bhagwat katha pravachan hindi
[ अथ दशमोऽध्यायः ]
लोकिक तथा पार लोकिक भोगों की असारता का निरुपण- श्रीकृष्ण भगवान बोले-उद्धव संसार के विषयादि भोग असार है तथा पुण्यों से कमाए हुए स्वर्गादिक के भोग भी असार ही हैं क्योंकि पुण्य समाप्त होने पर वे स्वत: समाप्त हो जाते है।
इति
दशमोऽध्यायः
[ अथ एकादशोऽध्यायः ]
बद्ध मुक्त और भक्तों के लक्षण-भगवान बोले! उद्धव संसार में तीन प्रकार के जीव है बद्ध मुक्त मुमुक्षु बद्व वे है जो संसार मे अपने उदर पोषण के लिए दिन भर भटकते रहने के अलावा अन्य कुछ नहीं जानते दूसरे मुक्त जीव भगवान की भक्ति के द्वारा संसार से मुक्त हो बैकुण्ठ में निवास करते हैं।-
तीसरे संसार में रहते हुए गृहस्थादिक समस्त धर्मों
का पालन करते हुए भगवान की भक्ति में लीन रहते है दुख-सुख में समरूप मान अपमान में
समान भाव ही भक्तो के लक्षण है।
इति
एकादशोऽध्यायः
[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]
सत्संग की महिमा कर्म तथा कर्म त्याग की विधि-श्रीकृष्ण बोले उद्धव! संसार में सत्संग के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है ध्रुव प्रहलाद आदि सत्संग के द्वारा ही मुझे प्राप्त हुए है।
मनुष्य भगवान की दी हुई क्रिया शक्ति से समस्त कर्म करता है और उसे अपनी शक्ति से किया हुआ मान लेता है यही बन्धन का कारण है शास्त्र विहित कर्म भगवान के लिए करें तथा उसे भगवान को ही समर्पित कर दें पुण्य कार्यों में अपने कर्ता पन के अभिमान का त्याग कर दें निष्काम भाव से भगवान के मुखोल्लास के लिए करें।
इति
द्वादशोऽध्यायः
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[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]
हंस रूप से सनकादिकों को दिए हए उपदेश का वर्णन-भगवान बोले उद्धव! प्रकृति के तीन गुण है सत, रज, तम ये आत्मा के गुण नही है अत: सत के द्वारा रज और तम पर विजय कर लेनी चाहिए क्योंकि उसके बिना मेरी भक्ति करना संभव नही है एक समय सनकादिक ऋषियों ने ब्रह्माजी से पूछा कि चित्त में विषय घुसे रहते हैं उनको कैसे दूर किया जावे इस पर ब्रह्माजी ने मेरा ध्यान किया तब मैने हंस रूप से उन्हें जो ज्ञान दिया उसे उद्धव तुम सुनो संसार मे परमात्मा के अलावा कोई वस्तु नहीं है इसलिए मन से वाणी से दृष्टि से व अन्य इन्द्रिय से जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूँ।
इति
त्रयोदशोऽध्यायः
[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]
भक्ति योग की महिमा ध्यान विधि का वर्णन-उद्धवजी ने पूछा भगवन् ब्रह्मवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेको साधन बताते है उनमें अपनी-अपनी दृष्टि से सभी सही है अथवा किसी एक की प्रधानता है।
भगवान बोले प्रिय उद्धव यह वेद वाणी प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गई थी फिर स्रष्टि के समय पुनः इसे ब्रह्मा को दी ब्रह्मा ने उसे अपने पुत्र स्वायम्भव मन को दी उनसे भृगु अंगिरा आदिसात प्रजापतियों को दी उनसे उनकी सन्तान देवता दानव गुह्यक मनुष्य सिद्ध गंधर्व विद्याधर आदि ने प्राप्त किया सबके स्वभाव सत रज तम आदि गुणों से प्रभावित होने के कारण उस वेद वाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ करते है।
उनमे केवल जो सब प्रकार से मुझे ही समर्पित रहता है वही मेरा भक्त मुझे
अत्यन्त प्रिय है। प्रिय उद्धव मेरे भक्त आसन पर बैठ कर प्राणायाम करके मेरे
स्वरूपों का ध्यान करें और अपने मन को मुझ मेही लगा दें।
इति चतुर्दशोऽध्यायः
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[ अथ पञ्चदशोऽध्यायः ]
भिन्न-भिन्न
सिद्धियों के नाम और लक्षण-भगवान बोले उद्धव जब भक्त मेरा ध्यान करता है तब उसके
सामने अनेक सिद्धियां आती हैं इनमें तीन सिद्धियां तो शरीर की है अणिमा महिमा
लघिमा इन्द्रियों की सिद्धि है प्राप्ति लोकिक व पारलोकिक पदार्थों का इच्छानुसार
अनुभव कराने वली है प्राकाम्य माया और उसके कायों को इच्छानुसार संचालित करना है
इशिता विषयों में रहकर भी उसमे आसक्त न होना है वशिता जिसकी भी कामना करें उसे
प्राप्त करना है कामावसायिता ये आठ सिद्धियां स्वभाव से मुझ में रहती हैं और जिसे
मैं देता हूं उसे अंशत: प्राप्त होती है मैं इन्हे अपने भक्तों को देता हूँ किंतु
मेरा परम भक्त इन्हे भक्ति में वाधक समझ स्वीकार नही करता है।
इति
पञ्चदशोऽध्याय:
[ अथ षोड्षोऽध्यायः ]
भगवान की
विभूतियों का वर्णन-उद्धव बोले-प्रभो कृपा कर आप अपनी विभूतियाँ बतावें भगवान बोले
उद्धव महाभारत के युद्ध काल में यही प्रश्न अर्जुन ने किया था वही ज्ञान में
तुम्हे देता हूँ मैं समस्त प्राणियों की आत्मा हूं श्रृष्टि की उत्पत्ति पालन
संहारकर्ता मैं हं मैं ही काल हूं मैं ही ब्रह्म ऋषियों में भृगु देवताओं मे
इन्द्र अष्टवसुओं में अग्नि द्वादश अदित्यों में विष्णु राजर्षियों में मनु
देवर्षियों में नारद गायों में कामधेनु सिद्धों मे कपिल पक्षियों में गरुड़
रुद्रों में शिव वर्गों में ब्राह्मण हूँ।
इति
षोड्षोऽध्यायः
[ अथ सप्तदशोऽध्यायः ]
वर्णाश्रम
धर्म निरुपण-भगवान बोले उद्धव अब तुम्हे वर्णाश्रम धर्म बताता हूँ। जिस समय इस
कल्प का प्रारम्भ हुआ था पहला सतयुग चल रहा था उस समय हंस नामक एक ही वर्ण था उस
समय केवल प्रणव ही वेद था धर्म चारो तपस्या शौच दया सत्य चरणों से युक्त था त्रेता
के प्रारंभ होते ही मेरे हृदय से ऋगु यजु साम तीनो वेद प्रकट हुए विराट पुरुष के
मुख से ब्राह्मण भुजाओं से क्षत्रिय जंघा से वैश्य तथा चरणों से शूद्रों की
उत्पत्ति हुई। उरुस्थल से गृहस्थाश्रम ह्रदय से ब्रह्मचर्य आश्रम वक्षःस्थल से
वानप्रस्थ आश्रम मस्तक से सन्यास आश्रम की उत्पत्ति हई।
इति
सप्तदशोऽध्यायः
[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]
वानप्रस्थ और सन्यासी के धर्म-भगवान बोले प्रिय उद्धव मानव की आयु सौ वर्ष मानकर उसके पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार हिस्से किए गए है प्रथम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, पच्चीस से पचास गृहस्थाश्रम, पचास से पिचेतर, वानप्रस्थ आश्रम पचेतर के बाद संन्यास आश्रम वानप्रस्थ आश्रम में पत्नि को यातो पुत्र के पास छोड़ दें अन्यथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए साथ रख ले वन में रहकर फलफूल खाकर रहे व भजन करे यह वान प्रस्थ आश्रम है सन्यास आश्रम में पत्नि का भी परित्याग कर वन में भजन करें।
इति
अष्टादशोऽध्यायः
[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]
भक्ति ज्ञान और यम नियमादि साधनों का वर्णन-भगवान बोले उद्धवजी पन्च महाभूत पन्च तन्मात्रााऐं दसइन्द्रिय मन बुद्धि चित्त और अहंकार इन समस्त तत्वों को ब्रह्मा से त्रण पर्यन्त देखा जाता है इन सबमे भी एक मात्र परमात्मा कोही देखे यही ज्ञान है भक्ति के विषय मे मै पहिलेही तुम्हे बता चुकाहूं अब तुम्हे यम नियमादि बताता हूं यम बारह है अहिंसा सत्य अस्तेय असंगता लज्जा असन्चय आस्तिकता ब्रह्मचर्य मोन स्थिरता क्षमा अभय नियम भी बारह ही है शौच जप तप हवन श्रद्वा अतिथिसेवा भगवान की पूजा तीर्थयात्रा परोपकारी चेष्टा सन्तोष और गुरु सेवा इस प्रकार भक्ति ज्ञान यम नियम मैने तुम्हे बता दिए।
इति
एकोनविंशोऽध्यायः
[ अथ
विंशोऽध्यायः ]
कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोग-भगवान बोले उद्धव! संसार की वस्तुओं की कामना स्वर्गादिक लोकों की कामना रखने वाले लोग कर्मयोग के अधिकारी हैं शास्त्र विहित कर्म पुण्य कर्मो से संसार के भोग्य पदार्थो की प्राप्ति करता है। संसार की वस्तुओं की कामना एवं स्वर्गादिक लोको की कामना ओं से जब व्यक्ति उब कर उनका त्याग करना चाहता है वह ज्ञानयोग का अधिकारी है भगवान को तत्व से समझना ही ज्ञानयोग है किन्तु कर्मयोग ज्ञानयोग दोनोही व्यक्ति को करना होता है जिनमे अनेक कठिनाइयां है अत: सब कुछ परमात्मा पर छोड जो उन्ही के विश्वास पर रहता है यहि भक्तियोग है भक्त परमात्मा के अलावा किसी भी अन्य की कामना नही करता वही सच्चा भक्त है।
इति
विंशोऽध्यायः
[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]
गुण
दोषव्यवस्था का स्वरूप और रहस्य-भगवान बोले उद्धव । मुझे प्राप्त करने के तीन
मार्ग मैंने बताए है धर्म मे दृढ निश्चयही गण के अविश्वास ही दोष है अत: दोषो का
त्याग कर दृढ विश्वास के साथ भक्ति करना चाहिए।
इति
एकोविंशोऽध्यायः
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[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]
तत्वों की संख्या और पुरुष प्रकृति विवेक-भगवान बोले उद्धव यह प्रकृति चोबीस तत्वों से बनी है येतत्व हैं आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी येपांच तत्व शब्द स्पर्श रूप रस बन्ध ये पांच तन्मात्राऐं दस इन्द्रिय इस प्रकार कुल बीस मन बुद्धि चित्त अहंकार इस प्रकार कुल चोबीस तत्व है इन्हीसे यह समस्त ब्रह्माण्ड बना है इसी से प्राणी मात्र के शरीर बने है।
इसके भीतर आत्मा रूप से स्वयं भगवान ही इसके अन्दर बैठे है यह आत्मा ही पुरुष रूप से जानी जाती हैआत्मा का संबंध जब देह से होजाता है वही वन्धन का कारण बन जाती है और आत्मा का संबंध जब परमात्मा से हो जाता है वही मुक्ति का कारण है।
इति
द्वाविंशोऽध्यायः
[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]
एक तितिक्षु
ब्राह्मण का इतिहास-भगवान बोले उद्धवजी उज्जैन नगरी मे एक ब्राह्मण रहता था वह
बड़ा कामी क्रोधी और कृपण था वह दिन भर धन कमाने के चक्कर में लगा रहता था एक कोडी
भी खर्च नहीं करता था न खाता न पहनता नकोइ धर्म कर्म करता था धन का उसने न दान
किया न भोग किया अन्त मे उसके देखते देखते ही उसके धन को चोर ले गए 39 भाइ बन्धुओ ने छीन लिया वह दीन हीन होगया
वह दर दर घूमने लगा उसे ज्ञान हो गया वह शान्त हो गया मोन रहने लगा भिक्षा से जीवन
यापन करने लगा किसी को भी अपने दुख के लिए बुरा नही कहता बल्कि स्वयं को ही इसका
जिम्मेदार मानता था उसकी आंखे खुल गई उसने गीत गाया मैं धन संपत्ति के मोह में
परमात्मा को भूल गया।
इति
त्रयोविंशोऽध्यायः
[ अथ चतुर्विंशोअध्यायः ]
सांख्य योग-भगवान बोले उद्धव प्रकृति और पुरुष के ज्ञान को ही सांख्य के नाम से कहा जाता है संसार में दो ही तत्व है एक जड़ दूसरा चैतन्य समस्त जड़ जगत जो दृश्य है वही प्रकृति तत्व है आत्मा रूप से शरीर के भीतर जो बैठा है वही पुरुष है जो पुरुष देह में आसक्त हो जाता है वही बद्ध पुरुष कहलाता है जो पुरुष देह के स्वरूप को समझ लेता है वह मुक्त हो जाता है यही सांख्य योग है।
इति
चतुर्विंशोऽध्यायः
[ अथ पञ्चविंशोऽध्यायः ]
तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण-भगवान बोले उद्धव प्रकृति के तीन गुण है सतोगुण रजोगुण और तमोगुण जब पुरुष का संबंध प्रकृति से होजाता है वे प्रकृति के गुण पुरुष में आ जाते है या यह कहें कि आत्मा का संबंध देह से हो जाने पर उपरोक्त गुण मनुष्य में आ जाते है उनके संयोग से उसका स्वभाव बन जाता है जब हम सतोगुण के प्रभाव में होते है तो मन सहित इन्द्रियाँ वश में रहती हैं सत्य दया सन्तोष श्रद्धा लज्जा आदि गुण प्रकट होते हैं।
रजोगुण की वृत्तियाँ हैं इच्छा प्रयत्न घमंड तृष्णा देवताओं से धन की इच्छा विषय भोग आदि तमोगुण की वृत्तियाँ है काम क्रोध लोभ मोह शोक विवाद आदि प्रत्येक व्यक्ति मे न्यूनाधिक मात्राा मे ये बृत्तियां होती है गुणो के मिश्रण से वत्तियाँ भी मिश्रित हो जाती हैं तमोगुण को रजोगुण से जीते रजोगुण को सतोगुण से जीतें सतोगुण से भगवान का भजन कर सतोगुण को भी छोड जीव परमात्मा का बन जाता है।
इति
पञ्चविंशोऽध्यायः
[ अथ षडविंशोऽध्यायः ]
पुरुरवा की वैराग्योक्ति-भगवान बोले उद्धव इलानन्दन पुरुरवा उर्वशी के मोहजाल मे ऐसा फसा कि वह जब उसे छोड कर चली गई तो वह नग्न उसके पीछे हाय उर्वशी हाय उर्वशी करता फिरा अन्त में होश आया तो कहने लगा हाय हाय मेरी मूढता तो देखो काम वासना ने मेरे मन को कितना कलुषित कर दिया हायहाय उसने मुझे लूट लिया कइ वर्ष बीत गए मुझे मालुम ही नही हुआ। इस प्रकार पुरुरवा के हृदय मे ज्ञान हो गया उसे मेरी याद आइ और उसने मेरे मे मन लगा कर मुझे प्राप्त कर लिया।
इति
षडविंशोऽध्यायः
[ अथ सप्तविंशोऽध्यायः ]
क्रिया योग का वर्णन-भगवान बोले उद्धव मेरी पूजा की तीन विधियां हैं वैदिक तान्त्रिक और मिश्रित इनमें जो भी भक्त को अनुकूल लगे उससे मेरी पूजा करे मूर्ति में वेदी में अग्नि मे सूर्य में जल में ब्राह्मण में मेरी पूजा करे पहले स्नान करे संध्यादि कर्म कर मेरी पूजा करे मेरीमूर्ति पाषाण धातु लकडी मिट्टी मणिमयी होती है इनकी षोडषोपचार आह्वाहन आसन अर्घ्य पाद्य आचमन स्नान वस्त्र गंध पुष्प धूप दीप नैवेद्य आदिसे पूजा करे अन्त में भगवान के चरण पकड़कर प्रार्थना करे प्रभो आप प्रसन्न होकर मेरा उद्धार करें।
इति
सप्तविंशोऽध्यायः
[ अथ अष्टाविंशोऽध्यायः ]
परमार्थ निरुपण-भगवान बोले उद्धव यह दृश्य जगत मिथ्या है कहीं भी कोई वस्तु परमात्मा से अलग नही है जो दिख रहा है वह भी परमात्मा ही है जो भाषित हो रहा किन्तु दिखता नही वह भी परमात्मा ही है अत: दृश्य अदृश्य सब परमात्मा का ही रूप है।
इति
अष्टाविंशोऽध्यायः
[ अथ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ]
भागवत धर्मो का निरूपण और उद्धवजी का बदरिकाश्रम गमन-भगवान बोले उद्धव अब मै तुम्हे भागवत धर्म कहता हूँ। मेरे भक्तों को चाहिए कि वे जो कुछ करे मेरे लिए ही करे और अन्त में उसे मुझे ही समर्पित कर दे तीर्थों में निवास करे मेरे भक्तों का अनुसरण करे सर्वत्र मेरे ही दर्शन करे मेरे चरणों की दृढ नोका बनाकर संसार सागर से पार हो जावे।
श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित! अब उद्ववजी योग मार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे भगवान से बोले प्रभो आपने मेरे सारे संशय नष्ट कर दिए मैं कृत कृत्य हो गया अब मुझे क्या आज्ञा है। भगवान बोले उद्धव अब तुम बदरिकाश्रम चले जावो और वहां रह कर मेरा भजन करो भगवान की आज्ञा पाकर उद्धवजी बदरिकाश्रम चले गए।
इति
एकोनत्रिशोऽध्यायः
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[ अथ त्रिंशोऽध्यायः ]
यदुकुल का संहार-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि आकाश और पृथ्वी पर बड़े उत्पात होने लगे है तब सब यदुवंशियों से कहा अहो अब हमें यहां एक क्षण भी नही ठहरना चाहिए तुरन्त शंखो द्धार क्षेत्र में चले जाना चाहिए सब यदुवंशी भगवान की आज्ञा से प्रभास क्षेत्र पहँच गए काल ने उनकी बुद्धि का हरण कर लिया वे वारुणी मदिरा का पान कर आपस में ही भिड़ गए लोहे के मूसल का वह चूर्ण घास बन गया था।
उखाड-उखाड कर लडने लगे घास हाथ में आते ही तलवार बन जाती ऐसे सभी यदुवंशियों को समाप्त कर स्वयं एक पीपल के वृक्षतले जा बैठे बलरामजी भगवान का ध्यान कर अपने लोक को चले गए भगवान के चरण में एक हीरा चमक रहा था जराव्याध ने अपना बाण भगवान पर चला दिया नजदीक आने पर पता चला तो वह भगवान के चरणों मे गिर गया भगवान बोले यह तो मेरी इच्छा से हुआ हैं जा तू मेरे धामजा दारूक सारथी ने भगवान को रथ मे बैठाया ओर भगवान ने अर्जन के साथ शेष लोगो को इन्द्र प्रस्थ भेज दिया।
इति
त्रिंशोऽध्यायः
[ अथ एकत्रिंशोऽध्यायः ]
भगवान का
स्वधाम गमन-भगवान का स्वधाम गमन देखने के लिए ब्रह्मादिक देवता आएथे पुष्पोंकी
वर्षा कर रहे थे भगवान रथ सहित अपने धामको पधार गए।
इति
एकत्रिंशोऽध्यायः
इति एकादश
स्कन्ध समाप्त