्यम से कीचक को एकांत में बुलवाया और उसका वध कर दिया कीचक की मृत्यु का समाचार जब दुर्योधन ने सुना कहने लगा कि कीचक जैसे बलवान को मारने की सामर्थ्य भीम के अलावा किसी में नहीं है|
हो ना हो पांडवों ने महाराज विराट के यहां शरण ले रखी है दुर्योधन ने संपूर्ण सेना के साथ विराट नगरी पर आक्रमण कर दिया उस समय महाराज विराट कहीं बाहर गए हुए थे उनके स्थान पर उनका पुत्र उत्तर युद्ध करने आया परंतु जब उसने कौरवों की विशाल सेना को देखा तो वहां से भागने लगा अर्जुन ने उत्तर को अपने बल का परिचय दिया और गांडीव उठाकर अकेले ही संपूर्ण कौरवों को परास्त कर दिया।
महाराज विराट को जब यह पता चला कि पांडव हमारे यहां दास बन कर रहे तो वे बड़े लज्जित हुए उन्होंने अर्जुन से अपनी पुत्री उत्तरा से विवाह करने के लिए कहा तो अर्जुन ने कहा महाराज इसे मैंने शिक्षा प्रदान की है यह मेरी पुत्री के समान है इसलिए आप इसका विवाह मेरे पुत्र अभिमन्यु से कर दीजिए अर्जुन के इस प्रकार कहने पर महाराज विराट ने उत्तरा का विवाह अभिमन्यु से कर दिया पांडवों ने संधि प्रस्ताव के लिए भगवान श्री कृष्ण को शांति दूत बनाकर भेजा |
दुर्योधन ने भगवान श्री कृष्ण के स्वागत की बड़ी भारी तैयारी कर रखी थी जब भगवान श्री कृष्ण आए तो उनका स्वागत किया उनसे भोजन के लिए कहा भगवान श्री कृष्ण ने कहा दुर्योधन भोजन दो ही परिस्थिति में होता है या तो खाने वाले में भूख हो अथवा खिलाने वाले में वह प्रेम हो यहां दोनों ही बातें नहीं है ना मुझ में भूख है ना तुममे वह प्रेम है और मेरा भोजन तो आज पहले से ही काका विदुर के यहां निश्चित है।
जैसे ही विदुर काका ने यह सुना श्री कृष्ण आज हमारे घर पधारेंगे तो गदगद हो गए भगवान श्री कृष्ण के भोजन की तैयारी करने लगे भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा दुर्योधन तुम पांडवों को उनका राज्य दे दो यदि राज्य नहीं दे सकते तो 5 गांव ही दे दो वह संतोषी हैं इतने में ही मान जाएंगे।
दुर्योधन ने कहा अच्छा मात्र 5 गांव तो इन्हें 5 गांव दे दिए जाए शकुनि ने कहा दुर्योधन यह कृष्ण बड़े छलिया हैं उन्होंने बलि से तीन पग भूमि मांगी थी और तीन पग में सारे ब्रह्मांड को नाप लिया था तुम्हें मालूम है पांडव कौन से 5 गांव माग रहे हैं| शकुनि ने अपने छल भरी बातों से दुर्योधन को फंसाते हुए बोला दुर्योधन..
इन्द्रप्रस्थं यमप्रस्थं अवन्तिवारुणावतम् |
देहिमे चतुरग्रामान पञ्चमंहस्तिनापुरम् ||
पांडव पहला गांव इंद्रप्रस्थ ( दिल्ली से लेकर संपूर्ण हरियाणा मांग रहे हैं ) दूसरा गांव यमप्रस्थ ( राजस्थान से लेकर संपूर्ण मरूभूमि ) तीसरा अवंती ( उज्जैन से लेकर संपूर्ण मध्यप्रदेश और दक्षिण भारत ) वरुणावर्त ( काशी से लेकर संपूर्ण उत्तर प्रदेश ) और पांचवा गांव है ( हस्तिनापुर से लेकर संपूर्ण उत्तराखंड ) दुर्योधन ने जैसे ही सुना तो क्रोधित हो गया श्री कृष्ण से कहा........
सूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव |
श्री कृष्ण मैं बिना युद्ध के पांडवों को सुई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा श्री कृष्ण ने कहा तो दुर्योधन गुरुकुल के नाश के लिए तैयार हो जाओ दुर्योधन ने कहा यह गांव का ग्वाला हमारे राज्य में खड़े होकर हमें ही धमकी दे रहा है सैनिकों इसे बंदी बना लो।जैसे ही सैनिक भगवान श्री कृष्ण को बंदी बनाने के लिए आगे बढ़े भगवान श्री कृष्ण ने विराट रूप दिखाया सभी भयभीत होकर भाग खड़े हुए भगवान श्री कृष्ण ने वहां से काका विदुर के यहां आए विदुर जी घर में नहीं थे काकी विदुरानी ने द्वार खोला जैसे ही श्रीकृष्ण को देखा भाव विभोर हो गई आसन के स्थान पर उन्हें नीचे जमीन पर ही विठाल दिया केले के फल के स्थान पर छिलका खिलाने लगी।
भगवान श्री कृष्ण बड़े प्रेम से छिलका खाने लगे क्योंकि भगवान श्री कृष्ण का कथन है..मेरा भक्त यदि मुझे प्रेम से पत्र पुष्प फल जल जो भी मुझे समर्पित करता है मैं उसे ग्रहण करता हूं |
भाव का भूखा हूं मैं भाव ही एक सार है |
भाव से भजे जो सदा उसी का बेड़ा पार है ||
अन्य धन अरु वस्त्र भूषण कुछ न मुझको चाहिए|
आप हो जाए मेरा बस पुर्ण यह सत्कार है ||
भाव विन सब कुछ भी दे दो मैं उसे लेता नहीं|
भाव से एक फूल भी दे तो वह मुझे स्वीकार है||