भागवत कथा हिंदी में/पंचम स्कंध, भाग- 1/bhagwat mhapuran in hindi PDF

 भागवत कथानक पंचम स्कंध, भाग- 1
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
पञ्चम स्कंध को स्थान कहते हैं | स्थिति: वैकुण्ठ विजयः || प्रतिक्षण नाश की ओर बढ़ते हुए इस संसार को एक स्थिति में रखने से जो भगवान की श्रेष्ठता सिद्ध होती है , उसे स्थान कहते हैं | राजा परीक्षित श्री सुखदेव जी से प्रश्न पूछते हैं ---
प्रियव्रतो भागवत आत्मारामः कथं मुने |
गृहेरमत   यन्मूलः   कर्मबन्ध:  पराभवः ||
( 5/1/1 )
गुरुदेव   महाराज प्रियव्रत भगवान के परम भक्त और आत्माराम थे | फिर उन्होंने किस कारण से कर्म बंधन में डालने वाले गृहस्थ आश्रम को स्वीकार किया और संतान आदि को प्राप्त कर ग्रहस्थ में रहते रहे |उन्होंने किस प्रकार आत्म ज्ञान को प्राप्त किया यह सब बताने की कृपा कीजिए | श्री शुकदेव जी कहते हैं-----

बाढमुक्तं भगवत उत्तमश्लोकस्य श्रीमच्चरणारविन्दमकरन्दरस आवेशितचेतसो भागवतपरमहंसदयितकथां किञ्चिदन्तरायविहतां स्वां शिवतमां पदवीं न प्रायेण हिन्वन्ति ||
( 5/1/5 )
परीक्षित तुम्हारा कथन सत्य है | गृहस्थ आश्रम बंधन में डालने वाला है परंतु जिसका चित्त एक बार भगवान के चरणों में लग जाता है | जिन्होंने उनके चरण कमल मकरंद रस का एक बार भी पान कर लिया | वे थोड़ी बहुत शारीरिक विघ्न बाधा उत्पन्न होने पर भी भगवान के कल्याणमय मार्ग को नहीं छोड़ते |

देवर्षि नारद के उपदेश से महाराज प्रियव्रत जब संन्यास की दीक्षा ली तो | स्वायंभुवमनु ने अपने पिता ब्रह्मा जी से कहा-- ब्रह्मा जी आए और प्रियव्रत को समझाते हुए कहा-------
भयं प्रमत्तस्य वनेष्वपि स्याद् 
    यतः स आस्ते सहषट्सपत्नः |
जितेन्द्रियस्यात्मरतेर्बुधस्य
   गृहाश्रमः किं नु करोत्यवद्यम् ||
( 5/1/17 )
ब्रह्मा जी ने कहा-----   बेटा प्रियव्रत जो असावधान हैं | जिनकी इंद्रिय अपने वश में नहीं रहती है | वे यदि वन में भी रहते हैं तो उनका पतन हो जाता है और उन्हें पतन का सदा डर रहता है | परंतु जिन्होंने अपने इंद्रियों को अपने वश में कर लिया है ऐसे आत्म ज्ञानी पुरुष का गृहस्थ आश्रम क्या बिगाड़ सकता है |

प्रियव्रत तुमने तो पहले से ही भगवान श्रीहरि के चरण रूपी किले का आश्रय ले रखा है | जिससे तुम्हारे इंद्रिय रूपी शत्रु तुम्हारे वश में है | इसलिए तुम संसार में रहते हुए भी भगवान के दिए हुए भोगों को भोगो और फिर जब इच्छा हो जाए तब आत्म स्वरूप में स्थित हो जाना |

जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार समझाया तो प्रियव्रत ने उनकी बात मान ली और देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हष्मती से विवाह कर लिया | जिससे आग्नींध्र , इह्मजिह्व , यज्ञबाहु , महावीर , हिरण्यरेता , धृतप्रष्ठ , सवन , मेधातिथिर , वीती , होतृ और कवि नामक दस पुत्र तथा ऊर्जस्वती नामक एक कन्या हुई | दस पुत्रों में से तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो गए |

ऊर्जस्वती का विवाह दैत्य गुरु शुक्राचार्य से हुआ जिससे देवयानी का जन्म हुआ | महाराज प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से - उत्तम , तामस और श्वेत नामक तीन पुत्र हुए जो अपने ही नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए |

एक बार महाराज प्रियव्रत ने देखा कि सूर्यनारायण पृथ्वी के आधे भाग को ही प्रकाशित कर पाते हैं आधे भाग में अंधेरा रहता है | उस अंधकार के कारण प्रजा अपना कार्य नहीं कर पाती तब महाराज प्रियव्रत अपने ज्योतिर्मय रथ में बैठकर सूर्य की गति से पृथ्वी की सात परिक्रमा कर डाली , सूर्य की गति को रोक दी |

जब उन्होंने देखा कि प्रजा दिन रात काम करने से बीमार हो रही है | तब उन्होंने अपने इस दुराग्रह का त्याग कर दिया | इनके रथ के पहियों से सात समुद्र बन गये -1. खारे जल का समुद्र ,2. गन्ने के रस का समुद्र 3. मदिरा का समुद्र 4.घी का समुद्र  5. दूध का समुद्र 6. मट्ठा का समुद्र  7. शुद्ध जल का समुद्र निर्माण हुआ |

तथा--- जंबू द्वीप , लक्ष्यद्वीप , शालमली , कुश , क्रौच , शाक , पुष्करद्वीप  इन सात दीपों का निर्माण करने वाले हुए | महाराज प्रियव्रत ने अपने एक-एक पुत्रों को एक-एक स्थान ( द्वीप ) दिए और वन में चले आये वहां देवर्षि नारद के उपदेश से उन्होंने आत्म तत्व को प्राप्त कर लिया |

इनके जेष्ठ पुत्र आग्नींन्ध्र का विवाह पूर्वचिती नामक अप्सरा से हुआ | जिससे नाभि आदि नव पुत्र हुए जिनका विवाह मेरु की पुत्री मेरूदेवी से हुआ |
     ( नाभी चरित्र )
एक बार महाराज नाभी संतान की कामना से यज्ञ कर रहे थे , उनके यज्ञ से संतुष्ट ( प्रसन्न ) होकर भगवान प्रकट हो गये | उन्होंने वर मांगने के लिए कहा तो ऋत्युजों ने कहा प्रभु हमारे यजमान आपसे आपके ही समान पुत्र चाहते हैं | भगवान श्री हरि ने कहा--
आपु सरिस कहां खोजंउ जाई |
नृप तव तन्मय होव मैं आई  ||
ऋत्युजों इस जगत में मेरे समान में ही हूं कोई दूसरा है ही नहीं | इसलिए मैं स्वयं इनके पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण करूंगा | ऐसा कह कर भगवान हरि अंतर्ध्यान हो गए | समय आने पर महाराज नाभी के तेज से और मेरूदेवी के गर्भ से ऋषभदेव भगवान का जन्म हुआ |

बोलिए ऋषभदेव भगवान की जय 
जब ऋषभदेव बड़े हुये उनकी ख्याति कीर्ति सर्वत्र फैलने लगी तो ईर्ष्या के कारण इंद्र ने उनके अजनाभ खंड में जल नहीं बरसाया | तब ऋषभदेव भगवान अपनी योग माया के प्रभाव से खूब बारिश कराई जिसे देखकर इंद्र समझ गया यह कोई सामान्य पुरुष नहीं है |

इंद्र ने ऋषभदेव भगवान से क्षमा मांगी और अपनी पुत्री जयंती का विवाह ऋषभदेव भगवान से कर दिया |  जयंती से सौ पुत्र हुए जिनमें से सबसे बड़े भरत थे इन्ही भरत के कारण इस देश का नाम ( भारतवर्ष ) हुआ | इनसे छोटे भाई-- कुशावर्त , इलावर्त , ब्रह्मावर्त , मलयव, केतु , भद्रसेन , इंद्र स्प्रिक , विदर्भ और कीकट यह अपने नाम वाले स्थानों के अधिपति हुए | 

इनसे छोटे-- कवि , हरि , अंतरिक्ष , प्रबुद्ध , पिप्पलायन , आविर्होत्र , द्रुमिल , चमस और करभाजन ये नौ भगवान के परम भक्त होने के कारण नव योगेश्वर भी कहलाए | इनसे छोटे 81 पुत्र, पिता की आज्ञा का पालन करने वाले महान श्रोत्रिय हुए ब्राह्मणों के समान इनका आदर सत्कार होता था |एक बार अपनी संतानों को उपदेश देते हुए ऋषभदेव भगवान कहते हैं----

पुत्रों यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर दुख से प्राप्त होने वाले तुच्छ विषय भोगों के लिए नहीं मिला है | क्योंकि विषय भोग तो कूकर , सूकर आदि अन्य योनियों में भी प्राप्त हो जाते हैं | इसलिए इस शरीर के रहते इस शरीर से दिव्य तप करना चाहिए | तप करने से अंतःकरण पवित्र हो जाता है और अंतःकरण के पवित्र हो जाने पर ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है |
महत्सेवां    द्वारमाहुर्विमुक्ते-
   स्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम् |
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता
   विमन्यवः सुहृदः  साधवो  ये ||
( 5/5/2 )
जब तक यह शरीर है तब तक महान पुरुष महात्माओं का संग करना चाहिए | महात्माओं के संग से मुक्ति की प्राप्ति होती है और विषयी लोगों के संग से नर्क की प्राप्ति होती है |महान पुरुष वे ही हैं , जिनका चित्त समता से युक्त है जो परम शांत हैं , क्रोधादि से रहित हैं और सब के परम हितैषी हैं | 

ऐसे महात्माओं के संग से मुझ वासुदेव में प्रेम उत्पन्न हो जाता है | पुत्रों जब तक मुझमें प्रेम नहीं होता तब तक देह बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता | वह गुरु- गुरु नहीं , पिता पिता नहीं , माता माता नहीं , देवता देवता नहीं , पति पति नहीं जो जन्म मरण से छुटकारा दिलाकर मुक्ति ना करा दे |

पुत्रों संसार में समस्त भूतों की अपेक्षा वृक्ष श्रेष्ठ हैं और वृक्षों के अपेक्षा चलने वाले कीट आदि श्रेष्ठ हैं कीटादिकों की अपेक्षा पशु श्रेष्ठ हैं , पशुओं की अपेक्षा मनुष्य श्रेष्ठ हैं , मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ ब्राम्हण हैं |
न ब्राह्मणैस्तुलये भूतमन्यत्
       पश्यामि विप्रा: किमतः परं तु |
यस्मिन्नृभिः प्रहुतं श्रद्धयाहमश्नामि
     कामं     न      तथाग्निहोत्रे ||
( 5/5,23 )
इस जगत में मैं ब्राह्मणों से अधिक किसी को भी श्रेष्ठ नहीं मानता | अग्नि में दी हुई आहुति से मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना श्रद्धा पूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराने से होता हूं |

इस प्रकार उपदेश दे भगवान ऋषभदेव--  भरत जी को राज्य सौंप परमहंसो को धर्म की शिक्षा देने के लिए वन में निकल गए |  वहां जड़ , गूंगे , बहरे के समान रहते | लेटे-लेटे ( पड़े पड़े ) कोई खिला देता तो खा लेते और पडे पडे ही मल मूत्र का त्याग कर देते |

परंतु उनके मल से दुर्गंध नहीं सुगंधि आती उनके मलका स्पर्श करके जब वायु बहती तो वह दस योजन के क्षेत्र को सुवासित कर देती | उनकी इस वृत्ति को देख आठों सिद्धियां उनकी सेवा में उपस्थित हो गई | परंतु ऋषभदेव जी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया ठुकरा दिया |

परीक्षित पूछते हैं---  गुरुदेव , भगवान ऋषभदेव सिद्धियों को क्यों स्वीकार नहीं किया अपने लिए ना सही समाज के कल्याण के लिए स्वीकार कर लेते तो फिर उन्होंने सिद्धियों को क्यों ठुकरा दिया | श्री शुकदेव जी कहते हैं----
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते |
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ||
( 5/6/3 )
परीक्षित तुम्हारा कहना सत्य है परंतु चालाक बहेलिया भी अपने पकड़े हुए मृग पर विश्वास नहीं करता ऐसे ही कभी भी अपने चंचल चित्त पर विश्वास नहीं करना चाहिए | इसी चित्त पर विश्वास करने के कारण मोहिनी के रूप में फंसकर भगवान शंकर का चिरकाल का तप खंडित हो गया था |

ऋषभदेव भगवान को जो भी लोग कुछ खिला देते उनका काम बन जाता धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलने लगी लोगों की भीड़ जमा होने लगी यह देख ऋषभदेव भगवान ने अपने मुख पर पत्थर रख लिया |

उस स्थान का त्याग कर दक्षिण कर्नाटक की ओर चले गए वहां एक वन में आग लगी हुई थी उन्हें अपने शरीर से कोई आसक्ती नहीं थी | उन्होंने उस अग्नि में जलाकर अपने शरीर को भस्म कर दिया |
 बोलिए ऋषभदेव भगवान की जय

( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

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