श्रीमद्भागवत महापुराण साप्ताहिक कथा
नवम स्कंध भाग-2

इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन...
श्री शुकदेव जी कहते हैं , परीक्षित स्वयंभू मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में युवनाश्व का जन्म हुआ |जब इनकी कोई संतान नहीं थी तो यह अपनी रानियों के साथ वन में चले गए वहां ऋषियों को इन पर दया आ गयी उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराया |एक दिन रात्रि में युवनास्व को बहुत जोरों की प्यास लगी थी उन्होंने अनजान में यज्ञशाला में रखा हुआ अभिमंत्रित जल पी लिया जिससे इनके उदर में गर्भ हो गया | समय आने पर उनकी दाहिनी कोख को फाड़कर एक पुत्र उत्पन्न हुआ वह जब रोने लगा तो ऋषियों ने कहा- कं धास्यति इसका पिता कौन होगा, यह किसका दूध पिएगा |
उस समय इंद्र ने अपनी तर्जनी अंगुली को उस बालक के मुंह में डाल दिया और कहा- मां धाता इसका पिता मै हूंगा | इसी से इस बालक का नाम मांधाता हुआ यह इतना बलवान था कि रावण आदिदस्यु इसके डर से भाग जाते थे | इसलिए इसका एक नाम त्रसद दस्यु भी हुआ |
मांधाता की पचास कन्याएं थी, एक बार सौभरी ऋषि यमुना के जल में तपस्या कर रहे थे उन्होंने एक मत्स्यराज को मछलियों के साथ विहार करते देखा तो उनकी भी विवाह करने की इच्छा हो गई |
वह राजा मांधाता के यहां आए और कहां आप अपनी 50 कन्याओं में से किसी एक का विवाह मुझसे कर दो | मांधाता ने शौभरी ऋषि को नीचे से ऊपर तक देखा शरीर में झुर्रियां पड़ी हुई थी, उन्होंने सोचा यदि मना कर दूंगा तो ऋषि श्राप दे देंगे |
मांधाता ने कहा मुनिवर जो भी कन्या आपको पसंद कर ले आप उससे विवाह कर लीजिए|सौभरी ऋषि मांधाता के मन की बात को समझ गए, उन्होंने योग बल से इतना सुंदर स्वरूप बनाया कि पचास की पचासों कन्याओं ने उन्हें पसंद कर लिया , सौभरी ऋषि ने पचास रूप धारण किए और एक ही मुहूर्त में पच्चास कन्याओं से विवाह कर लिया |
उन्हें अपने आश्रम में ले आए अनेकों वर्षों तक भोग-भोगते रहे एक दिन बैठकर विचार करने लगे, देखो मेरे विनाश को तो देखो कहां मैं अकेला था एक मत्स्य के बिहार को देखकर , स्त्रियों के रूप में पच्चास हो गया और संतानों के कारण पांच हजार हो गया-----
सड्गं त्यजेत मिथुनव्रतिनां मुमुक्षु:
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि ।
एकश्चरन् रहसि चित्त मनन्त ईशे
युञ्जीत तद् व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसंग: ।। ९/६/५१
इसलिए जो मोह से हट के मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उन्हें कभी भी भोगी प्राणियों का संग नहीं करना चाहिए | वह अकेला ही भ्रमण करें अपने इंद्रियों को बाहर ना भटकने दे अपने चित्त को भगवान के चरणों में लगा दें और यदि संग करने की इच्छा है तो भगवान के प्रेमी भक्तों का संग करें |
इस प्रकार विचार कर उन्होंने घर छोड दिया वन में चले गए और वहां भगवान का भजन कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
राजा हरिश्चंद्र की कथा
परीक्षित मांधाता के वंश में त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चंद्र हुए | जब हरिश्चंद्र की कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने वरुण देवता से प्रार्थना की प्रभु यदि मुझे पुत्र हुआ तो उसी से आप का यजन करूंगा |वरुण देवता की कृपा से हरिश्चंद्र को रोहित नाम का पुत्र हुआ ,बालक के उत्पन्न होने पर वरुण देवता आए कहा हरिश्चंद्र मेरा यजन करो |
हरिश्चंद्र ने कहा अभी यह बालक छोटा है जब इसके दांत निकल आएंगे तब यजन करूंगा, दांत निकलने पर वरुण देवता ने यजन के लिए कहा तो हरिश्चंद्र ने कहा जब इसके दूध के दांत टूट कर पुनः दांत उत्पन्न हो जाएंगे तब यजन करूंगा , दूध के दांत निकलने पर वरुण देवता आए तो हरिश्चंद्र ने कहा जब इसका उपनयन संस्कार हो जाएगा यह अस्त्र शस्त्र धारण करने लगेगा तब यजन करूंगा |
यह बात जब रोहित को मालूम हुआ कि पिताजी मेरी बलि चढ़ाने वाले हैं तो वह वन में चला गया | यहां बारंबार मना करने से वरुण देवता रुष्ट हो गए जिससे हरिश्चंद्र को महोदर रोग हो गया, जब रोहित ने पिता के रोग के विषय में सुना तो घर लौटने लगा, इसी समय इंद्र महात्मा का वेश धारण करें आया और कहा बेटा रोहित यज्ञ में पशु बनकर मरने की उपेक्षा तीर्थों में भ्रमण करना श्रेयस्कर है |
रोहित भ्रमण करने लगा जब भी वह घर लौटने लगता इंद्र कोई ना कोई बहाना बनाकर उसे रोक लेता इस प्रकार पांच वर्ष व्यतीत हो गए | छठे वर्ष में रोहित ने अजीगर्त के मझले श्नहशेप को खरीद लिया और पिता को सौंप दिया | जब पिता हरिश्चंद्र यज्ञ करने लगे उस श्नहशेप की बलि देने लगे तो वह भयभीत हो गया और अपने मामा विश्वामित्र की गोद में बैठ गया |
विश्वामित्र को उस पर दया आ गई विश्वामित्र ने वरुण की स्तुति की जिससे वरुण देवता प्रसन्न हो गए उन्होंने हरिश्चंद्र को रोग से मुक्त कर दिया और उस बालक को भी जीवनदान दिया | यही श्नेहशेप आगे चलकर विश्वामित्र का पुत्र देवरात के नाम से विख्यात हुआ.. |
राजा सगर का चरित्र
परीक्षित रोहित के वंश में बाहुक का जन्म हुआ, जब शत्रुओं ने इनका राज्य छीन लिया तो यह अपनी पत्नियों के साथ वन में चले आए वहां वृद्धावस्था के कारण इनकी मृत्यु हो गई उनके साथ उनकी छोटी रानी जो गर्भवती थी वह सती होने लगी जब ऋषि और्व को यह मालूम हुआ की रानी गर्भवती है, तो उन्होंने सती होने से रोक दिया | जब अन्य रानियों को यह पता चला कि उसके गर्भ में महाराज की संतान है तो जलन के मारे इन्होंने भोजन के साथ विष दे दिया |परंतु गर्भस्थ शिशु पर विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ , समय आने पर वह जब उत्पन्न हुआ तो वह अपने साथ विष लेकर पैदा हुआ | जिससे उसका नाम सगर पड़ा | महराज सगर चक्रवर्ती सम्राट थे इनकी सुमति नाम की पत्नी से साठ हजार संतानें हुई |
जब महाराज सगर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे उस समय इंद्र यज्ञ का घोड़ा चुरा कर ले गया | जब सगर के पुत्र घोड़ा ढूंढने निकले और उन्होंने कपिल मुनि के आश्रम में अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बंधा हुआ देखा तो कपिल मुनि को चोर समझने लगे उन्हें अनेकों अपशब्द कहे शस्त्र उठाकर उन्हें मारने दौड़े कपिल मुनि ने जैसे ही नेत्र खोले सब के सब जलकर भस्म हो गए | महाराज सगर की दूसरी पत्नी केशनी से असमंजस का जन्म हुआ |
असमंजस जन्मजात योगी थे संसार से इन्हें कोई मोह नहीं था संसार को छोड़ने के लिए यह अनोखा काम करते खेलते हुए बालकों को कुएं में डाल देते, जब नगर वासियों ने महाराज से शिकायत की तो महाराज ने असमंजस को नगर से निकाल दिया |
असमंजस ने योग बल से समस्त बालकों को जीवित कर दिया वह वन में चले गए, असमंजस के पुत्र अशुंमान हुये पितामह सगर की आज्ञा से जब यह यज्ञ का घोड़ा ढूंढने निकले तो इन्होंने महर्षि कपिल के आश्रम में अपने चाचाओं के शरीर शरीर के भष्म के पास घोड़े को बंधा हुआ देखा |
तो महर्षि कपिल की स्तुति की जिससे भगवान कपिल प्रसन्न हो गए उन्होंने कहा बेटा तुम इस घोड़े को ले जाओ और अपने चाचाओं के उद्धार के लिए गंगा जी को लाने का प्रयास करो |अंशुमान घोड़ा पितामह सागर को सौंपा और गंगा जी को लाने के लिए तपस्या करने लगे |
परन्तु इन्हें सफलता नहीं मिली उनके पुत्र दिलीप हुए दिलीप ने भी गंगा जी को लाने के लिए तपस्या की परंतु इन्हें भी सफलता नहीं मिली | उनके पुत्र भगीरथ हुए उन्होंने ऐसी तपस्या की कि माता गंगा प्रकट हो गई, उन्होंने कहा भगीरथ मैं तुम्हारे साथ पृथ्वी में चलने के लिए तैयार हूं पर मेरा यह वजन कौन सहन करेगा |
यदि मेरे बेग को कोई सहन नहीं कर सका तो मैं पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊंगी | इसके अलावा जब मैं पृथ्वी में आऊंगी तो अनेकों पापी अपने पाप मुझमें धुलेंगे जिससे मैं दूषित हो जाऊंगी | मैं अपने पाप का मार्जन कहां करूंगी | भगीरथ ने कहा---
साधवो न्यासिन: शान्ता ब्रह्यिष्ठा लोकपावना: ।
हरन्त्यघं तेऽड्गसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभिध्दरि: ।। ९/९/६
माता भगवान के जो परम प्रेमी भक्त हैं उनके हृदय में अघरूपी अघासुर को मारने वाले भगवान श्री हरि निवास करते हैं | जब आपको उनके शरीर का स्पर्श होगा तो आपके संपूर्ण पाप नष्ट हो जाएंगे | इसके अलावा आपके वेग को भगवान शंकर धारण करेंगे |ऐसा कह भगीरथ ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की भगवान शंकर ने अपनी जटाओं में गंगा जी को धारण किया | एक जटा का बाल खोल दिए जिससे मां गंगा जी की एक धारा मानसरोवर से गंगोत्री होते हुए भगीरथ के रथ के पीछे पीछे बहने लगी | जिससे गंगाजी भागीरथी गंगा कहलाई |
मार्ग में जन्हु ऋषि सन्ध्या बंदन कर रहे थे, उन्होंने वेग से गंगाजी को आते हुए देखा तो एक आचमन में ही गंगा जी का पान कर गये |भगीरथ ने जन्हु ऋषि की प्रार्थना की जिससे जन्हु ऋषि ने अपनी जंघा से गंगा जी को प्रकट किया इसी से गंगा जी का एक नाम जान्हवी पड़ा |
गंगा जी और आगें बढ़ी ऋषिकेश में सप्त ऋषि तपस्या कर रहे थे गंगा जी विचार करने लगी पहले एक ऋषि मिले थे उन अकेले ने ही मेरा पान कर लिया था यहां तो सात सात है मैं क्या करूं | वहां गंगा जी की सात धाराएं विभक्त हो गई |
अनेकों स्थानों को पवित्र करती हुई गंगा जी गंगा सागर में आई वहां जैसे ही सगर के पुत्रों की शरीर की भस्म जब गंगा से स्पर्श हुई सगर के पुत्र दिव्य रूप धारण करके स्वर्ग में चले गए |परीक्षित जब गंगाजल से शरीर का राख का भी स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गई तो जो लोग श्रद्धा पूर्वक गंगा का सेवन करते हैं उनके विषय में तो कहना ही क्या |
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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नोट - अगर आपने भागवत कथानक के सभी भागों पढ़ लिया है तो इसे भी पढ़े यह भागवत कथा हमारी दूसरी वेबसाइट पर अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुकी है
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श्री भागवत महापुराण की हिंदी सप्ताहिक कथा जोकि 335 अध्याय ओं का स्वरूप है अब पूर्ण रूप से तैयार हो चुका है और वह क्रमशः भागो के द्वारा आप पढ़ सकते हैं कुल 27 भागों में है सभी भागों का लिंक नीचे दिया गया है आप उस पर क्लिक करके क्रमशः संपूर्ण कथा को पढ़कर आनंद ले सकते हैं |
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