श्रीमद्भागवत महापुराण कथा हिन्दी, नवम स्कंध भाग-1

भागवत महापुराण नवम स्कंध भाग-1
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
 सूचना➡ नवम स्कंध चार भागों में है आप चारों भागों को जरूर पढ़ें |
नवम स्कंध को इषानु कथा कहते हैं | ईषस्य भगवत: कथा तद् अनुयायिनाम भक्तानां च कथा ईषानु कथा  ।।
जहां भगवान और भगवान के प्रिय भक्तों की कथाओं का वर्णन किया गया हो उसे ही इषानू कथा कहते हैं |


राजा परीक्षित श्री सुकदेव जी से प्रश्न करते हैं कि गुरुदेव राजर्षि सत्यव्रत जो इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए आप उनके पवित्र वंश का वर्णन कीजिए | श्री सुकदेव जी कहते हैं---
श्रूयतां मानवो वंश:   प्राचुर्येण परंतप  ।
न  शक्यते  विस्तरतो   वक्तुं  वर्षशतैरपि  ।। ९/१/७

परीक्षित मैं तुम्हें संक्षेप में मनु वंश का वर्णन सुनाता हूं क्योंकि सैकड़ों वर्षो में भी मनु वंश का वर्णन विस्तार पूर्वक नहीं हो सकता | समस्त प्राणियों की आत्मा भगवान नारायण की नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई | ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव हुआ ब्रह्मा जी के मन से मरीचि का और मरीचि के पुत्र कश्यप से उनकी पत्नी अदिति के द्वारा विवस्वान सूर्य नारायण भगवान का जन्म हुआ |

विवस्वान की संज्ञा नाम की पत्नी से श्राद्ध देव मनु का जन्म हुआ | यही श्राद्ध देव विवस्वान के पुत्र होने के कारण वैवस्वत मनु कहलाए | जब वैवस्वत मनु की कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने वशिष्ठ ऋषि से प्रार्थना की वशिष्ठ जी ने पुत्र प्राप्ति के लिए मित्रा वरुण का यज्ञ कराया |

मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा देवी चाहती थी मुझे कन्या हो इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत सी दक्षिणा दी बाद में पुत्री का संकल्प कराया जिससे समय आने पर एक इला नाम की कन्या उत्पन्न हुई |

मनु ने जब उस कन्या को देखा खिन्न हो गए दुखी हो गए मुनि वशिष्ठ से कहा यज्ञ तो पुत्र प्राप्ति के लिए किया गया था तो फिर यह कन्या कहां से हो गई ऋषि वशिष्ठ ने  ध्यान लगाकर देखा समझ गए किस कारण पुत्री हुई और कहा संकल्प के विपरीतता के कारण पुत्री हुई है |

परंतु तुम दुखी मत हो मैं अपने तपोबल से इसे पुत्र बना दूंगा भगवान नारायण की आराधना की जिससे वह पुत्री सुद्युम्न नामक पुत्र के रूप में परिणित हुआ | जब यह सुद्युम्न बडा हुआ शिकार खेलने वन में गया और उत्तर की ओर इलावृत खंड में प्रवेश कर गया वहां भगवान शंकर का श्राप था जो भी यहां पुरुष प्रवेश करेगा वह स्त्री बन जाएगा |

सुद्युम्न पुनः स्त्री बन गया एक वन से दूसरे वन में भटकने लगा इसी समय चंद्रमा के पुत्र बुध की दृष्टि इस पर पड़ी दोनों एक दूसरे को देख मोहित हो गए आपस में विवाह कर लिया जिससे पूरुरवा नामक एक पुत्र हुआ | सुद्युम्न एक बार दुखी होकर ऋषि वशिष्ठ का स्मरण किया ऋषि वशिष्ठ ने सुद्युम्न के इस दुर्दशा को देखा तो भगवान शंकर की प्रार्थना की उस प्रार्थना से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए |

वशिष्ठ जी ने भगवान शंकर से कहा इसे इसका पुरुषत्व पुनः प्रदान कर दीजिए,भगवान शंकर ने कहा यह एक महीने पुरुष रहेगा 1 महीने स्त्री रहेगा पुरुषत्व को प्राप्त कर सुद्युम्न नगर में लौट आया परंतु प्रजा जन इसका आदर नहीं करते | जिससे यह राज्य छोड़ बन मे चला गया |

यहां संतान के ना रहने पर वैवस्वत मनु ने भगवान नारायण की आराधना की जिससे-इक्ष्वाकु,नग, शर्याति,दिष्ट, धृष्ट,करुष,नरिष्यन्त,पृषध्र,नभग और कवि नामक दस पुत्र हुए | तो राजकुमार प्रषध्र ऋषि वशिष्ठ के यहां गायों की सेवा करने लगे एक दिन रात्रि में एक सिंह ने गायों के ऊपर आक्रमण कर दिया, सिहं को मारने के लिए अंधेरे में प्रषध्र ने तलवार चलाई जिससे सिंह तो बच गया परंतु गाय की हत्या हो गई |

गुरु वशिष्ठ को जब यह पता चला श्राप दे दिया तुमने शूद्र की तरह काम किया है , इसलिए शूद्र हो जाओ | प्रसद्ध ने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया वन में चला गया और भगवान की आराधना कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
( सुकन्या का चरित्र )
मनु पुत्र सर्याति ब्राह्मणों के परम भक्त थे उनकी सुकन्या नाम की एक पुत्री थी एक दिन वे अपनी पुत्री सुकन्या के साथ महर्षि च्यवन के आश्रम में आए वहां सुकन्या ने एक स्थान पर बामी से निकलती ज्योतियों को देखा तो कांटे से उसे छेद दिया तो उसमें से रक्त प्रवाहित होने लगा |

यह देख सुकन्या अत्यंत भयभीत हो गई यहां राजा के सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया यह देख राजा शर्याती ने कहा निश्चित ही किसी ने महर्षि च्यवन का अपराध किया है | सुकन्या डरते हुए अपने पिताजी से कहा पिताजी मैंने अनजान में बामी से दो ज्योतियों को निकलते हुए देखा तो उसे कांटे से छेद दिया था जिससे वहां से रक्त प्रवाह होने लगा था |

शर्याती ने जब यह सुना डर गए महर्षि च्यवन की स्तुति की और च्यवन की सेवा के लिए अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह उनसे कर दिया | सुकन्या अत्यन्त क्रोधी च्यवन मुनि की बड़ी सावधानी से सेवा करने लगी, जिससे च्यवन मुनि प्रसन्न हो गए |

एक दिन उनके आश्रम में अश्वनी कुमार पधारे च्यवन मुनि ने कहा अश्वनी कुमारों तुम मुझे यौवनत्व प्रदान करो बदले में मैं तुम्हें देवत्व प्रदान करता हूं , अश्विनी कुमारों ने एक सिद्ध कुंड का निर्माण किया च्यवन मुनि को साथ लेकर उसमें प्रवेश किया और च्यवन मुनि जब वहां से निकले सुंदर शोडष वर्षीय पुरुष के समान उनका शरीर हो गया |

शर्याती च्यवन मुनि के आश्रम पर आए और वहां उन्होंने अपनी पुत्री सुकन्या को एक युवा पुरुष के पास बैठा हुआ देखा तो क्रोधित हो गए कहने लगे तूने कुल को कलंकित कर दिया जो अपने बूढ़े पति को छोड़कर इस जार पुरुष की सेवा कर रही है |

सुकन्या ने कहा पिताजी यह युवा पुरुष आपके जमाई महर्षि च्यवन हैं | अश्विनी कुमारों के कारण इन्हें यौवनत्व की प्राप्ति हुयी यह सुन राजा शर्याती प्रसन्न हो गए | महर्षि च्यवन ने शर्याती से सोम यज्ञ करवाया जब उस यज्ञ में इंद्र विघ्न डालने लगा तो महर्षि च्यवन ने इंद्र का हाथ स्तंभित कर दिया और इंद्र से अश्विनी कुमारों को देवत्व प्रदान किया | शर्याती के पुत्र अनंत हुए, अनन्त से रेवत का जन्म हुआ |

रेवत के पुत्र कुकुद्मि हुए | कुकुद्मि से रेवती का जन्म हुआ जिसका विवाह चंद्र वंश में उत्पन्न हुए बलराम जी के साथ हुआ |
( महाराज नाभाग के वंश का वर्णन )
परीक्षित मनु पुत्र नभग के पुत्र नाभाग हुए जब नाभाग विद्या अध्ययन के लिए गुरुकुल गए हुए थे इनके भाइयों ने सारी संपत्ति आपस में बांट ली जब यह विद्या अध्ययन कर लौटे और इन्होंने अपना हिस्सा मांगा तो भाइयों ने कहा तुम्हारे हिस्से में संपत्ति नहीं पिता हैं |

नाभाग अपने पिता को लेकर वन में आ गए,नभग बड़े विद्वान थे उन्होंने वन में ऋषियों को यज्ञ करते हुए देखा तो नाभाग से कहा बेटा यह ऋषि छठवें दिन के यज्ञ में भूल कर बैठते हैं |

इसलिए तुम वैश्वदेव संबंधी दो सूक्त इन्हें बतला देना, नाभाग ने जब वे सूक्त उन ऋषियों को बताने आए ऋषि प्रसन्न हो गए बचा हुआ धन नाभाग को दे दिया | जिसे लेकर नाभाग आने लगे तो उत्तर दिशा से एक पुरुष प्रकट हो गये उन्होंने कहा यज्ञ के बचे हुये धन में मेरा अधिकार है |

नाभाग ने कहा ऋषियों ने यह मुझे दिया है इसलिए यह धन मेरा है उस पुरुष ने कहा अपने पिताजी से पूछो | नाभाग जब अपने पिता के पास आए तो पिताजी ने कहा बेटा दक्षप्रजापति के यज्ञ में यही निर्णय हुआ था कि यज्ञ से अवशिष्ट धन में भगवान शंकर का अधिकार होगा |

नाभाग ने भगवान शंकर को प्रणाम किया और कहा प्रभु इस धन में मेरा नहीं आपका अधिकार है | भगवान शंकर नाभाग की सत्य निष्ठा पर प्रसन्न हो गए उन्हें ब्रह्म तत्व का उपदेश दिया और अंतर्ध्यान हो गए | इन्हीं नाभाग के पुत्र भक्त अम्बरीश हुए...

( भक्त अम्बरीश का पावन चरित्र )

महराज अम्बरीश भगवान के परम भक्त थे सातों दीपों वाली पृथ्वी के अधिपति थे ,अतुलनीय ऐश्वर्य उन्हें प्राप्त था परंतु समस्त भोग सामग्रियों को वे स्वप्न के समान समझते थे |
स   वै   मन:   कृष्णपदार विन्दोयो-
    र्वचांसि      वैकुण्ठ    गुणानुवर्णने  ।
करौ       हरेर्मन्दिर मार्जनादिषु
    श्रुतिं        चकाराच्युत सत्कथोदये  ।। ९/४/१८
उनका मन सदा भगवान श्री कृष्ण के चरण कमलों के ध्यान में लगा रहता था,वाणी से वे भगवान के नाम गुणों का कीर्तन करते ,हाथों से मंदिर की सफाई करते ,कानों से भगवान श्री हरि की मधुर कथा का पान करते----
तुमहिं निवेदित भोजन करहीं |
प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहीं ||
सब कुछ भगवान को समर्पित करके ही उनका प्रसाद ग्रहण करते उनके इस भक्ति को देख भगवान श्री हरि ने अपना सुदर्शन चक्र उनकी रक्षा में नियुक्त कर दिया |

एक बार अम्बरीश ने अपनी महारानी के साथ एक वर्ष तक का निर्जला एकादशी का व्रत किया | जब अंतिम एकादशी थी तो इन्होंने उद्यापन के लिए द्वादशी को भगवान का अभिषेक किया शोडषो पचार से पूजन किया ब्राह्मणों को बहुत सा दान किया और ब्राह्मणों को भोजन कराया जब स्वयं पारण करने लगे उसी समय ऋषि दुर्वासा वहां आ गए तो अम्बरीश ने ऋषि दुर्वासा का पूजन किया भोजन के लिए उनसे प्रार्थना की ऋषि दुर्वासा ने कहा मैं मध्यान संध्या करके लौटता हूं फिर भोजन करूंगा |

ऋषि दुर्वासा स्नान कर संध्या कर भगवान के ध्यान में निमग्न हो गए यहां जब द्वादशी तिथि व्यतीत होने वाली थी तो भक्त अम्बरीश ने ब्राह्मणों से कहा अतिथि को बिना भोजन कराएं स्वयं खा लेना और द्वादशी तिथि के रहते पारण ना करना यह दोनों ही दोष है इस विषय में मुझे क्या करना चाहिए |

ब्राह्मणों ने कहा महाराज शालग्राम भगवान का चरणोंदक से वृत की पारणा कर लीजिए, क्योंकि उनका चरणोंदक लेना भोजन करना भी है और नहीं भी है | 

ब्राह्मणों के वाक्य को प्रमाण मानकर भक्त अम्बरीश ने जैसे ही चरणोंदक से पारणा कि, उसी समय ऋषि दुर्वासा वहां आ गए और क्रोधित हो गए कहने लगे तुमने मुझे बिना खिलाए स्वयं खा लिया इसलिए तुमने मेरा अपराध किया है मैं तुम्हें अभी इसका दंड देता हूं ऐसा कह दुर्वासा ऋषि ने एक कृत्या उत्पन्न की वह कृत्या जैसे ही भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए आगे बढ़ी |

पहले से ही नियुक्त सुदर्शन चक्र ने उसे जलाकर भस्म कर दिया और दुर्वासा ऋषि का पीछा करने लगा दुर्वासा ऋषि वहां से भागे ब्रह्मा जी के चरणों में आए ब्रह्मा जी ने कहा दुर्वासा यह शस्त्र उन भगवान नारायण का है जिनकी शक्ति से संपन्न हो मैं इस जगत की सृष्टि करता हूं इसीलिए मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता |

तुम भगवान शंकर की शरण में जाओ | जब दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गए तो भगवान शंकर ने कहा दुर्वासा यह चक्र उन प्रभु का है जिनका में निरंतर चिंतन करता रहता हूं |

इसलिए मैं इससे रक्षा नहीं कर सकता तुम भगवान नारायण की शरण में जाओ दुर्वासा ऋषि दौड़े-दौड़े भगवान नारायण के पास आए कहा प्रभु रक्षा करो-रक्षा करो |
भगवान नारायण ने कहा--
अहं   भक्तपराधीनो  ह्यस्वतन्त्र   इव   द्विज  ।
साधुभिर्ग्रस्त हृदयो         भक्तैर्भक्त  जनप्रिय: ।। ९/४/६३
मैं अपने उन प्यारे भक्तों के अधीन हूं |
ये   दारागार पुत्राप्तान्  प्राणान्  वित्तमिमं परम्।
हित्वा  मां    शरणं याता: कथं तांस्त्यक्तु मुत्सहे।। ९/४/६५
जो भक्त मेरे लिए अपनी स्त्री घर पुत्र और धन का त्याग कर दिया है  | उनका त्याग में कैसे कर सकता हूं |
साधवो  हृदयं  मह्यं  साधूनां  हृदयं  त्वहम्   ।
मदन्यत् ते न  जानन्ति  नाहं तेभ्यो मनागपि।। ९/४/६८
भक्त मेरा हृदय है और मैं भक्तों का हृदय हूं वह मेरे अलावा किसी और को नहीं जानता इसीलिए तुमने जिसका अपराध किया है उसी की शरण में जाओ |
भा निराश उपजी मन त्रासा |
जथा चक्र भय ऋषि दुर्वासा ||
ब्रह्मधाम शिवपुर सब लोका |
फिरा श्रमित व्याकुल भय सोका ||
काहू बैठा कहा ना ओही |
राखि को सकहिं राम कर द्रोही ||
( रामचरित मानस )
दौड़े-दौड़े ऋषि दुर्वासा अम्बरीश के पास आए चरणों में गिरकर दंडवत प्रणाम किया | भक्त अम्बरीश ने दुर्वासा ऋषि को गले लगा लिया और फिर सुदर्शन चक्र की स्तुति की---

सुदर्शन    नमस्तुभ्यं   सहस्त्राराच्युत प्रिय  ।
सर्वास्त्र घातिन्  विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते।। ९/५/४
हे सुदर्शन आप समस्त अस्त्रों को नष्ट करने वाले हैं, भगवान के अत्यंत प्रिय हो मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं आप शांत हो जाइए | इतने पर भी जब सुदर्शन शांत नहीं हुआ तो भक्त अमरीश ने कहा- यदि मैंने सर्वत्र भगवान का ही दर्शन किया हो और भगवान मुझ पर प्रसन्न हो तो आप शांत हो जाइए सुदर्शन चक्र शांत हो गया |

दुर्वासा ऋषि ने अम्बरीश को अनेकों आशीर्वाद दिए ,अम्बरीश ने दुर्वासा ऋषि का पूजन किया उन्हें भोजन कराया और जब वह चले गए तब स्वयं भोजन किया | वे अनेकों वर्षों तक राज्य किया और फिर राज्य पुत्रों को सौंपा वन में चले गए वहां भगवान का भजन कर भगवान को प्राप्त कर लिया |

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