Bhagwat Puran Pravachan /11-1

Bhagwat Puran Pravachan 

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
एकादश स्कन्ध,भाग-1
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नारद जी ने कहा वसुदेव जी मैं आपको इस विषय पर इतिहास सुनाता हूं जो विदेहराज निमि और नौ योगेश्वर के मध्य का संवाद है |

( यदु और नव यौगेश्वरों का संवाद )

एक बार  विदेहराज निमि यज्ञ कर रहे थे उस समय उनके यज्ञ में स्वच्छंद रूप से विचरण करने वाले कवि, हरी, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र,  द्रूमिल और करभाजन नामक नौ योगेश्वर पधारे | निमि ने उनका स्वागत सत्कार किया और उनसे प्रश्न किया--- कि मनुष्य के आत्यान्तिक कल्याण का परम साधन क्या है ?

  भागवत धर्म किसे कहते हैं ?  मुझे आप भागवत धर्म का उपदेश दीजिए ?  जिसका पालन करने से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं , और भक्तों को अपने आप तक का दान दे देते हैं | कवि नाम के योगेश्वर ने कहा--

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये |
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हितान् |

भगवान ने अपनी प्राप्ति का जो सरलतम उपाय बताया है, उसे ही भागवत धर्म कहते हैं | इस भागवत धर्म का पालन करने वाले साधक को भगवान नारायण की निष्काम भक्ति करनी चाहिए , और साधना में कोई त्रुटि भी हो जाए तो उस साधक का पतन नहीं होता वह भागवत धर्म है।

कायेन वाचा मनसैन्द्रियैर्वा
    बुद्ध्यात्मना  वानुसृतस्वभावात् |
करोति यद्यत सकलं परस्मै
     नारायणायेति समर्पयेत्तत् |

शरीर, मन ,वाणी, इंद्रिय तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य अपने स्वभाव से जो भी कर्म करें वह भगवान के चरणों में समर्पित कर दे, यही है निष्काम भक्ति और यही भागवत धर्म भी है |

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विदेहराज निमि ने फिर प्रश्न किया कि भक्तों के क्या लक्षण हैं ? कैसा स्वभाव व्यवहार और आचरण होना चाहिए ? अब दूसरे योगेश्वर हरि नाम वाले कहते हैं--

सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः |
भूतानि भगवत्यात्यनेष भागवतोत्तमः|

राजन जो सभी के प्रति भगवत भाव रखता है सभी में समान भाव रखता है , वह भगवान का उत्तम भक्त है | जो ईश्वर से प्रेम करता है और भगवान के भक्तों में मैत्री भाव रखता है , दुखी अज्ञानियों पर कृपा करते हैं और भगवान से द्वेष करने वालों से उपेक्षा करता हो तो वह मध्यम कोटि का भक्त है |

और  तीसरा जो मूर्तियों की पूजा तो करता है परंतु भगवान के जो भक्त हैं संत आदि हैं तो उनकी सेवा नहीं करता वह साधारण कोटि का भक्त है |

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अब फिर से पुनः विदेहराजनिमि प्रश्न करते हैं- कि मुनिवर जो यह माया है तो यह बड़े-बड़े माया वीरों को भी मोहित कर लेती है तो इसका स्वरूप क्या है ? अंतरिक्ष नाम के योगेश्वर कहते हैं--- राजन परमात्मा जिनके द्वारा पंचमहाभूतो से देवता मनुष्य आदि कि सृष्टि की रचना करता है , जो इस जगत के आदि कारण बनते हैं, उसे ही माया कहते हैं |

विदेहराज निमी कहते हैं कि- भगवान को पार पाना अत्यंत कठिन है परन्तु जो इससे पार पाना चाहता है तो उसे क्या करना चाहिए ? अब चौथे प्रबुद्ध नाम के योगेश्वर कहते हैं--

कर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च |
पश्येत् पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् |

राजन संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए दुख की निवृत्ति के लिए अनेकों कर्म करता है, ऐसे मनुष्य जो मोह माया से पार पाना चाहते हैं , उन्हे विचार करना चाहिये कि उनके कर्म का फल किस तरह विपरीत होता है | सुख के स्थान पर दुख की प्राप्ति होती है और दुख की निवृत्ति के स्थान पर दिन-ब-दिन दुख बढ़ता जाता है।

नारायण परो मायामञ्जस्तरति दुस्तराम् |

इसलिए जो माया से पार होना चाहते हैं वे भगवान नारायण के परायण हो जाए सब कुछ भगवान के चरणों में समर्पित कर दें |

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विदेहराजनिमि पुनः प्रश्न करते हैं कि- परब्रह्म परमात्मा जिन्हें नारायण कहते हैं, उनका स्वरूप कैसा है ? पांचवे पिप्पलायन नाम के योगेश्वर कहते हैं--- जिनसे इस जगत की सृष्टि की उत्पत्ति पालन और संहार होता है, जो इस जगत के अभिन्न कारण हैं, जिनकी सत्ता से सत्तामान होकर शरीर इंद्रिय प्राण और अंतःकरण अपना अपना कार्य करते हैं | वह परम वस्तु को नारायण कहते हैं |

विदेहराजनिमि पुनः प्रश्न करते हैं- कर्म योग किसे कहते हैं ? जिसका पालन करने से मनुष्य का कर्तित्वाभिमान नष्ट हो जाता है | छठे अभिर्होत्र नाम के योगेश्वर कहते हैं--

कर्माकर्म विकर्मेति वेद वादो न लौकिक |

राजन कर्म तो तीन प्रकार के होते हैं- कर्म ,अकर्म और विकर्म ! शास्त्र विहित कर्म को कर्म कहते हैं और शास्त्रों में जिसका विरोध किया गया हो उसे अकर्म कहते हैं और विहित कर्म के उल्लंघन को विकर्म कहते हैं।

यः शास्त्र विधिमुत्सृज्य वर्तते काम कारतः |
न स सिद्धी नमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ||
तस्मातक्षात्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य व्यवस्थितौ |
ज्ञात्वा शास्त्र विधानोक्ता कर्मकर्तु मिहार्हसि ||

जो शास्त्र विधि का उल्लंघन करता है और मनमाना आचरण करता है तो न ही उसे सिद्धि मिलती है , ना ही सुख मिलता है और ना ही परम गति की प्राप्ति होती है | इसलिए क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए इस विषय में शास्त्र ही प्रमाण हैं |

विदेह राजनिमि अवतार संबंधी प्रश्न करते हैं- तो सातवे योगेश्वर दुर्मिल कहते हैं भगवान के अवतारों की कथा |

पुनः विदेहराजनिमि प्रश्न करते हैं कि- जो मनुष्य प्रायः भजन-कीर्तन नहीं करते उनकी क्या गति होती है, आठवे चमश नाम के योगेश्वर कहते हैं--

रजसाघोर संकल्पा कामुका अहिमन्यवः |
दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ||

राजन रजोगुण के कारण ऐसे लोगों के बड़े बड़े संकल्प होते हैं। अनेकों कामनाएं होती है जब उनकी कामनाएं पूर्ण नहीं होती तो उन्हें क्रोध आता है वह अत्यंत परिश्रम करके ग्रह पुत्र मित्र और धन के लिए अनेकों प्रयास करते हैं, परंतु अंत में उन सब को ना चाहते हुए भी उन्हें यह शरीर छोड़ कर जाना पड़ता है और ऐसे लोग ना चाहने पर भी विवश होकर नरक में ही जाते हैं |

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विदेह राजनिमी पुनः प्रश्न करते हैं -सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग में भगवान की किस प्रकार से उपासना की जाती है ? नौवें करभाजन नाम के योगेश्वर कहते हैं-- राजन सतयुग में प्राणी ध्यान के द्वारा , त्रेता में यज्ञों के द्वारा , द्वापर में मूर्ति पूजा के द्वारा और कलयुग में मात्र संकीर्तन के द्वारा उपासना करते हैं ! तो योगेश्वर ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया तो विदेह राजनिमि ने पूजन किया और योगेश्वर सभी के मध्य से अंतर्ध्यान हो गए |

वसुदेव जी आपने जो श्रीकृष्ण को अपना पुत्र मान रखा है, तो वह मात्र आपके ही पुत्र नहीं है अपितु सर्व आत्मा अविनाशी ब्रम्ह हैं | देवर्षि नारद ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया तो उनका पुत्र मोह नष्ट हो गया और वह ब्रह्म भाव में प्रविष्ट हो गए |

श्री शुकदेव जी कहते हैं-- परीक्षित एक बार ब्रह्मा आदि सभी देवता द्वारका में पधारे भगवान श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम किया और कहा प्रभु आपको एक सौ पच्चीस वर्ष व्यतीत हो गए, आप का अवतार पृथ्वी का भार उतारने के लिए हुआ था सो आपने वह काम पूर्ण कर दिया अब आपकी इच्छा हो तो आप अपने स्वधाम जाने की तैयारी करें |

भगवान ने कहा देवताओं पृथ्वी में अभी यदुवंश रूपी भार विद्यमान है इसका अन्त हो जाने पर मै अवश्य पधारुंगा भगवान के इस प्रकार कहने पर देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और अपने धाम को प्रस्थान किया |

यहां जब अनेकों प्रकार के द्वारका में अपशकुन होने लगे तो यदुवंश के सभी बूढ़े वृद्धजन सभी श्री कृष्ण की सभा में आए, श्री कृष्ण ने कहा वृद्धजनों आपको तो यह ज्ञात ही है कि इस कुल को ब्राह्मणों का श्राप लगा है जो कि टाला नहीं जा सकता इसलिए जो प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं तो उन्हें प्रभास क्षेत्र चलना चाहिए क्योंकि प्रभास क्षेत्र की बड़ी महिमा है दक्ष प्रजापति ने जब चंद्रमा को श्राप दिया था तो चंद्रमा राज्यक्ष्मा रोग (टीवी) से ग्रसित हो गया था जब उसने प्रभास में स्नान किया तो वह ठीक हो गया |भगवान के इस प्रकार कहने पर यदुवंशी प्रभास क्षेत्र जाने की तैयारी करने लगे |

एकांत में श्रीकृष्ण बैठे हुए थे तभी उनके परम मित्र उद्धव जी आते हैं और अपने सर को प्रभु के चरणों में रख देते हैं , भगवान ने अपना कर कमल उद्धव जी के सर पर रख दिया |

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