Bhagwat Katha in hindi भागवत कथा हिंदी नवम स्कंध भाग-4

श्रीमद्भागवत महापुराण कथा इन हिंदी
नवम स्कंध, भाग-4
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
अथातः श्रूयतां राजन् वंशः सोमस्य पावनः |
यस्मिनैलादयो भूपाः कीर्त्यन्ते पुण्यकीर्तयः ||
( 9.14.1 )
( चंद्र वंश का वर्णन )
श्री सुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित अब मैं तुम्हें परम पवित्र चंद्र वंश का वर्णन सुनाता हूं | जिसमे पुरुरवा आदि अनेकों यशस्वी राजा हुए हैं |

भगवान नारायण की नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई ,ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध और बुध से पुरुरवा | देवर्षि नारद के मुख से जब देव लोक की अप्सरा उर्वशी पुरुरवा के रूप,गुण,स्वभाव,बल और संपत्ति का वर्णन सुना तो काम से संतप्त उर्वशी महाराज पुरुरवा के पास आई और कहा महाराज मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं |

परंतु मेरी कुछ सर्तें हैं, मेरे पास यह दो भेड़ के बच्चे हैं जिन्हें मैं अत्यंत स्नेह करती हूं आपको इनकी सदा रक्षा करनी होगी | मैं मात्र घी पीकर रहूंगी और सहवास के अलावा मैं कभी भी आपको निर्वस्त्र नहीं देख सकूंगी | महाराज पुरुरवा ने बात स्वीकार कर ली उर्वशी से विवाह कर लिया जिससे-आयु,श्रुतायु,सत्यायु,रय,विजय और जय नामक छः पुत्र हुए उर्वशी के न रहने से इंद्र को स्वर्ग सूना सूना लगने लगा |

उसने उर्वशी को लाने के लिए गंधर्वों को भेजा ,गंधर्व रात्रि में भेड़ों को चुराकर ले जाने लगे उस समय भडों के स्वर को सुनकर उर्वशी ने पूरुरवा को अनेकों अपशब्द कहे ,पुरुरावा वस्त्र हीन अवस्था में ही भेड़ों की रक्षा के लिए दौड़ा यह देखकर गंधर्व भेड़ों को छोड़ बिजली बन कर आकाश में चमकने लगे | उर्वशी ने जब पुरुरवा को निर्वस्त्र देखा तो उन्हें छोड स्वर्ग में लौट आयी |

पुरुरवा के पुत्र आयु से नहुष आदि पांच पुत्रों का जन्म हुआ, नहुष से- याति,ययाति,संयाति,आयाति,वियाति और कृति  नामक छ: पुत्र हुए जिनमें से महाराज ययाति का विवाह दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ | महाराज परीक्षित प्रश्न पूछते हैं गुरुदेव शुक्राचार्य तो ब्राम्हण थे और महाराज ययाति क्षत्रिय थे फिर इन दोनोंमें विवाह संबंध कैसे हुआ श्री शुकदेव जी कहते हैं -

परीक्षित एक बार दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा अपनी सखी देवयानी और अनेकों सखियों के साथ उद्यान के एक जलाशय में निर्वस्त्र स्नान कर रही थी |

उसी समय भगवान शंकर की सवारी निकली उसे देख ये लज्जित हो अपने वस्त्र पहनने लगी शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र पहन ली, जिससे देवयानी अनेको अपशब्द कहने लगी जिन्हें सुन शर्मिष्ठा को क्रोध आ गया , उसने देवयानी के वस्त्र छीन लिए और उसे कुएं में धक्का दे दिया |

शर्मिष्ठा के जाने के पश्चात दैव योग से वहां से महाराज ययाति का निकलना हुआ, प्यास लगने पर जब वे कुंआ के पास पहुंचे उन्होंने देवयानी को नग्न अवस्था में देखा, उसका हाथ पकड़ कर बाहर निकाला उसे अपना उत्तरीय वस्त्र प्रदान किया |

देवयानी ने कहा महाराज आपने मेरा हाथ पकड़ा पकड़ा है जिससे हमारा पाणिग्रहण हो गया इसलिए अब इसको कोई. और दूसरा ना पकड़ पाए | महाराज ययाति ने कहा तुम ब्राह्मण कन्या हो मैं क्षत्रिय हूं इसलिए हमारा विवाह नहीं हो सकता देवयानी ने कहा- महाराज  मुझे बृहस्पति के पुत्र कच का श्राप है कि कभी भी मेरा विवाह ब्राह्मण कुल में नहीं होगा | इसलिए आप मुझसे पानी ग्रहण कीजिए |

महाराज ययाति ने देवयानी की बात मान ली देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौट कर आई सर्मिष्ठा ने जो कुछ उसके साथ किया था वह सब बता दिया | तो शुक्राचार्य रुष्ट होकर नगर छोड़कर जाने लगे वृषपर्वा ने शुक्राचार्य के चरण पकड़ लिए, शुक्राचार्य ने कहा राजन तुम्हारी पुत्री यदि देवयानी की बात स्वीकार कर ले तो मैं रुक जाऊंगा |

देवयानी ने कहा महाराज मेरा जहां भी विवाह हो वहां शर्मिष्ठा मेरी दासी बनकर चले |  महराज वृषपर्वा ने बात स्वीकार कर ली देवयानी का विवाह महाराज ययाति से हुआ |

जिससे यदु और तुर्वषु नामक दो पुत्र हुए, एक दिन महाराज ययाति ने राजकुमारी शर्मिष्ठा और शर्मिष्ठा ने महाराज ययाति को देखा तो दोनों मोहित हो गए दोनों ने प्रेम विवाह कर लिया जिससे दुहु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए |

देवयानी ने जब शर्मिष्ठा के तीन पुत्रों को देखा तो क्रोधित हो अपने पिता शुक्राचार्य के पास लौट आयी | शुक्राचार्य ने ययाति को श्राप दे दिया, जाओ बुढे़ हो जाओ, महाराज ययाती ने कहा गुरुदेव अभी तो मेरी विषय लालसा पूर्ण नहीं हुई इसीलिए आप मुझे अपने श्राप से मुक्त कर दीजिए क्योंकि इससे आपकी ही पुत्री की हानि हुई है |

शुक्राचार्य ने कहा तुम्हारा जो पुत्र तुम्हें जवानी दे दे उससे तुम अपना बुढ़ापा बदल लो ययाति ने जब अपने पुत्रों से उनके जवानी की मांग की तो उन्होंने सीधा मना कर दिया | जब सबसे छोटे पुत्र पूरु से जवानी मांगी तो, पूरु ने कहा-

को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् |
प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ||

पिता जी, पिता की ही कृपा से पुत्र के शरीर की प्राप्ति होती है, ऐसी अवस्था में पिता के उपकार का बदला कौन चुका सकता है | उत्तम पुत्र तो वह है जो पिता के मन की बात समझ कर उनके बिना कहे ही कर दे | जो कहने पर करें वह मध्यम पुत्र है और जो कहने पर भी ना करें वह अधम पुत्र है |

ऐसा कह पूरु ने अपनी जवानी पिता को दान कर दी ,जवानी को प्राप्त कर महाराज ययाति ने अनेकों वर्षों तक विषयों को भोग भोग ने लगे रहे अंत में उन्हें बैराग हो गया उन्होंने बहुत सुंदर कहा-
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा ना विविक्तासनो भवेत |
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांस मपि कर्षति ||
अपनी माता, बहिन और पुत्री के साथ भी किसी पुरुष को एकांत में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इंद्रियां इतनी बलवान होती है कि बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं | महाराज ययाति ने पूरु को उसकी अपनी जवानी लौटा दी , संपूर्ण राज्य पुरु को सौंप वन में चले गए और भगवान का भजन कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
( पुरुवंश का वर्णन )
महाराज पुरु के वंश में दुष्यंत का जन्म हुआ, महाराज दुष्यंत एक बार शिकार खेलते हुए महर्षि कण्व के आश्रम पहुंचे वहां उन्होंने अत्यंत सुंदर एक युवती को देखा तो उस पर मोहित हो गए |

उससे कहने लगे देवी तुम्हें देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे तुम कोई राजकुमारी हो उस युवती ने कहा महाराज आपका कथन सत्य है मैं देव अप्सरा मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुई हूं ऋषि विश्वामित्र की पुत्री हूं मेरा नाम शकुंतला है | महाराज दुष्यंत ने वन में ही गांधर्व विधि से शकुंतला से विवाह कर लिया और फिर नगर लौट आए |

शकुंतला से कुछ समय बाद एक भरत नाम का पुत्र हुआ यह इतना बलवान था कि बाल्य अवस्था में ही बड़े-बड़े शेरों को पकड़कर उनकी सवारी करता उनके मुंह में हाथ डालकर उनके दांतो को गिना करता था |

शकुंतला जब इस पुत्र को लेकर महाराज दुष्यंत के पास आई तो दुष्यंत इन्हें पहचान नहीं सके उस समय आकाशवाणी हुई महाराज यह तुम्हारी ही पत्नी शकुंतला से उत्पन्न हुआ तुम्हारा ही पुत्र है तुम इसका भरण पोषण करो, दुष्यंत के पश्चात भरत राजा हुए इन्ही भरत के वंश में महाराज रंतिदेव का जन्म हुआ |
( महराज रन्तिदेव का चरित्र )
रंतिदेव अपनी प्रजा से इतना स्नेह करते थे कि एक बार उनके राज्य में अकाल पड़ा तो संपूर्ण धन-धान्य प्रजा के हित में लगा दिया स्वयं अड़तालिस दिनों के भूखे रहे उन्चासवें दिन जब उन्हें कुछ भोजन और जल मिला तो भगवान को भोग लगाकर जैसे ही खाने लगे, उसी समय एक ब्राह्मण अतिथि आ गये।

उन्होंने उस ब्राह्मण अतिथि को वह भोजन कराया थोड़ा कुछ बचा उसे जैसे ही खाने लगे उसी समय एक चांडाल कुत्तों के साथ आ पहुंचा और कहने लगा महाराज मैं और यह मेरे कुत्ते भूंख के कारण मरे जा रहे हैं प्राण निकल रहे हैं महाराज हमें भोजन का दान दो | महाराज रंतिदेव सर्वत्र भगवान का दर्शन करते थे | शुक्ल यजुर्वेद के शोलहवें अध्याय में मंत्र आता है-
नमः स्वाभ्याः स्वपतिभ्यश्चवो नमो नमः |
कुत्ते के रूप में और कुत्ते के स्वामी के रूप में जो परमेश्वर हैं उन्हें मैं प्रणाम करता हूं | महाराज रंतिदेव ने बचा हुआ अन्न जल उसे प्रदान किया ,उसी समय भगवान श्री हरि ब्रह्मा और शंकर के साथ वहां प्रकट हो गए |भगवान ने कहा रंतिदेव वरदान मागो |


न कामयेहं गतिमीश्वरात् परा मष्टर्धियुक्तामपुनर्भवं वा |

आर्तिं प्रपद्येखिल देह भाजा मन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखा ||
रन्तिदेव ने कहा प्रभो मुझे आठों सिद्धियों से युक्त परम गति नहीं चाहिए, ना ही मैं मोक्ष चाहता हूं | मैं तो समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करना चाहता हूं जिससे समस्त प्राणियों के दुख को सहन करूं और समस्त प्राणी सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें |

भगवान श्री हरि ने महाराज रंतिदेव को अपनी निष्काम भक्ति प्रदान की और अंतर्ध्यान हो गए | इन्हीं के वंश मे महाराज प्रतीप के जन्म हुआ ,प्रदीप के देवापि, शांतनु और बाहलाक नामक तीन पुत्र हुए |  देवापि अपना पैतृक राज छोड़कर वन में चले गए और आज भी कलापक ग्राम में तपस्या कर रहे हैं |

कलयुग के अंत में जब चंद्र वंश का नाश हो जाएगा तब सतयुग के आदि में पूनः चंद्र वंश की स्थापना करेंगे | महाराज शांतनु का विवाह गंगा से हुआ जिससे नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्म का जन्म हुआ, इनकी दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म हुआ |

चित्रांगद को चित्रांगद नाम के गंधर्व ने युद्ध में मार डाला विचित्रवीर्य का विवाह काशि-राज की कन्या अंबिका और अंबालिका से हुआ विचित्रवीर्य अपनी दोनों रानियों में इतने आसक्त हो गए कि इन्हें राज्यक्षमा( TB)  रोग हो गया जिससे समय से पहले इनकी मौत हो गई |संतान के ना होने पर माता सत्यवती के कहने पर व्यास जी के द्वारा अंबिका से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ और इनके दासी से विदुर जी का जन्म हुआ |

धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हुआ जिससे दुर्योधन आदि सौ पुत्र और दुःसला नाम की एक कन्या हुई | पांडु की पत्नी कुंती से और माद्री से देवताओं की कृपा से युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए | परीक्षित यह तो हुआ पूर्व के वंश का वर्णन अब मैं तुम्हें यदुवंश का वर्णन सुनाता हूं |

( यदुवंश का वर्णन )
ययाति नंदन महाराज यदु के वंश में सूरसेन का जन्म हुआ | सूरसेन की पत्नी मारिषा से वसुदेव आदि दस पुत्र तथा कुंती आदि पांच कन्याओं का जन्म हुआ | वसुदेव के जन्म के समय स्वतः ही देवता लोग दुंदुभियां बजाने लगे | इसलिए इनका एक नाम आनकदुंदभी हुआ |

वसुदेव की पौरवी, रोहणी,भद्रा,मादिरा, रोचना,इला और देवकी आदि अनेकों पत्नियां थी | जिनमें से रोहणी के गर्भ से बलराम, गद सारण ,दूर्मद, विपुल ,ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए | इनकी दूसरी पत्नी देवकी से कीर्तिमान, सुसेन ,भद्रसेन, रितु, संवर्धन, भद्र, बलराम और भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ |

परीक्षित जब अनेकों असुर राजाओं का वेश धारण कर पृथ्वी में अनेकों प्रकार के अत्याचार करने लगे तो पृथ्वी दुखी होकर भगवान की शरण में गई | उस समय भगवान श्री कृष्ण बलराम जी के साथ मथुरा में अवतीर्ण हुए वहां से गोकुल में चले आए तीन वर्षों तक गोकुल में रहे अनेकों प्रकार की बाल लीलाएं करी गोकुल में जब कई प्रकार के उत्पात होने लगे तो बृजवासी श्री कृष्ण और बलराम को लेकर वृंदावन चले आए |

भगवान श्रीकृष्ण आठ वर्षों तक वृंदावन में निवास किया ,रास किया गोवर्धन लीला की और मथुरा में चले गये मथुरा में कंस का उद्धार किया चौदह वर्ष तक निवास किया और फिर द्वारिकापुरी पहुंच गए , वहां श्री कृष्ण के शोलह हजार एक सौ आठ विवाह हुए | भगवान श्रीकृष्ण ने पृथ्वी का भार हरण किया सौ वर्षों तक द्वारिका में निवास किया और फिर अपने धाम चले गए |

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