अश्वत्थस्तोत्रम् - ashvtthama stotra lyrics

 अश्वत्थस्तोत्रम्

अश्वत्थस्तोत्रम् - ashvtthama stotra lyrics

श्रीनारद उवाच 

अनायासेन लोकोऽयं सर्वान् कामानवाप्नुयात्। 

सर्वदेवात्मकं चैकं तन्मे ब्रूहि पितामह॥ १॥

ब्रह्मोवाच 

शृणु देव मुनेऽश्वत्थं शुद्धं सर्वात्मकं तरुम्। 

यत्प्रदक्षिणतो लोकः सर्वान् कामान् समश्नुते॥ २ ॥ 

अश्वत्थाद्दक्षिणे रुद्रः पश्चिमे विष्णुरास्थितः। 

ब्रह्मा चोत्तरदेशस्थः पूर्वे विन्द्रादिदेवताः॥ ३ ॥ 

स्कन्धोपस्कन्धपत्रेषु गोविप्रमुनयस्तथा। 

मूलं वेदाः पयो यज्ञाः संस्थिता मुनिपुङ्गव॥ ४ ॥ 

पूर्वादिदिक्षु संयाता नदीनदसरोऽब्धयः। 

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन ह्यश्वत्थं संश्रयेद्बुधः॥ ५ ॥

 त्वं क्षीर्यफलकश्चैव शीतलश्च वनस्पते। 

त्वामाराध्य नरो विन्द्यादैहिकामुष्मिकं फलम्॥ ६॥ 

चलद्दलाय वृक्षाय सर्वदाश्रितविष्णवे। 

बोधिसत्त्वाय देवाय ह्यश्वत्थाय नमो नमः॥ ७॥ 

अश्वत्थ यस्मात् त्वयि वृक्षराज नारायणस्तिष्ठति सर्वकाले। 

अतः श्रुतस्त्वं सततं तरूणां धन्योऽसि चारिष्टविनाशकोऽसि॥ ८॥ 

क्षीरदस्त्वं च येनेह येन श्रीस्त्वां निषेवते। 

सत्येन तेन वृक्षेन्द्र मामपि श्रीनिषेवताम्॥९॥ 

एकादशात्मरुद्रोऽसि वसुनाथशिरोमणिः। 

नारायणोऽसि देवानां वृक्षराजोऽसि पिप्पल॥१०॥ 

अग्निगर्भः शमीगर्भो देवगर्भः प्रजापतिः। 

हिरण्यगर्भो भूगर्भो यज्ञगर्भो नमोऽस्तु ते॥११॥

आयर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च। 

ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते॥१२॥ 

सततं वरुणो रक्षेत् त्वामारादृष्टिराश्रयेत्। 

परितस्त्वां निषेवन्तां तृणानि सुखमस्तु ते॥१३॥ 

अक्षिस्पन्दं भुजस्पन्दं दुःस्वप्नं दुर्विचिन्तनम्। 

शत्रूणां च समुत्थान ह्यश्वत्थ शमय प्रभो॥१४॥ 

अश्वत्थाय वरेण्याय सर्वैश्वर्यप्रदायिने। 

नमो दुःस्वप्ननाशाय सुस्वप्नफलदायिने॥१५॥ 

मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे। 

अग्रतः शिवरूपाय वृक्षराजाय ते नमः॥१६॥ 

यं दृष्ट्वा मुच्यते रोगैः स्पृष्ट्वा पापैः प्रमुच्यते। 

यदाश्रयाच्चिरञ्जीवी तमश्वत्थं नमाम्यहम्॥१७॥ 

अश्वत्थ सुमहाभाग सुभग प्रियदर्शन। 

इष्टकामांश्च मे देहि शत्रुभ्यस्तु पराभवम्॥१८॥ 

आयुः प्रजां धनं धान्यं सौभाग्यं सर्वसम्पदम्। 

देहि देव महावृक्ष त्वामहं शरणं गतः॥१९॥ 

ऋग्यजुःसाममन्त्रात्मा सर्वरूपी परात्परः। 

अश्वत्थो वेदमूलोऽसावृषिभिः प्रोच्यते सदा॥२०॥ 

ब्रह्महा गुरुहा चैव दरिद्रो व्याधिपीडितः। 

आवृत्य लक्षसंख्यं तत् स्तोत्रमेतत् सुखी भवेत्॥२१॥ 

ब्रह्मचारी हविष्याशी त्वधःशायी जितेन्द्रियः। 

पापोपहतचित्तोऽपि व्रतमेतत् समाचरेत्॥२२॥ 

एकहस्तं द्विहस्तं वा कुर्याद्गोमयलेपनम्। 

अर्चेत् पुरुषसूक्तेन प्रणवेन विशेषतः॥२३॥ 

मौनी प्रदक्षिणं कुर्यात् प्रागुक्तफलभाग्भवेत्। 

विष्णोर्नामसहस्रेण ह्यच्युतस्यापि कीर्तनात्॥२४॥

पदे पदान्तरं गत्वा करचेष्टाविवर्जितः। 

वाचा स्तोत्रं मनो ध्याने चतुरङ्गं प्रदक्षिणम्॥२५॥ 

अश्वत्थः स्थापितो येन तत्कुलं स्थापितं ततः। 

धनायुषां समृद्धिस्तु नरकात् तारयेत् पितृन्॥२६॥ 

अश्वत्थमूलमाश्रित्य शाकान्नोदकदानतः। 

एकस्मिन् भोजिते विप्रे कोटिब्राह्मणभोजनम्॥२७॥ 

अश्वत्थमूलमाश्रित्य जपहोमसुरार्चनात्। 

अक्षयं फलमाप्नोति ब्रह्मणो वचनं यथा॥२८॥ 

एवमाश्वासितोऽश्वत्थः सदाश्वासाय कल्पते। 

यज्ञार्थं छेदितेऽश्वत्थे ह्यक्षयं स्वर्गमाप्नुयात्॥२९॥ 

छिन्नो येन वृथाऽश्वत्थश्छेदिताः पितृदेवताः। 

अश्वत्थः पूजितो यत्र पूजिताः सर्वदेवताः॥३०॥

॥ ब्रह्मनारदसंवादे अश्वत्थस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥


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