Bhagwat Katha in Hindi
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा
(उद्धव को भगवान श्री कृष्ण के द्वारा उपदेश)
उद्धव जी एकांत में भगवान श्री कृष्ण के पास आए उन्हें प्रणाम किया और कहा-
नाहं तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्ध मपि केशव |
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि |
प्रभु मैं आपके चरण कमलों को छोड़कर एक क्षण भी नहीं रह सकता इसलिए आप मुझे अपने धाम ले चलिए, श्री कृष्ण ने कहा उद्धव जी जिस समय मैं इस मृत्युलोक को छोडूंगा उसी समय से लोक का मंगल नष्ट हो जाएगा और आज से सातवें दिन यह समुद्र द्वारका को डूबा देगी।एकादश स्कन्ध,भाग-2
कलयुगी प्राणी की अधर्म में रुचि हो जाएगी उस समय तुम स्वजन संबंधी की ममता को त्याग कर मन में मेरा ध्यान लगाकर स्वच्छंद रूप से आप इस पृथ्वी पर भ्रमण करना |
उद्धव जी कहते हैं प्रभु आपके जाने के बाद मे मै किससे ज्ञान प्राप्त करूंगा, किसका आचरण लूंगा ? श्री कृष्ण कहते हैं-- उद्धव मनुष्य की आत्मा ही उसके हित और अहित का उपदेशक है | इस विषय में मैं तुम्हें एक इतिहास सुनाता हूं जो अवधूत दत्तात्रेय और महाराज यदु के मध्य का संवाद है !
एक बार महाराज यदु स्वच्छंद रूप से विचरण करते हुए अवधूत दत्तात्रेय जी को देखा तो उनको प्रणाम कर प्रश्न करने लगे कि प्रभु आप सर्वथा भौतिक पदार्थों से रहित हैं तथा परम शांत हैं | तो यह कैसे संभव है ?
Bhagwat Katha in Hindi
पृथ्वी, वायु,आकाश, जल, अग्नि, चंद्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, भंवरा, हाथी, शहद निकालने वाला, हिरण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बांण बनाने वाला, सांप, मकड़ी, और भ्रगीं कीड़ा |
पृथ्वी- को गुरु बना कर मैंने क्षमा की शिक्षा प्राप्त की है, पृथ्वी में लोग मल मूत्र का त्याग करते हैं, बारंबार थूकते हैं लेकिन पृथ्वी देवी किसी को दंड नहीं देती सभी को क्षमा कर देती है | इसीलिए पृथ्वी का एक नाम क्षमा देवी भी है।वायु- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा प्राप्त की है कि वायु सुगंध का स्पर्श करता है तो सर्वत्र सुगंध फैला देता है और दुर्गंध का स्पर्श करता है तो सर्वत्र दुर्गन्ध फैला देता है इसी प्रकार साधकों को भी गुणों में लिप्त नहीं होना चाहिए।
आकाश- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा प्राप्त की है आकाश घट के कारण घटाकास हो जाता है और मठ के कारण मठाकास हो जाता है लेकिन वास्तव में वह अखंड है , ऐसे ही आत्माएं अनेकों शरीरों को ग्रहण करती है परंतु वह भी अजर अमर है, शरीर का नाश होता है परंतु आत्मा का नाश नहीं होता।
जल- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा प्राप्त की है जैसे जल स्वभाव से ही स्निग्ध मधुर और पवित्र होता है, उसी प्रकार साधक को भी शुद्ध पवित्र और उच्च स्वाभाव का होना चाहिए।
अग्नि- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की अग्नि अच्छे-बुरे सभी को जलाकर भस्म कर देती है , उसी प्रकार साधकों को भी विषयों का भोग करते हुए उसमे लिप्त नहीं होना चाहिए।
चंद्रमा- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की चंद्रमा की कलाए बढ़ती और घटती हैं लेकिन चंद्रमा वैसा ही रहता है , उसी प्रकार यह आत्मा है आत्मा तो वैसे ही रहती है यह शरीर बढ़ता घटता और खत्म होता है , आत्मा तो अजर अमर है।
कबूतर- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की एक कबूतर था वह अपने बच्चों के लिए दाना लेने बाहर गया हुआ था उसी बीच कुछ शिकारी वहां आ गए और उन्होंने जाल बिछा दिया और उसमें दाने डाल दिए कबूतर के बच्चे उसमें आकर बैठ गए लालच बस , तभी वह कबूतर भी आ गया वह अपने बच्चों को इस हालत में देखता है तो स्वयं भी मोह के कारण उस शिकारी के जाल में स्वतः चला जाता है , तो मैंने यहीं से शिक्षा प्राप्त की हमें कहीं भी अत्याधिक ममता नहीं करनी चाहिए।
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अब रात्रि में कुछ लुटेरे डाकू पास के गांव में डाका डालने के लिए निकले और वह भी उसी जंगल से निकलते हैं उन्होंने अपना भोजन उसी पेड़ के डाल में टांग दिया जहां मलूक दास जी बैठे थे और वहां से डाका डालने चले गए | मलूक जी कहते हैं भोजन तो आ गया पर राम दाता है तो वही खिलाएंगे मैं इसे अपने से नहीं खाऊंगा।
कुछ समय बाद वह डाकू धन चुरा कर आ गए उन्होंने कहा भैया बटवारा तो होता रहेगा पहले भोजन कर लेते हैं सबने खाना निकाला और खाने लगे, सरदार ने उपर देखा तो मलूक बाबा दिख गए सरदार ने कहा रुको अभी कोई भोजन मत करना इस बाबा ने हमारे भोजन में विष मिला दिया होगा क्योंकि हमारे पास इतना धन है इसलिए यह हमसे लड़ तो सकता नहीं इसलिए छल से मारना चाहता है।
सरदार ने कहा इसके हाथ पैर पकड़ लो और ऐसा करके सारा भोजन मलूक जी को ही खिला दिया। तो यहां से मैंने शिक्षा प्राप्त की है कि सब को खिलाने वाला रक्षा करने वाला परमपिता परमात्मा है|
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भौरें- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की भौंरा पुष्पों में बैठकर उसका सार सार ग्रहण करता है , उसी प्रकार हमें शास्त्रों के सार सार को ही ग्रहण करना है।
पिगंला- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की विदेह राज की नगरी मिथिला में एक पिंगला नाम की वेश्या रहती थी वह सुबह से सज धज कर अपने द्वार में बैठ जाया करती थी और लोगों की प्रतीक्षा करती एक दिन सुबह से बैठे-बैठे रात्रि हो गई उसके पास कोई नहीं आया तो उसे वैराग्य हो गया।
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् |
यथा संदिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला |
आशा परम दुख देने वाली है, आशा के त्याग से परम सुख की प्राप्ति होती है आशा का त्याग करके पिंगला सुख पूर्वक सो गई।कुरर पक्षी- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की एक कुरर पक्षी अपनी चोच में मांस का टुकड़ा लेकर जा रहा था दूसरे चीलों ने उसे देखा तो वे सब उस पर झपट गए उसने सोचा अब मैं नहीं बचुगां भय के कारण उसने चोच से मांस का टुकड़ा गिरा दिया सारे चील उसे छोड़कर उस मांस के टुकड़े की ओर भाग गए | राजन जिस वस्तु पर बहुत लोग अपना हक जमा रहे हो उसे छोड़ देना चाहिए त्याग से ही शांति की प्राप्ति होती है।
बालकों- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की बालक को ना अपमान की चिंता ना सम्मान की होती है उसी प्रकार साधक को भी सम्मान और अपमान का त्याग करके स्वच्छंद रूप से विचरण करना चाहिए।
कुमारी कन्या- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की एक कुंवारी कन्या थी उसके घर कोई शादी का रिश्ता लेकर आया , माता-पिता घर नहीं थे वह कन्या अतिथियों के स्वागत के लिए धान कूटने लगी उस समय उसके हाथ की चूड़ियां बजने लगी उसने सोचा कि चूड़ियों की आवाज सुन अतिथियों को मालूम हो जाएगा कि इनके घर खाने को कुछ नहीं है, उसने अपने हाथ की चूड़ियां निकाली जब एक एक चूड़ियां दोनों हाथ में बची तो आवाज अपने आप अवाज बंद हो गई , उसी प्रकार साधक को भी अकेले ही रहना चाहिए, क्योंकि अधिक कोई होगा तो वाद विवाद होगा |
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सर्प- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की जैसे सांप रहने के लिए स्थान नहीं बनाता दूसरे के स्थान में रहता है ऐसे ही साधकों को अधिक आश्रम आदि के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए जहां रहने को मिल जाए वही रहकर भगवान का भजन करें।
मकड़ी- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की मकड़ी अपने लार से जाल बनाती है उस में रहती है फिर मन भर जाने पर उसे निगल जाती है ! उसी प्रकार परम ब्रह्म परमात्मा इस जगत को उत्पन्न करते हैं जीव रूप से उसमें विहार करते हैं और अंत में उसे अपने में लीन कर लेते हैं।
भ्रंगी क्रीडा- को गुरु बना कर मैंने शिक्षा ग्रहण की भ्रंगी कीड़ा जिस प्रकार कीड़ों को पकड़कर अपने बिल पर बंद कर देता है और उस छेद में बाहर से वह भौ भौ का स्वर करता है , कुछ समय बाद जब वह अंदर वाले कीड़े को निकालता है तो वह भी वैसा ही स्वर करने लगता है ! इसी प्रकार साधक को भी ऐसा भजन संकीर्तन करना चाहिए कि वह तद्रूप हो जाए।
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अवधूत दत्तात्रेय जी ने इस प्रकार का उपदेश दिया महाराज यदु की आसक्ति नष्ट हो गई और उन्होंने संसार का त्याग कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
इसके पश्चात भगवान श्री कृष्ण भोगों की आसारता का वर्णन करते हैं बद्ध मुक्त भक्तजनों के लक्षण का वर्णन करते हुए कहते हैं-- उद्धव जी जब यह शरीर अपने आप को कर्ता मान लेता है वह बंध जाता है ! आदि शंकराचार्य गुण रत्नमाला प्रश्नोत्तरी में कहते हैं।
बद्धो हि कोयो विषया नुरागी
को वा विमुक्तिः विषये विरक्तिः |
जो विषयों में अनुरक्त है वह बंधा हुआ है और जो विषयों में विरक्त है वह मुक्त है |सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।
न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म एव च |
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ||
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः |
यथा वरुन्द्धे सत्सङ्गः सर्वसङ्गापहो हि माम् ||
उद्धव योग, सांख्य, धर्म, स्वाध्याय, तपस्या, त्याग, यज्ञ, दक्षिणा, व्रत, नियम, और यम से भी मैं उतना प्रसन्न नहीं होता जितना सत्संग से होता हूं सत्संग समस्त आशक्ति को नष्ट कर देता है | उद्धव जी भगवान श्री कृष्ण से प्रश्न करते हैं--
विदन्ति मर्त्याः प्रायेण विषयान् पदमापदाम् |
तथापि भुञ्जते कृष्ण तत् कथं श्वखराजवत् |
प्रभु प्रायः मनुष्य यह जानते हैं विषय आशक्तियों के घर हैं तथापि वे उन्हें पशुओं के समान सहकर उन्हें भोंगते हैं इसका क्या कारण है ?Bhagwat Katha in Hindi
गुणेष्वाविशते चेतो गुणाश्चेतांसि च प्रभो |
कथमन्योन्यसत्यागो मुमुक्षोरतितितीर्षोः |
पिताजी जो यह चित्त है विषयों में घुसा रहता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाता है, ऐसी स्थिति में जो मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं वह इन दोनों को एक दूसरे से अलग कैसे कर सकता है ? तब ब्रह्माजी इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए तो उन्होंने भगवान का ध्यान किया इसी समय भगवान हंस अवतार धारण कर प्रकट हो गए।
बोलिए हंस भगवान की जय।
सनकादि मुनियों ने हंस भगवान को प्रणाम किया और उनसे प्रश्न किया ( को भवान ) आप कौन हैं ! हंस भगवान ने कहा यदि आप आत्मा के विषय में यह प्रश्न कर रहे हैं तो आत्मा नानात्व से सर्वथा रहित है | जो आत्मा आपके शरीर में है वही आत्मा मेरे शरीर में भी है और यदि आप शरीर के विषय में प्रश्न कर रहे हैं तो देवता मनुष्य पशु पक्षी सभी का शरीर पंच भूतात्मा का होने से अभिन्न है|ऐसी स्थिति में आप कौन हैं आपका यह प्रस्न व्यर्थ है और मुनीश्वरों फिर भी यदि आप जानना चाहते हैं कि मैं कौन हूं तो मन वाणी और अन्य इंद्रियों से जो कुछ भी ग्रहण किया जाता है | वह सब मै ही हूं | मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है , मुनीश्वरों जब यह चित्त विषयों का चिंतन करता है तो विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं , लेकिन आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई संबंध नहीं है |
इसलिए बारंबार विषयों का सेवन करने से जो चित्त विषयों में आशक्त हो गया था और विषय चित्त में प्रविष्ट हो गए थे , उन दोनों का मुझ परमात्मा का साक्षात्कार कर त्याग कर देना चाहिए | मुनीश्वरों जब तक पुरुषों की विभिन्न पदार्थों से संपन्न बुद्धि होती है तब तक उसकी निर्वृत्ति नहीं होती इसलिए पदार्थों के प्रति ममता का त्याग कर देना चाहिए |
हंस भगवान ने जब इस प्रकार उपदेश दिया तो सनकादि मुनीश्वरों के सन्देह की निवृत्ति हो गई | उन्होंने हंस भगवान का पूजन किया और वहां से अन्तर्ध्यान हो गये |
बोलिए हंस भगवान की जय।
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उद्धव अवंती पुरी में एक ब्राह्मण रहता था उसने खेती व्यापार आदि से बहुत सा धन एकत्रित किया वह बड़ा क्रोधी और कंजूस था धन के कारण उसके सगे संबंधी उसके आगे पीछे लगे रहते थे उस धन से उसने न ही भोग भोगे और ना ही धर्म कर्म किया काल के प्रभाव से उसका धन नष्ट हो गया धन के ना रहने पर परिवार वाले उसका सम्मान ना करते उसको फटकारते रहते तब उसे वैराग्य हो गया।
वह मन ही मन विचार करने लगा हाय देखो कितने दुख की बात है मैंने इतने दिनों तक धन के लिए व्यर्थ ही अपने को सताया व्यर्थ ही परिश्रम किया वह धन ना तो धर्म में लगा ना सुख भोग भोगने के लिए मैंने प्रमोद में अपनी आयु धन और ब्रम्हणत्व को खो दिया |
विवेकी जन जिन साधनो से मोक्ष पद को प्राप्त कर लेते हैं
उन्हीं को मैंने धन इकट्ठा करने में लगा दिया , परंतु अब मेरी जो आयु शेष बची है उसमें मे ऐसा साधन करूंगा कि भगवान की प्राप्ति कर लूं ऐसा विचार कर उसके मेरे पन की गांठ खुल गई, वह प्रतिदिन भिक्षा लेने नगर में जाता नगरवासू उसे बहुत सताते कोई उसका दंड कमंडल छीन लेता कोई उस पर थूक देता परंतु वह किसी को कुछ नहीं कहता।उसने कहा सुख दुख का कारण मनुष्य, देवता, शरीर, ग्रह, कर्म, या काल नहीं है मन ही इसका प्रमुख कारण है मन ही सारे संसार को चला रहा है यदि मनुष्य को सुख दुख का कारण माने तो आत्मा का इसके साथ क्या संबंध क्योंकि सुख दुख देने वाला भी मिट्टी का ही शरीर है और उसे भोगने वाले का भी मिट्टी का ही शरीर है।
इसी स्थिति में कभी भोजन करते हुए अपने दांतो से जीभ कट जाए तो किस पर क्रोध करें किसे दंड दे और यदि देवता को दुख का कारण माने तो भी उसमें आत्मा की कोई हानि नहीं क्योंकि दुख देने वाले शरीर में भी इंद्रियाभिमान देवता हैं इस स्थिति में-
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कभी अपने शरीर को किसी एक अंग से दूसरे अंग को चोट लग जाए तो किस पर विरोध करें किसे दंड दे |
ऐसे विचार करने से उसका सारा क्लैश मिटता गया कष्टों ने उसे बहुत सताया फिर भी वह अपने धर्म में अटल रहा अंत में उसने भगवान को प्राप्त कर लिया | भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से सांख्य योग गुणों की व्रत्तियो का वर्णन करते हैं भगवान श्री कृष्ण ने जब इस प्रकार का उपदेश दिया उद्धव जी ने कहा।प्रभु आपकी कृपा से मेरा मोह और अज्ञानता रूपी अंधकार नष्ट हो गया भगवान श्री कृष्ण ने कहा उद्धव अब तुम बद्रिका आश्रम चले जाओ उद्धव जी ने श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम किया उनकी परिक्रमा की और उनकी पादुकाओ को अपने सिर पर धारण कर बद्रिका आश्रम की यात्रा की |
यहां सभी यदुवंशि प्रभास क्षेत्र आए वहां उन्होंने स्नान किया शांति पाठ किया मदिरा का पान किया जिससे उनकी बुद्धि बिगड़ गई वे आपस में लड़ने लगे बलराम जी ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया जब वे नहीं समझे बलराम जी समुद्र तट में आ गए वहां भगवान का ध्यान कर अपने धाम चले गए |
यदुवंशी ऐरका नाम की घास के द्वारा एक दूसरे पर प्रहार करने लगे जिससे सभी का प्राणांत हो गया यदुवंशियों के वध को देख भगवान श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे चतुर्भुज रूप धारण कर धरती पर बैठ गये श्री कृष्ण के लाल चरणों को जरा नाम के ब्याध ने देखा उसे म्रग की आंख समझा दूर से ही उसने बाण चलाया जो आकर श्रीकृष्ण को लगा जरा ने जब पास आकर देखा रोने लगा पछताने लगा।
श्री कृष्ण ने कहा तुम डरो मत भयभीत मत होऔ यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है तुम स्वर्ग चले जाओ जरा नाम का व्याध श्री कृष्ण की परिक्रमा कर विमान में बैठ स्वर्ग में चला गया यहां भगवान श्री कृष्ण का सारथी गरुण श्री कृष्ण के पास आया उनकी यह दशा देख दुखी हो गया श्री कृष्ण ने कहा गरुड़ तुम द्वारका चले जाओ वहां द्वारका वासियों से यदुवंश का नाश और भैया बलराम तथा मेरे स्वधाय गमन का समाचार कहना और उनसे कहना आप सभी अर्जुन के साथ इंद्रप्रस्थ चले जाओ क्योंकि
मेरे ना रहने पर समुद्र द्वारकापुरी को डुबो देगा |
गरुड़ देव ने श्री कृष्ण को प्रणाम कर द्वारका की यात्रा की ब्रह्मा आदि अनेकों देवता अपने अपने विमानों में चढ़ आकाश मार्ग से भगवान श्री कृष्ण के स्वाधाम गमन के लीला का दर्शन करने आए भगवान श्री कृष्ण ने आख खोल कर एक बार सब को देखा और फिर नेत्र बंद कर लिए |उसी समय जोर का प्रकाश हुआ और भगवान श्री कृष्ण एक रूप में गोलोक चले गए और दूसरे रूप में भागवत जी में समाहित हो गए इसलिए यह श्रीमद् भागवत प्रत्यक्ष श्री कृष्ण का स्वरूप है।
बोलिए श्री कृष्ण चंद्र भगवान की |
गरुण देव ने जब यदुवंश का नाश और श्री कृष्ण बलराम के स्वाधाम गमन की बात द्वारका वासियों से कहीं सुनते ही देवकी रोहिणी और वसुदेव जी ने अपने शरीर का त्याग कर दिया अनेकों स्त्रियां सती हो गई अर्जुन ने सभी का पिंड दान किया श्राद्ध किया और बचे हुए स्त्री बच्चे और बूढ़े को लेकर इंद्रप्रस्थ आ गए।Bhagwat Katha in Hindi
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