भागवत कथानक तृतीय स्कंध-2( bhagwat kathanak trateey skandha 2)

भागवत कथानक तृतीय स्कंध , भाग-2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
विदुर जी आए और भगवान श्री कृष्ण को केले के छिलके खाते हुए देखा तो विदुरानी  से कहा अरी तू बावरी हो गई क्या जो द्वारिकाधीश को छिलका खिला रही है |

 विदुर जी ने भगवान श्री कृष्ण के पाद प्रक्षालन किये उन्हें उत्तम भोजन   कराया भगवान श्री कृष्ण ने कहा काका जो स्वाद काकी के छिलकों में था वह स्वाद इस भोजन में नहीं है |

भगवान श्री कृष्ण ने काका विदुर और विदुरानी को अपनी निष्काम भक्ति प्रदान की और महाराज विराट के यहां लौट आए | श्री कृष्ण के चले जाने पर महाराज धृतराष्ट्र ने विदुर जी को मंत्रणा के लिए बुलवाया विदुर जी ने यहां जो उपदेश दिया वह महाभारत में विदुर नीति के रूप में प्रसिद्ध  है | 

महात्मा विदुर ने कहा महाराज आप पांडवों को उनका राज्य दे दीजिए वे आपके ना सहने योग्य अपराध को भी सह रहे हैं भगवान श्री कृष्ण भी उनकी तरफ हैं |
यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो मूर्तिः ध्रुवानीतिर्मतिर्मम् ||
जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गांडीव धारी अर्जुन हैं विजय वहीं है | और महाराज जिस दुर्योधन को आप अपना पुत्र मानकर पाल रहे हैं जिसके हां में हां करते हैं जिसके मोह में अंधे हो रहे हैं वह मूर्तिमान दोष है यदि आप अपने कुल का कुशल चाहते हैं तो इसी समय उसका त्याग कर दीजिए क्योंकि कहा गया है--
त्यजेत एकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत |
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत  ||
यदि एक व्यक्ति के त्याग से कुल की रक्षा हो रही है तो उसका त्याग कर देना चाहिए गांव के लिए कुल का और नगर के लिए गांव का भी क्या कर देना चाहिए|  परम पूज्य गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं.....
सचिव वैद्य गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस |
राज धर्म तन तीन कर होइ वेगिह नास  ||

यदि मंत्री वैद्य और गुरु भय के कारण मधुर भाषण करते हैं मीठा बोलते हैं | तो राज्य शरीर और धर्म का नाश हो जाता है विदुर जी के इन वचनों को जब दुर्योधन ने सुना क्रोध के कारण उसके होंठ फड़फड़ाने लगे उसने कहा किस ने इस दासी पुत्र को यहां बुलाया है |

यह खाता तो हमारा है और प्रशंसा हमारे शत्रुओं की कर रहा है हमारे शत्रुओं का काम बना रहा है इसे अति शीघ्र नगर से बाहर निकाल दो दुर्योधन के इस प्रकार अपशब्द बोलने पर भी महात्मा विदुर ने बुरा नहीं माना परंतु जब महाराज धृतराष्ट्र ने कौरवों का पक्ष लिया तो समझ गए अब कुरुकुल का विनाश निकट आ रहा है अपना धनुष और बाण द्वार पर रखा और तीर्थ यात्रा में निकल गये धनुष और बाण द्वार में इसलिए रखा कि कौरव कहीं यह न समझे हमारा  साथ छोड़ कर विदुर हमारे शत्रुओं की तरफ से युद्ध लड़ेगा |

श्री सुखदेव जी कहते हैं.............
सा निर्गतः कौरव पुण्यलब्धोः ||
 महात्मा विदुर कौरवों को बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे उनके जाते ही कौरवों के पुण्य भी उनके साथ चले गए |
अनेकों तीर्थों में जाते हुए विदुर जी यमुना के तट श्री धाम वृंदावन पहुंचे वहां उन्होंने उद्धव जी को देखा तो हृदय से लगा लिया भगवान श्री कृष्ण और द्वारिका वासियों की कुशलता के विषय में पूछा तो उद्धव जी के आंखों से अश्रु प्रवाह होने लगा कुछ देर तो वह कुछ बोल ही ना सके फिर अपने आंसुओं को पोंछ उन्होंने कहा |

विदुर जी भगवान श्री कृष्ण रूपी सूर्य के छुप जाने पर मैं द्वारिका वासियों की कुशलता का क्या वर्णन करूं |
दुर्भगो बत लोकोयं यदवो नितरामपि |
ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम् ||
विदुर जी यह लोक भाग्य हीन है और उसमें भी यदुवंशी तो नितांत अभागे हैं जो श्री कृष्ण के साथ रहते हुए भी उन्हें पहचान नहीं सके | जैसे अमृत में चंद्रमा के समुद्र में रहते हुए मछलियां उसे नहीं पहचान पाती |

 जब भगवान श्रीकृष्ण स्वधाम गमन करने लगे उस समय उन्होंने बद्रिका आश्रम जाने की आज्ञा दी परंतु मेै उनका वियोग सहने में असमर्थ था इसलिए उनके पीछे-पीछे प्रभास क्षेत्र आ गया उस समय उन्होंने सृष्टि के आदि में नाभि कमल पर बैठे हुए ब्रह्माजी को जो भागवत रूपी ज्ञान प्रदान किया था वही ज्ञान मुझे प्रदान किया विदुर जी ने कहा उद्धव जी यदि मैं उस भागवत श्रवण का अधिकारी हूं तो मुझे भी आप  भागवत सुनाइए |

     उद्धव जी ने कहा विदुर जी जब भगवान श्रीकृष्ण मुझे उपदेश दे रहे थे उस समय मेरे साथ में मैत्रेय जी भी वहां थे भागवत उन्होंने भी सुनी भगवान श्री कृष्ण ने मैत्रेय जी को आज्ञा दी जब मेरा भक्त विदुर आए तो उन्हें आप यह श्रीमद्भागवत अवश्य सुना दीजियेगा |

विदुर जी ने जैसे ही यह सुना कि भगवान श्री कृष्ण ने अंतिम समय में मेरा स्मरण किया तो वह गदगद हो गए और उद्धव जी से आज्ञा ले गंगा के तट हरिद्वार पहुंच गए |
 वहां मैत्रेय मुनि  को प्रणाम किया और उनसे प्रश्न किया...
सुखाय कर्माणि करोति लोको 
         न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा |
विन्देत भूयस्तत एव दुखं 
         यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ||
मुनिवर संसारी प्राणी सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं परंतु उन्हें सुख नहीं मिलता सुख के स्थान पर और दुख बढ़ जाता है इस विषय में क्या करना चाहिए मैंत्रेय मुनि ने कहा विदुर जी आपने लोकमंगल के लिए बहुत ही उत्तम प्रश्न पूछा है |

विदुर जी इस संसार में प्रत्येक प्राणी दुखी है एकमात्र कोई सुखी है तो वह है भगवान का दास भगवान का भक्त |
(  दुखालयं असाश्वतं  )
विदुर जी ऐ संसार दुख का घर है और सदा रहने वाला नहीं है जब ब्रह्माजी इस जगत् की सृष्टि कर रहे थे उस समय सर्वप्रथम अज्ञान की पांच व्रत्तियां तम,मोह,महामोह,तामिस्र और अन्धतामृष्य ये उत्पन्न हुई जिन्हें अविद्या अस्मिता राग द्वेष और अभिनिवेश भी कहते हैं ब्रह्मा जी ने अपने इस पाप मयी सृष्टि को देखा तो प्रसन्न नहीं हुए।

भगवान का चिंतन किया और इस बार सनक सनंदन सनातन और सनत कुमार यह चार निवृत्त परायण मुनि उत्पन्न हुए ब्रह्माजी ने जब इन्हें सृष्टि करने की आज्ञा दी तो उन्होंने मना कर दिया |

जिससे ब्रह्मा जी को अत्यंत क्रोध आ गया उन्होंने अपने उस क्रोध को रोकने का बहुत प्रयास किया परंतु वह भृकुटि के मध्य से एक नील लोहित बालक के रूप में उत्पन्न हो गया और रो कर कहने लगा पिताजी मेरा नाम बताइए और मुझे काम बताइए ब्रह्मा जी ने कहा तुम उत्पन्न होते ही फूट फूट कर रोने लगे इसलिए प्रजा तुम्हें रूद्र इस नाम से पुकारेगी  इसके अलावा मन्यु मनू महीनष महान शिव रितध्वज उग्ररेता भव काल वामदेव और दीक्षा इन रुद्राणियों को ग्रहण कर सृष्टि करो।

ब्रह्मा जी के इस प्रकार आज्ञा देने पर भगवान रूद्र अपने ही समान उग्र भूत आदि  की सृष्टि करने लगे ब्रह्मा जी ने जब इस प्रकार की सृष्टि को देखा तो कहने लगे.....
( अलं प्रजाभिः सृष्टाभिः )
बस करो बस करो सृष्टि करना बंद करो भगवान रूद्र ने कहा तो क्या करें ब्रह्मा जी ने आज्ञा दी.....
तप आतिष्ठ भद्रं ते सर्वभूतसुखावहम् ||
 समस्त प्राणियों के सुख पहुंचाने के लिए तप करो ब्रह्मा जी द्वारा इस प्रकार आज्ञा देने पर भगवान शंकर कैलाश पर्वत में वटवृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करने लगे इसके पश्चात ब्रह्मा जी ने मरीचि अत्रि अंगिरा पुलस्त्य पुलह क्रतु वशिष्ठ दक्ष और नारद इन 10 मानस पुत्रों को उत्पन्न किया तथा अपनी छाया से कर्दम ऋषि को उत्पन्न किया।

इनसे भी जब जगत की सृष्टि का विस्तार नहीं हुआ तो ब्रह्मा जी भगवान का चिंतन करने लगे उसी समय उनके शरीर के दो भाग हो गए जिससे स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ उनमें जो पुरुष थे वह सार्वभौम सम्राट स्वयंभू मनु हुए और जो स्त्री थी वह महारानी सतरूपा हुई उन्होंने हाथ जोड़कर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और कहा...
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृद वृत्तिदः पिता |
अथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत ||
आप प्राणियों को जन्म तथा आजीविका देने वाले पिता है आज्ञा करिए हम आपकी क्या सेवा करें ब्रह्मा जी ने कहा बेटा मनु तुम अपने ही समान गुणवान संतान उत्पन्न करो तथा धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन करो और भगवान श्रीहरि की आराधना करो मनू जी ने कहा पिता जी मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूंगा परंतु आप प्रजा के रहने के लिए स्थान बताइए इस समय जीवो की निवास भूता पृथ्वी प्रलय के जल में मग्न हैं आप इसके उद्धार का प्रयत्न कीजिए।

स्वयंभू मनु के इस प्रकार कहने पर ब्रह्माजी विचार करने लगे इस पृथ्वी का उद्धार कैसे होगा उसी समय उनकी नासिका से अंगूठे के बराबर एक वराह शिशु निकला जो देखते ही देखते हाथी के बराबर हो गया उसने जल में छलांग लगा दिया और हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी को अपने स्थान पर स्थापित कर दिया |

विदुर जी मैत्रेय मुनि से पूछते हैं मुनिवर यह दैत्यराज हिरण्याक्ष कौन था और वराह भगवान के साथ इसकी मुठभेड़ किस कारण से हुई |मैत्रेय जी कहते हैं .....
दितिर्दाक्षायणी क्षत्तर्मारीचं कश्यपं पतिम् |
अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां ह्रच्छयार्दिता ||

विदुर जी एक बार दक्ष नंदिनी दिति सायंकाल काम से संतप्त हो अपने पति महर्षि कश्यप के पास आई और पुत्र प्राप्ति की इच्छा से प्रार्थना करने लगी महर्षि कश्यप ने कहा देवी दिति मै तुम्हारी इच्छा को अवश्य पूर्ण करूंगा परंतु कुछ देर ठहर जाओ क्योंकि यह समय सायंकाल का घोर समय चल रहा है जिसमें भूत भावन भगवान शंकर अपने गण भूतादिकों के साथ विचरण करते हैं महाराज मनु ने मनुस्मृति में लिखा है.....
चत्वारि खलु कार्याणि सन्ध्या काले विवर्जयेत |
आहारं मैथुनं निद्रां स्वाध्यायञ्च चतुर्थकम्  |
शाम के समय भोजन स्त्री प्रसंग सोना और पढ़ना नहीं चाहिए महर्षि कश्यप के इस प्रकार समझाने पर भी दिति नहीं मानी उनके वस्त्रों को पकड़ लिया महर्षि कश्यप ने दिति के इस दुराग्रह को देखा तो दैव को प्रणाम किया और उनकी इच्छा को पूर्ण कर स्नान आचमन प्राणायाम कर भगवान का ध्यान करने लगे |

 उस समय दिति लज्जित हो महर्षि कश्यप के पास आई और कहने लगी स्वामी आप मेरे अपराध को क्षमा कीजिए और मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मेरा गर्भ नष्ट ना हो महर्षि कश्यप ने कहा दिति तुमने मेरी आज्ञा को ना मानकर भगवान रुद्र की अवहेलना की है इसलिए तुम्हारे गर्भ से दो राक्षस उत्पन्न होंगे वे अपने अत्याचारों से त्रिलोकी को पीड़ित करेंगे लेकिन तुम्हें अपने कर्म पर पश्चाताप हुआ है इसलिए मैं तुम्हें वरदान देता हूं तुम्हारे पुत्र का पुत्र भगवान का परम भक्त होगा जिसके यश का गान देवता ऋषि मुनि सभी करेंगे।

ऐसा कह महर्षि कश्यप चले गए यहां दिति ने अपने उस गर्भ को 100 वर्षों तक धारण किया जब उस गर्भ के तेज से सूर्य आदि ग्रहों और इंद्र आदि लोकपालों का तेज छीण होने लगा तो सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए।

उनके चरणों में प्रणाम किया और कहने लगे हे ब्रम्हदेव हमारा तेज छीण हो रहा है इसका क्या कारण है ब्रह्मा जी ने कहा देवताओं एक बार तुम्हारे पूर्वज और मेरे मानस पुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए वैकुंठ लोक का दर्शन करने पहुंचे वहां जब वे 6 द्वारों  को पार कर सातवें द्वार पर पहुंचे तो वहां पहले से ही खड़े हुए भगवान के पार्षद जय और विजय ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया।

जिससे सनकादि मुनीश्वरों  को क्रोध आ गया उन्होंने कहा द्वारपालों तुम रहते तो बैकुंठ में हो परंतु तुम्हारी दृष्टि में भेद है इसलिए जाओ असुर हो जाओ |

सनकादि मुनियों के इस प्रकार श्राप देने पर जय विजय उनके चरणों में गिर गए और कहा मुनिवर हमें आपका श्राप स्वीकार है परंतु हम पर ऐसी कृपा करो कि आसुरी योनि को प्राप्त कर भी भगवान का स्मरण रहे इसी समय मां लक्ष्मी के साथ भगवान नारायण वहां आ गए|

उन्होंने सनकादि मुनीश्वरों से कहा मुनीश्वरों यह दोनों मेरे पार्षद जय और विजय हैं इन्होंने मेरी परवाह न करके आप का अपराध किया है इसलिए आपने इन्हें जो श्राप दिया है वह मुझे भी अभिमत है..
श्छिन्द्यां स्वबाहुमपि वः प्रतिकूल वृत्तिम् ||
यदि ब्राह्मणों के विरुद्ध मेरी भुजा भी आचरण करें तो मैं उसे भी काट दूंगा इन ब्राह्मणों के कारण ही मुझे वह कीर्ति मिली है जिसका गान करके पतित प्राणी भी मुक्त हो जाता है |

नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने 
                श्च्योतदघृतप्लुतमदन हुतभुङमुखेन |
यदब्राम्हणस्य मुखतश्चरतोनुघासं 
                 तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ||
यजमानों के द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों में दी हुई आहुति से मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना कि घी से युक्त पदार्थों को ब्राह्मणों को खिलाने से प्रसन्न होता हूं इस प्रकार भगवान ने ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन किया और अपने  अनुचरों को सांत्वना दी  की मुनि के श्राप के कारण अगर आपके 3 जन्म होंगे तो तुम्हारे उद्धार के लिए मैं चार जन्म ग्रहण करूंगा |

देवताओं दिति के गर्भ में भगवान के वहीं पार्षद जय और विजय हैं जिसके कारण तुम्हारा तेज छीण हो गया है ब्रह्मा जी के इस प्रकार कहने पर देवताओं की शंका निवृत्त हो गई और वह स्वर्गलोक लौट आए |

यहां 100 वर्षों के पश्चात दिति ने दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया वह देखते ही देखते पर्वत के समान हो गए उनका मुकुट स्वर्ग का स्पर्श करने लगा भुजाओं ने दिशाओं को आच्छादित कर लिया उनके चलने से पृथ्वी में कंपन होने लगा महर्षि कश्यप ने उनका नामकरण किया जो बड़ा था उनका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो छोटा था उनका नाम हिरण्याक्ष रखा।

एक दिन हिरण्याक्ष अपने भाई को प्रसन्न करने के लिए हाथ में गदा ले स्वर्गलोक पहुंच गया देवताओं ने जैसे ही हिरण्याक्ष को देखा डरकर जहां-तहां छिप गए हिरण्याक्ष को जब स्वर्ग में कोई दिखाई नहीं दिया तो वह समुद्र में प्रविष्ट हो वरुण की राजधानी विभावरी पुरी में पहुंच गया वहां वरुण को सिंहासन पर बैठे हुए देखा तो उनका उपहास करते हुए उन्हें प्रणाम किया और कहा  महाराज मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिए।

वरुण देवता ने कहा दैत्तराज अब हम वृद्ध हो गए हैं इसलिए युद्ध नहीं कर सकते तुम भगवान नारायण के पास जाओ वही तुम्हारी इच्छा को पूर्ण करेंगे हिरण्याक्ष जब वहां से बाहर निकला तो देवर्षि नारद दिखाई दिए उनसे कहा क्या  तुम ही नारायण हो देवर्षि नारद ने कहा नहीं मैं उनका दास नारद हूं |

हिरण्याक्ष ने कहा तो क्या लड़ना भिडना जानते हो नारद जी ने कहा नहीं मैं लड़ना भिडना नहीं जानता परंतु लड़ाना भिडाना जरूर जानता हूं तुम रसातल में चले जाओ वही वराह रूप धारी नारायण से तुम्हारी भेट होगी और वे तुम्हारे लड़ने की इच्छा को पूर्ण कर देंगे |

हिरण्याक्ष दौड़ा दौड़ा रसातल में आया और पृथ्वी को ले जाते हुए भगवान को देखा तो कहने लगा अरे वो जंगली पशु तू यहां जल में क्या कर रहा है और इस प्रकार पृथ्वी को चुराकर कहां ले जा रहा है | हिरण्याक्ष अनेकों दुर्वचन कहे परंतु वराह भगवान ने कुछ नहीं कहा क्योंकि......
स्वकार्ये साधयेत धीमान कार्यध्वसों हि मूर्खता ||
बुद्धिमान पुरुष पहले अपने कार्य को सिद्ध करते हैं वराह भगवान ने पृथ्वी को जल के ऊपर स्थापित किया और कहा...
सत्यं वयं भो वनगोचरा मृगा
             युष्मद्विधान्मृगये ग्रामसिंहान् ||
तुम सच कह रहे हो हम जंगली जीव है परंतु तुम जैसे ग्राम सिंह को ढूंढते फिरते हैं वराह भगवान ने जब इस प्रकार कहा तो हिरण्याक्ष को क्रोध आया उसने अपनी गदा को उठाया और वराह  भगवान पर प्रहार किया परंतु वराह भगवान ने  तिरछे होकर गदा के प्रहार से अपने आप को बचा लिया और आपस में दोनों गदा युद्ध करने लगे युद्ध करते-करते शाम हो गई ब्रह्मा जी ने कहा प्रभु रात्रि होने वाली है कहीं यह असुर अपनी आसुरी बेला को प्राप्त ना कर ले |

भगवान और यह और बलवान हो जाए उससे पहले ही आप इसका बध कर दो यहां गदा युद्ध करते-करते हिरण्याक्ष ने ऐसी गदा का प्रहार किया कि वराह भगवान के हाथों से उनकी गदा गिर गई यह देखते ही डर के कारण ब्रह्मा आदि देवता जहां छिप  गए इसी समय वराह भगवान ने हिरण्याक्ष की कनपटी पर ऐसा तमाचा मारा कि वह घूमता हुआ पृथ्वी में गिर गया और उसका गोविंदाय नमो नमः हो गया |

देवता लोग जय-जयकार करने लगे पुष्पों की वर्षा करने लगे और ढोल नगाड़े धुंधभी आदि बजाने लगे ||
 ((  बोलिए वराह भगवान की जय ))

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