Sampurna Bhagwat Katha in hindi चतुर्थ स्कंध भाग-3

भागवत कथानक चतुर्थ स्कंध , भाग-3 
"  ध्रुव चरित्र  "
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
महाराज उत्तानपाद ने ध्रुव का राज्याभिषेक किया और वन को चले गए , ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भृमि से विवाह किया जिससे कल्प और वत्सर नामक दो पुत्र हुए | उनकी दूसरी पत्नी वायु पुत्री इला से उत्कल का जन्म हुआ , भाई उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था |

एक बार शिकार खेलने वन में गए वहां उन्हें एक बलवान यक्ष ने उनका वध कर दिया माता सुरुचि जब उत्तम को ढूंढने निकली एक वन में आग लग गई थी जिससे उसी में जलकर अपने प्राण त्याग दिए |
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ||
ध्रुव ने अपने भाई उत्तम की मृत्यु का समाचार सुना तो बड़ी भारी सेना लेकर यक्षों पर आक्रमण कर दिया अनेक व्यक्तियों का संघार कर दिया निरपराध यक्षों को मरते हुए देख श्वायम्भुव मनु को दया आ गयी उन्होंने ध्रुव से कहा -----
नन्वेकस्यापराधेन प्रसंगाद् बहवो हताः ||
बेटा जो तुमने किसी एक यक्ष के अपराध के कारण बहुत से निरपराध यच्छों का संघार कर दिया है , तुम जैसे भगवत प्राप्त भगवत भक्त के लिए यह मार्ग उचित नहीं है |
तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिलजन्तुषु |
समत्वेन च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति ||
भगवान श्री हरि तो अपनों से बड़े के प्रति शीलता छोटों के प्रति दया और बराबर वालों के साथ मित्रता और समस्त जीवो पर समानता का व्यवहार करने से ही प्रसन्न होते हैं , बेटा ध्रुव तुम्हारे भाई को मारने वाला कुबेर का अनुचर यक्ष नहीं है क्योंकि मनुष्य के जन्म मरण का वास्तविक कारण काल है उसका भाग्य ही है।

वह काल ही इस जगत् की सृष्टि करता है इसका पालन करता है और अंत में इसका संघार कर देता है तुमने यक्षों का संघार कर भगवान शंकर के भक्त कुबेर का अपराध किया है , इसलिए तुम्हें उनसे क्षमा मांगनी चाहिए |
 स्वयंभू मनु ने जब इस प्रकार भक्त ध्रुव को समझाया ध्रुव ने स्वयंभू मनु के चरणों में प्रणाम किया कुबेर से क्षमा मांगी और अपने नगर में लौट आए धर्म पूर्वक छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद अंत में अपना राज उत्कल को शौंप बद्रिका आश्रम चले आए , वहां भगवान का भजन करने लगे एक दिन उन्होंने आकाश से उतरते एक दिव्य विमान को देखा जिसके प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही थी |

उसमें से भगवान के दो पार्षद निकले ध्रुव जी ने उन्हें प्रणाम किया विमान की परिक्रमा की आश्रम में निवास करने वाले सभी साधु-संतों को प्रणाम कर विमान में चढ़ने लगे उसी समय दक्षिण दिशा से मृत्यु देवता आए उन्होंने कहा महाराज मेरा वरण किए बिना इस पृथ्वी से कोई जीव नहीं जा सकता। 

ध्रुव ने कहा मैं तुम्हें स्वीकार करता हूं मृत्यु देवता ने कहा आप भगवान के अनन्य भक्त हैं मेरे सिर पर पैर रखकर आप इस विमान में चढ़ जाइए |

मृत्योर्मूर्ध्नि पदं दत्वा आरुरोहाद्भुतमं ग्रहम् ||मृत्यु के सिर पर पैर रखकर ध्रुव जी विमान में चढ़ गए जब विमान आगे चलने लगा ध्रुव जी ने कहा रुको - रुको मैं अपनी मां को साथ ले लूं भगवान के पार्षदों ने कहा --

कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
           वसुन्धरा पुण्यवती च तेन |
अपार सम्वित सुखसागरेस्मिन
           लीनं परं ब्रम्हणि यस्य चेतः ||
ध्रुव जी जिनका चित्त भगवान में लगा हुआ है , उनका कुल पवित्र हो जाता है और उनकी मां कृतार्थ तो हो जाती है , जहां उस भक्त का जन्म होता है वहां की भूमि तीर्थ हो जाती है और तुम जैसे भक्तों की जो मां हो वह पीछे कैसे रह सकती है |वह देखो वह आगे आगे जो विमान जा रहा है उसमें आपकी मां है |
सोकुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत | 
श्री रघुवीर परायण जेहि नर  उपज विनीत ||
ध्रुव जी ने त्रिलोकी को पार कर सप्त ऋषि मंडल से ऊपर ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया |
(  बोलिए भक्त ध्रुव की जय  )
  * महाराज अंग की कथा *
मैत्रेय मुनि कहते हैं- विदुर जी ध्रुव के वंश में महाराज अंग का जन्म हुआ अंग का विवाह अधर्म के वंश में उत्पन्न हुए मृत्यु की पुत्री सुनीथा से हुआ जिससे अत्यंत क्रूर कर्मा दुष्ट बेन का जन्म हुआ।

जन्म से ही बेन अत्यंत उग्र स्वभाव का था वह निरपराध प्राणियों को सताता उन्हें मार देता महाराज अंगने उसे सुधारने का बहुत प्रयास किया परंतु जब वह नहीं सुधरा तो विचार करने लगे संसार में जो संतान हीन है उन्होंने निश्चित ही भगवान की आराधना की है जिससे दुष्ट पुत्र से उत्पन्न होने वाले दुख को उन्हें नहीं भोगना पड़ा |
कदपत्यं वरं मन्ये सदपत्याच्छुचां पदात |
निर्विद्येत गृहान्मर्त्यो यत्क्लेशनिवहा गृहाः ||
मैं सुपुत्र की अपेक्षा दुष्ट पुत्र को श्रेष्ठ मानता हूं क्योंकि सुपुत्र का त्याग करना बड़ा ही कठिन है परंतु दुष्ट पुत्र घर को नर्क बना देता है जिससे सहज में ही उससे छुटकारा मिल जाता है ऐसा विचार कर महाराज अंगने बिना किसी को बताए अर्धरात्रि में राज्य का त्याग कर दिया वन में चले गए।

मंत्रियों ने उन्हें ढूंढने का बहुत प्रयास किया परंतु जब वे नहीं मिले तो महारानी सुनीता की आज्ञा से उन्होंने बेन को राजा बना दिया राजा बनते ही बेन उन्मत्त हो गया-----
न यष्टव्यं न दातव्यं न होतव्यं द्विजाः क्वचित् |
इति   न्यवारयध्दर्मं    भेरीघोषेण   सर्वशः  ||
 उसने अपने नगर में घोषणा करवा दी कोई भी ब्राह्मण ना यज्ञ करे ना दान करें और ना ही हवन करें बेन के इस अत्याचार को देख अनेकों  ऋषि एकत्रित हुए और बेन को समझाते हुए कहने लगे महाराज जिस राजा के राज्य में प्रजा जन धर्म पूर्वक अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए यज्ञ पुरुष भगवान नारायण की आराधना करते हैं उस राजा पर भगवान प्रसन्न हो जाते हैं और समस्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं इसलिए आपको धर्म अनुष्ठानों पर पाबंदी नहीं लगानी चाहिए ऋषि यों के इस प्रकार समझाने पर बेन ने कहा---
बालिशा बत यूयं वा अधर्मे धर्ममानिनः |
ये वृत्तिदं पतिं हित्वा जारं पतिमुपासते ||
मुनियों तुम सभी मूर्ख हो तुमने अधर्म में धर्म बुद्धि लगा रखी है जो आजीविका प्रदान करने वाले मुझ परमेश्वर को छोड़कर किसी और जार पति की उपासना करते हो |

जो मनुष्य मूर्खता बस राजा रूपरमेश्वर का अनादर करता है उसे ना तो इस लोक में और ना ही परलोक में सुख मिलता है ब्रह्मा , विष्णु , शिव , रूद्र , वायु और सूर्य आदि समस्त देवता राजा के शरीर में निवास करते हैं , राजा सर्वदेव मय हैं इसलिए आप सभी मेरा ही पूजन करो | 

बेनाय नमः ऐसा कह मुझे ही नमस्कार करो और वेनाय स्वाहा ऐसा कह मुझे ही आहुति प्रदान करो , बेन के इस अभिमान को देख ऋषियों को क्रोध आ गया उन्होंने हुंकार मात्र कि जिससे बेन का प्राणांत  हो गया |

ऋषि अपने अपने आश्रम में लौट आए राजा के ना होने पर जब राज्य में अराजकता फैलने लगी तो ऋषियों ने बेन के जघां का मंथन किया जिससे एक काला और बोना पुरुष उत्पन्न हुआ ऋषियों ने कहा ( निषीद ) बैठ जाओ जिससे वह निषाद कहलाए |

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पुनः ऋषियों ने बेन के भुजाओं का मंथन किया जिससे स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ उनमें जो पुरुष थे वह भगवान के अंशावतार महाराज पृथु हुए --
प्रथयते यशो विस्तारते इति पृथु ||
इनके यश का विस्तार होने के कारण इनका नाम प्रथु हुआ और जो स्त्री थी वह मां लक्ष्मी की अंश स्वरूपा अर्चिदेवी हुई जब महाराज पृथु का राज्याभिषेक हुआ उस समय प्रजा उनके पास आई उनसे प्रार्थना की महाराज अन्न के बिना भूख के कारण हम मरने वाले हैं इसलिए हमारे लिए अन्न की व्यवस्था करो महाराज पृथु ने सुना तथा प्रजा जनों के दुख को देखा तो आंख बंद करके ध्यान लगाया समझ गए अन्नाभाव के कारण को पृथ्वी ने समस्त अन्न को अपने अंदर छिपा लिया है | क्रोधित हो हाथ में धनुष बाण उठा लिया पृथ्वी से कहा -------

वसुधे त्वां वधिष्यामि मच्छासनपराङ् मुखीम् |
भागं बर्हिषि या वृङ्त्ते न तनोति च नो वसु ||
पृथ्वी तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करती है यज्ञ में अपना भाग तो ले लेती है परंतु बदले में हमें अन्न नहीं देती इसलिए मैं तुझे मार डालूंगा पृथ्वी भयभीत हो गई गाय का रूप धारण कर भागी परंतु जहां भी गई सभी जगह हांथ में धनुष बाण लिए हुए प्रथु भगवान दिखे।

समझ गई यह परमेश्वर हैं और उनके चरणों में गिर गई कहा प्रभु राजा लोगों ने मेरा पालन-पोषण करना छोड़ दिया था चोरों के समान बस खाए ही जा रहे थे इसलिए मैंने यज्ञ के लिए औषधियों को अपने अंदर छिपा लिया है यदि आपको आवश्यकता है तो आप बछणा दोहनपात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कर  अन्न को दुह लीजिए | और मुझे समतल कीजिए जिससे वर्षा ऋतु का जल मेरे में बना रहे।

पृथ्वी देवी के इस प्रकार कहने पर महाराज पृथु ने स्वयंभू मनु को बछड़ा बनाया अपने हाथों को पात्र बनाया और स्वयं दुहने वाले बनकर समस्त अन्न को दुह लिया और अपने धनुष की नोंक से पर्वतों को फोड़कर पृथ्वी को समतल किया और प्राणियों को रहने के लिए निवास स्थान की व्यवस्था की |

जब प्रजा सुखी हो गई समृद्ध हो गई उस समय ब्रह्मावर्त क्षेत्र में महराज पृथु ने सौ अश्वमेघ यज्ञ की दीक्षा ली 99 यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हो गए जब सौंवा यज्ञ करने लगे तो इंद्र महात्मा का वेश धारण कर आया और घोड़ा चुरा कर ले गया महाराज पृथु के पुत्र ने इंद्र का पीछा किया और महात्मा को देखा तो लौट आया।

महर्षि अत्रि ने कहा यह महात्मा नहीं महात्मा के भेष में इंद्र है तब पृथु नंदन ने इंद्र को मारने के लिए धनुष बाण उठाया जिससे इंद्र भयभीत हो गया उसने घोड़ा और महात्मा का वेष वही छोड़ा और भाग खड़ा हुआ इंद्र से घोडा़ जीतने के कारण इस कुमार का नाम विजितास्व  हुआ , जब महाराज पृथु ने पुनः यज्ञ प्रारंभ किया तो इंद्र फिर भेष बदल कर आया और घोड़े को चुरा कर ले गया विजितास्व ने पुनः पीछा किया | इंद्र पुनः घोड़े को छोड़कर भाग खड़ा हुआ -------
यानि रुपाणि जगृहे इन्द्रो हयजिहीर्षया |
तानि पापस्य खण्डानि लिङ्गं खण्डमिहोच्यते ||
घोड़े को चुराने के लिए इंद्र ने जिन जिन रूपों को धारण किया वे सब पाप के  खंड चिन्ह होने के कारण पाखंड कहलाए |

कलिकाल में अनेकों लोगों ने अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें धारण किया , जब बारंबार इंद्र यज्ञ में विघ्न पहुंचाने लगा तो महाराज पृथु को क्रोध आ गया उन्होंने इंद्र को मारने के लिए धनुष बांण उठा लिया ऋत्युजों  ने कहा महाराज आप यजमान हैं आपको क्रोध नहीं करना चाहिए हम मंत्रों के द्वारा इंद्र का आवाहन करते हैं और उसे अभी अग्नि में हवन कर देते हैं |

ऐसा कह ऋत्युजों ने मंत्र आरंभ किया जिससे इंद्र का सिंहासन डोलने लगा | दौड़े-दौड़े ब्रह्मा जी आए उन्होंने ऋत्युजों को रोका और महाराज पृथु से कहा महाराज सौ अश्वमेघ का फल इंद्रासन है |

इसी भय के कारण कारण इंद्र बारंबार यज्ञ में विघ्न पहुंचा रहा है आपको इंद्रासन का कोई लोभ नहीं आप भगवान की प्रसन्नता के लिए यज्ञ कर रहे हैं आपके द्वारा यदि भगवान को प्रसन्न होना होगा तो वे निन्यान्नवे यज्ञ से ही प्रसन्न हो जाएंगे | ब्रह्मा जी किस प्रकार समझाने पर महाराज पृथु ने सौ अश्वमेघ  यज्ञ का संकल्प त्याग दिया उनके इस त्याग से भगवान नारायण प्रसन्न हो गए और प्रगट हो गए |

उन्होंने कहा राजन तुमने अपने गुण और स्वभाव से मुझे बस में कर लिया है मुझसे जो इच्छा हो वह वरदान माग लो महाराज पृथु ने कहा-------
न कामये नाथ तदप्यहं क्वचिन्
            न यत्र युष्मच्चरणाम्बुजासवः |
महत्तमान्तर्ह्रदयान्मुखच्युतो 
             विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ||
प्रभो आपके चरण कमलों के अलावा कोई और कामना नहीं है यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे दस हजार कान दे दीजिए जिससे मैं निरंतर आप की कथा सुधारस का पान कर सकूं |

भगवान नारायण ने कहा राजन मैं तुम्हें इन्हीं दोनों कानों में दस हजार कानों की शक्ति प्रदान करता हूं , जिससे तुम निरंतर मेरी कथा सुधा का पान करते हुए थकोगे नहीं , ऐसा कह भगवान श्रीहरि अंतर्ध्यान हो गए |

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