Bhagwat Katha Hindi भागवत कथानक तृतीय स्कंध भाग-4

भागवत कथानक तृतीय स्कंध भाग-4  
 पिता कर्दम ऋषि के वन चले जाने के पश्चात भगवान कपिल अपने माता का क्रिय करने की इच्छा से वही बिंदु सरोवर में रहे |एक दिन माता देवहूति कपिल भगवान के पास आयी उनके चरणों में प्रणाम किया और उनसे निवेदन किया --
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात |
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ||
प्रभो इन इंद्रियों के विषय लालसा को पूर्ण करते करते मैं थक गई हूं | और अज्ञान अंधकार में पड़ी हुई हूं इसलिए प्रकृति और पुरुष के विवेक के लिए मैं आपकी शरण में आई हूं |

मैं आपको प्रणाम करती हूं प्रभु इसका उपाय बताएं किस प्रकार मेै इससे मुक्त हो सकती हूं |माता देवहूति के इस प्रकार प्रश्न पूछने पर , कपिल भगवान ने कहा--
योग आध्यात्मिकः पुसां मतो निः श्रेयसाय मे |
अत्यन्तोपरतिर्यत्र   दुःखस्य च  सुखस्य   च  ||
माताजी सुख और दुख की आत्यन्तिक निवृत्ति का एकमात्र साधन है , आध्यात्मिक योग--
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् |
गुणेसु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये   ||
माता जी यह चित ही बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण है | जब यह मन गुणो में विषयों में आसक्त हो जाता है तो बंधन का हेतु होता है | और जब यही मन परमात्मा में अनुरक्त हो जाता है तो मोक्ष का कारण बन जाता है | माता जी इसलिए सदा सर्वदा संत पुरुषों का संतों का महात्माओं का सगं करना चाहिए ----

तितिक्षवः कारूणिका सुह्रदः सर्वदेहिनाम् |
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ||
तितिक्षु ( परम सहनशील ) अहैतुक करुणा कारक समस्त प्राणियों के प्रति सौहार्द रखने वाले शत्रुता से रहित परम शांत साधु पुरुष प्रतिदिन मेरी कथाओं का गान करते हैं जिसका श्रवण करने से संसार की आसक्ति छूट जाती है और मुझ में प्रेम उत्पन्न हो जाता है | मेरी भक्ति की प्राप्ति होती है , माता देवहूति पूछती हैं |
काचित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा |
यया पदं ते निर्वाण मंजसान्वाश्नवा अहम्  ||
प्रभो मुझ जैसी अबला स्त्री के लिए आपकी किस प्रकार की भक्ति उचित है जिसको करने से मै सफलता से निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूं |
   कपिल भगवान कहते हैं - माताजी मेरी निष्काम भक्ति मुक्ति से भी श्रेष्ठ है |
जैसे जठरानल खाए हुए अन्न को पचा देती है , उसी प्रकार निष्काम भक्ति कर्म संस्कारों से प्राप्त होने वाले इस लिंग शरीर को जलाकर भस्म कर देती है | माताजी संसार में सबसे बड़ा साधन यही है कि तीव्र भक्ति योग के द्वारा मन मुझ में लगाकर स्थिर हो जाए , माता देवहूति  प्रश्न पूछतीं हैं |

प्रभु प्रकृति के कितने तत्व हैं और प्रकृति में रहते हुए प्राणी किस प्रकार से उनसे मुक्त हो सकता है , माता देवहूति के इस प्रकार प्रश्न पूछने पर कपिल भगवान कहते हैं |
पंचभिः पंचभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा |
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ||

माताजी- पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश यह पंचमहाभूत | शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध ये पांचतन्मात्राएं |
मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार ये चार अंतःकरण |

और दस इंद्रियां ये चौबिस प्रकृति के तत्व हैं | माताजी जिस प्रकार जल में पड़ने वाले सूर्य के प्रतिबिंब पर जल की शीतलता चंचलता आदि गुणों का संबंध नहीं होता |

उसी प्रकार प्रकृति के कार्य इस शरीर में रहने वाली आत्मा भी प्राकृतिक सुख दुख आदि धर्मों से लिफ्त नहीं होती , परंतु जब यही आत्मा प्राकृतिक गुणों से अपना संबंध स्थापित कर लेती है और मैं कर्ता हूं , मैं भोक्ता हूं  इस प्रकार मानने लगती है तो फिर संसार में उत्तम मध्यम और नीच योनियों में घूमती रहती है |

माता जी जो इससे मुक्त होना चाहता है जो इस संसार बंधन से छूटना चाहता है वह तीव्र भक्ति योग और वैराग्य के द्वारा अपने मन को धीरे-धीरे वश में करने का उपाय करें और श्रद्धा पूर्वक अष्टांग योग का श्रेय ले , यमादि साधनों का अभ्यास करें |

माता जी योग के आठ अंग हैं-  यम् , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि | सर्वप्रथम साधक यमों का पालन करें- यम् पांच हैं -अहिंसा , सत्य , अस्तेय ( चोरी ना करना ) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( संग्रह ना करना ) |

इसके पश्चात नियमों का पालन करें | नियम भी पांच है - शौच ( पवित्रता ) , संतोष , तपस्या , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान | 

इन यम नियमों का पालन कर किसी पवित्र स्थान में उत्तम आसन बिछाकर स्थिर बैठने का अभ्यास करें | प्राणायाम के द्वारा प्राणों का शोधन करें अपने मन को सब जगह से हटा ईश्वर की धारणा कर भगवान का ध्यान करें ----
सञ्चिन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दं
         वज्राङ्कुशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम् |
उत्तुंगरक्तविलसन्नखचक्रवाल 
         ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम् ||
सर्वप्रथम भगवान के चरण कमलों का ध्यान करें भगवान के चरण वज्र , अंकुश , ध्वजा और कमल के चिन्ह से युक्त हैं | उनके चरण कमलों में जो लाल लाल नखचंद्रिका है वह साधकों के द्वारा ध्यान करने से ह्रदयान्धकार को नष्ट कर देती है |

इस प्रकार एक एक अंग का ध्यान करने से भगवान में प्रेम हो जाता है अंत में साधक समाधिस्थ हो ब्रह्म भाव में स्थित हो जाता है | देवहूति प्रश्न करती हैं-  प्रभु भक्त किसे कहते हैं , भक्तों का क्या लक्षण है | भगवान कपिल कहते हैं - माताजी भक्त तीन प्रकार के होते हैं - सात्विक , राजस और तामस
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा |
संरम्भी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामस ः ||
जो पुरुष हिंसा दंभ और मात्सर्य भाव रख कर मेरी भक्ति करता है , वह तामस भक्त हैं |
जो यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए भजन करता है वह राजस भक्त हैं |

और जो पापों के नाश के लिए तथा पूजन भजन करना कर्तव्य है इस दृष्टि से मेरा भजन करते हैं वह सात्विक भक्त हैं | माताजी इसके अलावा मेरा एक और भक्त है वह निर्गुण भक्त है-------
सालोक्य सार्ष्टि सामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत |
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ||
मुझे छोड़कर सालोक्य , सार्ष्टि , सामीप्य , सारूप्य और सायूज्य इन पांच प्रकार के मोक्ष को भी नहीं चाहता , वह भक्त निर्गुण भक्त है | माता देवहूति पूछती हैं- प्रभु जो जीव देह और गेह ( घर ) में आसक्त हैं उनकी क्या गति होती है |कपिल भगवान कहते हैं ------
गृहेषु कूट धर्मेषु दुःख तन्त्रेष्वतन्द्रितः |
कुर्वन्दुःख प्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ||
माताजी देह और गेह में आसक्त पुरुष जब कभी भी जिस किसी प्रकार का दुख का प्रतिकार करने  मे सफल हो जाता है , तो उसे ही सुख मान बैठता है |

वह अनेकों प्रकार की हिंसा आदि क्रूर कर्मों से धन एकत्रित कर अपने परिवार का पालन पोषण करता है , और जब वह परिवार का पालन पोषण करने में असमर्थ हो जाता है तो परिवारी जन उसका आदर नहीं करते |

जब बुढ़ापा आ जाता है शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं अनेकों प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है जठराग्नि मन्द हो जाती है , शरीर काम नहीं करता , कफ के कारण नाडिया रुक जाती हैं |

कंठ घुरघुराने लगता है मृत्यु का समय निकट आने पर परिवारी जन घेर कर खड़े हो जाते हैं , उनके बोलने पर भी यह कुछ नहीं बोलता | इस समय यम के दो भयंकर दूत प्रकट हो जाते हैं |जिन्हें देखकर भय के कारण इसका मल मूत्र छूट जाता है | और प्राणांत हो जाता है , उस समय-----

पेट पकड़कर माता रोवे बांह पकड़कर भाई ,
लपट झपट कर तिरिया रोवे हंस अकेला जायी |
जब लगि जीवे माता रोवे बहन रोवे छः मास ,
तेरह दिन तक तिरिया रोवे फिर करे घर वास || 
चार गजी चरगजी मंगाया चढ़ा काठ की घोड़ी,
चारों कोन आग लगा दियो फूंक दियो जस होरी|
जिस शरीर को इतना सजाया धजाया अनेकों क्रीम इत्यादि का प्रयोग किया उस शरीर की क्या गति होती है --
हांड जरे जस लाकडी केस जले जस घास |
सोने जैसी काया जल गई कोउ ना आयो पास ||
कहत कबीर सुनो भाई साधो छोड़ो जग की आस,,
यमदूत उसे यातना देह मे डालकर नरक में ले जाते हैं | वहां अनेकों प्रकार की यातनाओं को भोग यह पृथ्वी में सूकर , कूकर आदि योनियों के कष्टों को भोग अंत में मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है | उस समय यह माता के गर्भ में पांच रात्रि में बुलबुले का आकार का हो जाता है |

दस दिन में बेर के समान , बीस दिन में अंडे के बराबर ,एक महीने में इसका शिर निकल आता है , दो महीने में हाथ पैर उत्पन्न हो जाते हैं , तीसरे महीने में नख ,रोम , हड्डियां , चमड़ी और स्त्री पुरुष के चिंन्ह उत्पन्न हो जाते हैं , चौथे महीने में सात धातुयें उत्पन्न हो जाती हैं , और पांचवे महीने में इसे भूख प्यास लगने लगती है , छठे महीने में जेर से बधां हुआ यह माता के दक्षिण कोख में घूमने लगता है |

उस समय माता के खाए हुए अन्न से  इसकी धातुयें बढ़ने लगती हैं | यह मल-मूत्र के गढ्ढे में पड़ा रहता है | माता जो भी कड़वा , तीखा , गरम खाती है इससे उसके शरीर में वेदना होती है | उस समय यह व्यथित हो हाथ जोड़कर भगवान की सिर्फ स्तुति करता है --------
सोहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं 
        गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे |
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया 
        मिथ्यामतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतद ||
प्रभो यद्यपि इस गर्भ में अनेकों प्रकार के दुख हैं तथापि मैं यहां से बाहर निकलना नहीं चाहता क्योंकि बाहर निकलते ही आपकी माया घेर लेती है , जिसके कारण बारंबार संसार चक्र में पडना पड़ता है |  परंतु प्रभु इस बार मेै जन्म लेकर आप का भजन कर ऐसा प्रयास करूंगा कि मुझे पुनः इस गर्भ मे ना आना पड़े |

वह इस प्रकार स्तुति करता है उसी समय प्रसूति वायु उसे बाहर ढकेलती है और उसका जन्म हो जाता है | जन्म लेते ही गर्भ का ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह रोने लगता है |
भूमि परत भा डावर पानी |
जिमि जीवहिं माया लिपटानी ||
जैसे पृथ्वी में गिरते ही बरसाती पानी गंदला हो जाता है , ऐसे ही जन्म लेते ही जीव के अनेकों संबंध स्थापित हो जाते हैं |

यह बाल्य ,कुमार अवस्था के दुख को भोग युवा अवस्था को प्राप्त होता है उस समय इसकी अनेकों कामनाएं होती है जब वे कामनाएं पूर्ण नहीं होती तो इसे क्रोध आता है और यह स्त्रियों के हाथों का खिलौना बन जाता है | माताजी स्त्री रूपणी माया का बल तो देखो जो बड़े-बड़े दिग्विजय वीरों को अपनी भृकुटी विलास मात्र से पैरों से कुचल देती हैं |
सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु 
          योगस्य पारं परमारुरुक्षुः |
मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो
           वदन्ति या नुरयद्वारमस्य ||
माताजी जो योग के परम पद को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें कभी भी स्त्रियों का संग नहीं करना चाहिए |
कपिल भगवान ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया माता देवहूति के अज्ञान का पर्दा समाप्त हो गया , उन्होंने कपिल भगवान को प्रणाम किया और ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो गई |

उनका शरीर सिद्धिदा नदी के रूप में परिणित हो गया जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि मिली वह सिद्धि प्रद नाम से विख्यात हुआ | अपनी माता के मुक्ति को देखकर कपिल भगवान पूर्व-उत्तर के कोण ईशान में गंगा सागर चले गए |
बोलिए कपिल भगवान की जय
( तृतीय स्कंध सम्पूर्णम् )

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