भागवत कथानक चतुर्थ स्कंध, भाग- 2

( सती चरित्र ) वीरभद्र द्वारा यज्ञ विध्वंस
वीरभद्र के चलने से पृथ्वी में कंपन होने लगा आंधी चलने लगी ऋत्युजों ने उत्तर की ओर से उड़ती हुई धूल को देखा तो कहने लगे इस समय गोधूलि वेला नहीं है |आंधी चल नहीं रही लुटेरे हो नहीं सकते क्योंकि राजा प्राचीनबर्हि का राज्य है | फिर यह धूल कहां से आ रही है इस प्रकार सोच हि रहे थे कि शिव गणों ने यज्ञशाला को घेर लिया मध्यान्ह का समय था , शिव गणों ने अनेकों देवताओं को अंग भंग कर दिया मणिमान ने भृगु को पकड़ लिया , वीरभद्र ने दक्ष प्रजापति को पकड़ लिया , चन्दीस ने ऋत्यजों को पकड़ लिया
सबसे पहले आचार्य जी को दक्षिणा दी गई ,,
भृगु जी जब दक्ष प्रजापति भगवान शंकर को श्राप दे रहे थे उस समय वे अपने मूछों में ताव दे रहे थे , बारंबार दाढ़ी में हाथ फेर रहे थे वीरभद्र ने एक झटके में ही उनकी दाढ़ी मूछ उखाड़ ली |भग देवता दक्ष प्रजापति को आंखों के इशारे से उकसा रहे थे इसलिए उनके नेत्र फोड़ दिए गए , पूषा देवता बारंबार दांत दिखा कर हंस रहे थे वीरभद्र ने एक ही मुष्टिक में पूषा देवता के बत्तीसों दांत उखाड़ दिए |
दक्ष प्रजापति पर तलवार से प्रहार किया परंतु यज्ञ में अभिमंत्रित होने के कारण उनकी गर्दन नहीं कटी तब वीरभद्र ने भगवान शंकर का स्मरण किया और उसकी गर्दन को मोड़कर तोड़ दिया और यज्ञ में स्वाहा कर दिया | संपूर्ण यज्ञशाला को आग लगा दी और शिवगण कैलाश में लौट आए |
यहां सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए सारा वृत्तांत ब्रह्मा जी से कह सुनाया ब्रह्मा जी ने कहा देवताओं जहां भगवान नारायण , भगवान शंकर और स्वयं मै नहीं गया था , वहां तुम सब क्यों गए थे देवताओं ने कहा प्रभु आज के बाद अब कभी नहीं जाएंगे इस बार रक्षा कीजिए |
ब्रह्माजी देवताओं को साथ लेकर कैलाश आए भगवान शंकर वहां वटवृक्ष के नीचे भस्म चंदन धारण किए हुए कुशासन पर बैठे हुए थे ब्रह्मा जी ने प्रार्थना की प्रभो यह यज्ञ अधूरा रह गया है इसे पूर्ण करिये यज्ञ के यजमान दक्ष प्रजापति को जीवित कर दीजिए , भग देवता की आंखें लौटा दीजिए , भृगु जी को उनकी दाढ़ी और मूंछ तथा पूषा देवता को उनके दांत प्रदान कीजिए |
संपूर्ण देवता जो छिन्न-भिन्न हो गए हैं वह सब पहले के समान हो जाए और यज्ञ के अवशिष्ट पदार्थ पर आपका भाग होगा | ब्रह्मा जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने अपने गणों को आज्ञा दी दक्षप्रजापति के सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा दो , शिवगणों ने भगवान का आदेश पाते ही दक्षप्रजापति के सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा दिया।
भगवान शंकर ने कहा भग देवता मित्र देवता की आंखों से देखें , पूषा देवता अब बृद्ध हो गए हैं इसलिए अब यह पिसा हुआ खाएं और भृगु जी को इस बकरे के ही दाढ़ी मूछ लगा दी जाए |भगवान शंकर ने जैसा जैसा कहा शिव गणों ने वह सब कर दिया दक्ष प्रजापति बकरे के सम्मान मैं - मैं करता हुआ स्तुति करने लगा |
अहं ब्रम्हा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् |
दक्षप्रजापति मैं ब्रह्मा और शंकर जगत के परम कारण हैं ------
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् |
सर्वभूतात्मनां ब्रम्हन् स शान्तिमधिगच्छति ||
हम तीनों में जो समान भाव रखता है , वह शांति को प्राप्त कर लेता है ,,
हरिहर निंदा सुनहिं जे काना |
हौइ पाप गो घात समाना ||
ऐसा कह भगवान नारायण अंतर्ध्यान हो गए |दक्ष नंदिनी सती कालांतर में हिमालय की पत्नी मैना के गर्भ से उत्पन्न हुई और भगवान शंकर की तपस्या कर उन्हें वर रूप में पुनः प्राप्त कर लिया और सदा सदा के लिए उनकी अर्धांगिनी हो गई |
बोलिए शाम्ब सदाशिवाय भगवान की जय
( ध्रुव चरित्र )
श्री मैत्रेय मुनि कहते हैं - विदुर जी स्वयंभू मनु और शतरूपा के प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र थे |उत्तानः उत्कृष्ट युक्तः पादः सन्ततिः ध्रुवो यस्य सः उत्तान पादः ||
ध्रुव जैसा भगवान का भक्त जिसका पुत्र है , उसे उत्तानपाद कहते हैं अथवा---
उत्तानौ पादौ गर्भे यस्य सः उत्तानपादः ||
माता के गर्भ में जिसके ऊपर की ओर पैर होते हैं , ऐसे जीव आत्मा को उत्तानपाद कहते हैं | महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थी सुनीति और सुरुचि ,वेद शास्त्रों के अनुसार जिस का व्यवहार है जिसका आ चरण है और कर्म है उसे सुनीति कहते हैं |
मन के अनुरूप जिसका कर्म है जिसकी रुचि है मन जैसा कहें वैसा काम करें उसे सुरुचि कहते हैं | महाराज उत्तानपाद जितना प्रेम अपनी छोटी रानी सुरुचि से करते थे उतना प्रेम सुनीति से नहीं करते थे , सुनीति का पुत्र ध्रुव हुआ जब आपकी आचरण वेद शास्त्रों के अनुरूप होंगे तो आपकी संतान ध्रुव के समान भगवत भक्त होगी |
सुरुचि का पुत्र उत्तम हुआ जब आप मनोनुरूप मन को अच्छे लगने वाले कर्म करेंगे तो उसका फल देखने में उत्तम तो होगा लेकिन बिनाशी होगा |
एक दिन महाराज उत्तानपाद सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में लेकर प्यार कर रहे थे खेलते हुए ध्रुव ने जब यह देखा तो उसने भी पिता के गोद में बैठना चाहा परंतु सुरुचि ने उसे रोक दिया और कहा ध्रुव यद्यपि तुम भी राजा के बेटे हो लेकिन इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी नहीं हो |
यदि तुम इस सिंहासन पर बैठना चाहते हो तो भगवान शंकर की आराधना करो और मेरे गर्भ से जन्म लो ध्रुव ने जब यह सुना माता सुरुचि के वचन रूपी बांण घर कर गए रोते हुए अपनी माता के पास आए माता सुनीति ने ध्रुव को रोते हुए देखा गोद में उठा लिया उसे पूछा बेटा क्यों रो रहे हो तुम्हारे दुख का क्या कारण है उस समय साथी बालकों ने सुरुचि ने जो व्यवहार किया था उसे बताया |
सुनीति ने जब यह सुना दुख तो बहुत हुआ परंतु उन्होंने अपने आप को संभालते हुए कहा बेटा --
मा मंगलं तात परेषु मंस्था
भुङ्क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ||
कभी भी किसी के अमंगल की कामना नहीं करना चाहिए क्योंकि जो दूसरों को दुख देता है उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है , सौतेली माता होने पर भी सुरुचि ने जो कहा वह एकदम सत्य है यदि तुझे राज्य सिंहासन की अभिलाषा है तो तू भगवान की आराधना कर |
माता सुनीति ने जब इस प्रकार उपदेश दिया तो ध्रुव उनके चरणों में प्रणाम किया और वन की ओर निकल पड़े मार्ग में देवर्षि नारद मिले उन्होंने पूछा बेटा इस प्रकार निर्जन वन में अकेले कहां जा रहे हो तुम ध्रुव ने कहा मेरी सौतेली मां ने मेरा अपमान किया है इसलिए मैं राज सिंहासन की इच्छा से भगवान की आराधना के लिए जा रहा हूं |
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जिसके कारण आपका उपदेश मेरे हृदय में नहीं ठहर रहा यदि आप मेरा मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं तो उपदेश दीजिए अन्यथा मुझे आप की कोई आवश्यकता नहीं |देवर्षि नारद ने ध्रुव के इस दृढ़ संकल्प को देखा तो कहने लगे --
अहो तेजः क्षत्रियाणां मानभंगममृष्यताम् |
बालोप्ययं हृदा धत्ते यत्समातुरसद्वचः ||
अहो इस क्षत्रिय कुमार के तेज को तो देखो जो थोड़ा भी मान भंग नहीं सह सका धन्य है ये बालक जिसका इस प्रकार दृढ़ संकल्प है | देवर्षि नारद ने ध्रुव को उपदेश दिया--
तत्तात गच्छ भद्रं ते यमुनायास्तटं शुचि |
पुण्यं मधुवनं यत्र सानिध्यं नित्यदा हरेः ||
बेटा तुम पवित्र यमुना के तट में मधुबन चले जाओ जहां भगवान श्री हरि नित्य निवास करते हैं वहां जमुना के निर्मल जल में स्नान करना आसन लगाकर प्राणायाम करना भगवान की मानसी पूजा करना ध्यान करना और - ( ओम नमो भगवते वासुदेवाय ) - इस द्वादशाक्षर मंत्र का जप करना , इस उपदेश को प्राप्त कर ध्रुव ने देवर्षि नारद के चरणों में प्रणाम किया उनकी परिक्रमा की और मधुबन की यात्रा की |वहां कालीन्दी में स्नान किया आसन लगाया आचमन किया और देवर्षि नारद ने जैसा उपदेश दिया था उसी के अनुरूप प्राणायाम कर भगवान का ध्यान कर द्वादशाक्षर मंत्र का जप करने लगे , पहले महीने में तीन-तीन दिनों के अंतराल में एक बार कैथ और बैर खा लेते , दूसरे महीने में कैथ - बैर खाना छोड़ दिया , छ: - छ: दिनों के अंतराल में सूखे पत्ते खाकर भगवान की आराधना करते।
तीसरे महीने में खाना छोड़ दिए अब नव -नव दिनों के अंतराल में जल पी लेते , चौथे महीने में जल भी छोड़ दिया ऐसा प्राणायाम सिद्ध हो गया कि बारह - बारह दिनों के अंतराल में एक बार स्वांस ले लेते , पांचवे महीने में सांस लेना छोड़ दिया एक पैर से खड़े हो गए और भगवान की आराधना करने लगे , छठे महीने में सारे जगत को अपने से अभिन्न देख भगवान की धारणा की और श्वास को अवरुद्ध कर लिया।
उनके स्वास को रोकने से सारे जगत का श्वास रुक गया | सारे जीव तड़पने लगे देवता दौड़े-दौड़े भगवान नारायण के पास आए कहां प्रभो रक्षा करो - रक्षा करो हम मरे जा रहे हैं ना जाने किस कारण से हमारा स्वास रुक गया है |
भगवान नारायण ने कहा देवताओं भयभीत मत हो यह मेरे भक्त ध्रुव की तपस्या का प्रभाव है मैं अभी उसकी तपस्या को पूर्ण कर आता हूं |
ऐसा कह भगवान श्रीहरि गरुड पर सवार होकर मधुबन अपने परम भक्त ध्रुव का दर्शन करने के लिए आए , सामने भगवान खड़े हैं लेकिन ध्रुव आंख बंद करके ध्यान में मग्न है , भगवान नारायण ने ध्रुव के अंदर से वह भगवान की छवि को हटा दिया जिसे देख कर ध्रुव ध्यान में मग्न थे।
जैसे ही ध्रुव के अंदर से वह परमात्मा की छवि ओझल हुई ध्रुव छटपटा कर उठे और जैसे ही नेत्र खोले अपने सामने भगवान नारायण को देखा चरणों में दंडवत प्रणाम किया हाथ जोड़कर खड़े हो गए कुछ कहना चाहते थे परंतु कह नहीं पा रहे थे भगवान ध्रुव के भाव को समझ गए-- पस्पर्श बालं कृपया कपोले ||
अपना ज्ञानमय शंख ध्रुव के कपोल में स्पर्श कराया जिससे ध्रुव में समस्त विद्यायें प्रगट हो गई हाथ जोड़कर उन्होंने स्तुति की |
योन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां
संजावयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना |
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन
प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम् ||
प्रभु आपने ही मेरे अंतःकरण में प्रवेश कर मेरे सोई हुई वाणी को सजीव किया है तथा आप ही हाथ पैर कान और त्वचा आदि इंद्रियों को चेतना प्रदान करते हैं मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं |
भगवान ने कहा बेटा ध्रुव मैं तुम्हारे हृदय के संकल्प को जानता हूं तुम जिस पद को प्राप्त करना चाहते हो उसे आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया मैं तुम्हें वह ध्रुपद प्रदान करता हूं जो त्रिलोकी से ऊपर है और जिसकी सप्त ऋषिगण परिक्रमा करते हैं |
उससे पूर्व तुम 36000 वर्षों तक धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन करो और अंत समय में तुम मेरा स्मरण कर मुझे प्राप्त कर लोगे , ऐसा कह भगवान नारायण अंतर्ध्यान हो गए |
ध्रुव अपने नगर में लौट आए महाराज उत्तानपाद ने जैसे ही यह सुना भक्त ध्रुव आ रहे हैं उनकी अगवानी के लिए नगर से बाहर निकल आए और जैसी ध्रुव को देखा रथ से कूद पड़े ध्रुव को गोद में उठा लिया , ध्रुव ने अपने माता पिता के चरणों में प्रणाम किया नगर में बड़ा भारी स्वागत सत्कार हुआ महाराज उत्तानपाद ध्रुव का राज्याभिषेक किया और वन को चले गए |
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