F श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan - bhagwat kathanak
श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan

bhagwat katha sikhe

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan

[ अथ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ]

बन्दी राजाओं की मुक्ति-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! जरासंध के मर जाने के बाद भगवान ने उसके पुत्र सहदेव को राजा बना दिया और सहदेव से कहकर बन्दी राजाओं को मुक्त करा दिया सहदेव भगवान का भक्त था राजा ओं ने भगवान को प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ये सब करके भगवान इन्द्रप्रस्थ लौट आए।

इति त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।


[ अथ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ]

भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले राजन्! भगवान की आज्ञा पाकर राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ के लिए विद्वान ब्राह्मणों का वरण किया अब प्रश्न यह आया कि सदस्यों मे अग्र पूजा किसकी की जाय इस पर जरासंध पुत्र सहदेव ने कहा भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिए। 


यह बात सुन शिशुपाल क्रोध कर बोला जहां बड़े-बड़े विद्वान महर्षि बैठे हों वहाँ इस ग्वाले गंवार की अग्रपूजा होगी और भी अनेक तरह की गालियाँ भगवान को देने लगा भगवान ने निन्यानवे गालियाँ क्षमा करते हुए सौवीं गाली में सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया उसके शरीर से एक ज्योति निकल कर भगवान मे समाहित हो गई।

इति चतुःसप्ततितमोऽध्यायः


[ अथ पन्चसप्ततितमोऽध्यायः ]

राजसूय यज्ञ की पूर्ति और दुर्योधन का अपमान-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में बड़े-बड़े महर्षि बड़े-बड़े राजा पधारे थे सबने अपने योग्य सेवा देकर यज्ञ को सम्पन्न किया जिसे देख दुर्योधन मन ही मन जल उठा युधिष्ठिरजी के लिए मय दानव ने एक सुन्दर महल बनाकर दिया जिसमें जल में थल तथा थल में जल दीखता था एक दिन दुर्योधन महल देखने आया उसे थल में जल नजर आया अत: उसने उसे पार करने के लिए अपने वस्त्र उंचेकर लिए यह देख द्रोपदी हंस गई और बोली अंधों के अंधे ही होते हैं जिससे दुर्योधन का बडा अपमान हुआ।

इति पन्चसप्ततितमोऽध्यायः


[ अथ षट्सप्ततितमोऽध्यायः ]

शाल्व के साथ यादवों का युद्ध-श्रीशुकदेवजी कहते है कि राजन्! शिशुपाल का एक मित्र था शाल्व मित्र के मारे जाने के बाद वह अत्यन्त क्रोध में भर गया उसने शिवजी की घोर तपस्या कर एक विमान प्राप्त किया था वह मन की गति से चलता था और कभी अदृश्य हो जाता तो कभी प्रकट शाल्व ने विमान में बैठकर यादवों से युद्ध के लिए आ गया और यादवों को भयभीत करने लगा।

इति षट्सप्ततितमोऽध्यायः


[ अथ सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ]

शाल्व का उद्धार-श्रीशुकदेवजी बोले भगवान ने जब देखा कि यादव शाल्व से भयभीत हो रहे है भगवान ने उस दुष्ट का भी उद्धार किया।

इति सप्तसप्ततितमोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi


[ अथ अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ]

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलरामजी के हाथ से सूजजी का वध-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं परीक्षित! शिशुपाल शाल्व के मारे जाने के पश्चात् दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल रणभूमि में आ धमका वह बड़ा भयंकर था भगवान भी गदा लेकर उसके सामने आ गए और युद्ध करने लगे भगवान ने शीघ्र ही उसे एक गदा के प्रहार से समाप्त कर दिया दन्तवक्त्र का भाई था विदूरथ भाई को मरा जान वह भी युद्ध में आ गया एक ही बाण से भगवान ने उसे समाप्त कर दिया ओर द्वारकापुरी आ गए। 


एकबार बलरामजी ने देखा कि कौरव पाण्डवों में युद्ध की संभावना है वे किसी का भी पक्ष न लेकर तीर्थ यात्रा को चल दिए। जब वे नैमिषारण्य पहुंचे तो देखा कि सूतपुत्र रोमहर्षण ऊँचे आसन पर बैठ ऋषियों को कथा सुना रहे हैं वे न तो किसी को उठकर प्रणाम करते हैं न स्वागत बलराम जी को क्रोध आ गया और उन्होने कुश की नोक से प्रहार कर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया सभा में हाहा कार मच गया। 


ऋषि बोले बलरामजी इन्हें हमने ब्रह्मत्व प्रदान कर रखा था उन्होने व्यासजी से समस्त पुराणों को पढ़ा है अब आप इसका कोई उपाय करें बलरामजी बोले आज से इनका पुत्र उग्रश्रवा आपको कथा सुनावेगें। ऋषिबोले बलरामजी इल्वल का पुत्र वल्वल हमें बड़ा कष्ट पहुंचाता है उससे आप हमें मुक्ति दिलावें।

इति अष्टसप्ततितमोऽध्यायः

 

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan


[ अथ एकोनाशीतितमोऽध्यायः ]

वल्वल का उद्धार ओर बलरामजी की तीर्थयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि राजन् पर्व का दिन था जोर से अंधड चलने लगा यज्ञ में मलमूत्र की वर्षा होने लगी फिर हाथ में त्रिशूल लेकर वल्वल सामने आ गया बलरामजी ने उसे हल की नोक से खेंच कर सिर में एक मूसल मारा की उसका सिर फट गया ओर समाप्त हो गया। बलरामजी ने तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्थान किया।

इति एकोनाशीतितमोऽध्यायः

  

[अथ अशीतितमोऽध्यायः ]

सुदामा चरित्र-----

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्म वित्तमः।

विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः।।

श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान श्रीकृष्ण के गुरुकुल में एक साथ पटे हुए एक मित्र थे सुदामा ब्राह्मण वे बड़े परमात्मा के भक्त विरक्त जितेन्द्रिय थे वे गृहस्थी थे उनके सुशीला नामकी पतिव्रता पत्नि थी उनका जीवन भिक्षावृत्ति पर आधारित था एकया दो घरों से जो मिल जावे उससे निर्वाह करते थे सुदामाजी ने सुशीला जी को बता रखा था कि उनके मित्र अब द्वारका के राजा हैं

विप्रसुदामा बसत हैं सदा आपने धाम

भिक्षा करि भोजन करे जपे हरी कोनाम

ताकि घरनी पतिब्रता गहे वेद की रीति

सुबुधि सुशील सुलज्ज अति पति सेवा मे प्रीति

एक दिन सुशीलाजी सुदामाजी से बोली..

कहत सुशीला संदीपनी गुरुके पास

तुम हितो कहे हम पढे एक साथ है

द्वारिका को गए दुख दारिद हरेगें पिय

द्वारका के नाथ वे अनाथों के नाथ हैं

उधो सवां जुरतो भर पेट तो

चाहत हों नही दूध मिठोती

नीति वितीत भयो केहि कामके

हों हठ के तुम्हे यों न पठोती

जानती जोन हितु हरि सों

द्वारका तुमको न पेल पठोती

इस घरते कबहु नगयो पिया

टूटो तयो और फुटी कठोती

 

सुदामाजी बोले सुशीला अब वे द्वारका के राजा है वे मुझे कैस पहिचानेगें तो सुशीला बोली--

विप्रन के भगत जगत विदित बन्धु

लेत सुधि सबहि की ऐसे महा दानी हैं

पढे इक चटसार कही तुम कइबार

लोचन अपार वे तुम्हे न पहिचानी हैं

एकदीन बन्धु कृपा सिन्धु फेरि गुरुबन्धु

तुमसों दीन जाहि निज जिय जानी है

नाम लेत चौगुनो गएते द्वार सौगुनो

देखत सहस्र गुनो ऐसे प्रीति प्रभु नामी है

सुशीला का हठ देख सुदामाजी ने सोचा चलो इस बहाने भगवान के दर्शन हो जायगें एक पोटली में थोडे तंदुल लेकर द्वारका के लिए प्रस्थान किया और द्वारका पहुँच गए।

द्रष्टि चकाचौंध भइ देखत स्वर्ण मही

एक से सरस एक द्वारका के भोन हैं

पूछे बिना कोउ कहुं काहुसोंन करे बात

देवता से बैठे सब साधिसाधि मोन है

देखत सुदामा धाय परिजन गहे पाय

कृपाकर कहो विप्र कहां कीनो गोन है

धीरज अधीर के हरन पर पीर के

बतावो बलवीर के महल यहां कौन है

 सुदामाजी ने द्वारपाल को बताया कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे मित्र है मैं उनसे मिलना चाहता हूं द्वारपाल बोला। मैं भगवान के पास आपका संदेश पहुंचाता हूँ और द्वारपाल भगवान से जाकर बोले---

शीश पगा न झगा तन पै प्रभु

जानेको आहि बसे केहि ग्रामा

धोती फटी सी लटी दुपटी अरु

पाय उपानह की नही सामा

द्वार खडो द्विज दुर्बल एक

रह्यो चकि सों वसुधा अभिरामा

पूछत दीन दयाल को धाम

बतावत आपनो नाम सुदामा

बोल्यो द्वारपाल सुदामा नाम पाण्डे सुनि

छांडे राज काज एसे जी की गति जाने को

द्वारका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाय

भेटे भर अंक लिपटाय दुःख साने को

नैन दोउ जल भरि पूछत कुशल हरि

विप्र बोल्यो विपदा मे मोहि पहिचाने को

जैसी तुम करी तैसी करे को कृपा के सिन्धु

ऐसी प्रीति दीनगन्धु दीनन सों माने को

भगवान सुदामाजी का हाथ पकड़ महलों में ले गए और ऊँचे राज सिंहासन पर विराजमान कर दिए और उनके चरण धोने लगे।

ऐसे वेहाल विवाइन सों पग कंटक जाल लगे पुनि जोए

हाय महादुख पायो सखातुम आए इतेन किते दिन खोए

देख सुदामाकी दीनदशा करुणाकरके करुणानिधिरोये

पानीपरातको हाथ छुयो नही नैननकेजलसों पग धोए

 

कृष्ण सुदामा संवाद

कृष्ण--

बडीरे निठुरता तुमने धारी सुदामा भैया

बहुत दिनन मे दर्शनदीना कैसीदशा तुम्हारी

काहे दुख पायो पास मेरे क्यों न आयो

दिन बृथा ही गमायो मोहि याहि को विलग

वस्त्र फटे से पुराने अंग सकल सुखाने

नहीं जात पहिचाने हैपनैया नहीं पग

फटी विवाइ दोउ पांवन मे क्यों बनरहे भिखारी।। सुदामा।।

सुदामा--

काहे एतो दुःख पावे नीर नपनन बहावे

शाप देके पछितावे तेरी लीला है अपार

समय समय की है बात जब पढ़े एक साथ

अब भीख मांग खात या में काहे को विचार

मैं हूँ अतिहि दीन बन्धुतू दीनन को हितकारी ।।सुदामा।।

कृष्ण--

एक जग प्रतिपाल दूजो बन्योहै कंगाल

यह विधिना की चाल कछु लागे विपरीत

दीनबन्धु और दीन को है अमिट संबंध

कोटि करेह प्रबन्ध यह टूटे नही प्रीति

लइ दरिद्रता बांध गांठ से प्रीति न मेरी भुलाई।।सुदामा।।





सुदामा--

धन्य धन्य यदुराई मेरी करत बड़ाई

निज प्रभुता भुलाई नही भावे राजपाट

यासों कहत मिताइ जैसी कृष्ण ने निभाई

मैंने भीख माँग खाई कहाँ याके ठाट बाट

धोवे चरन भिखारी के यह भगतन को हितकारी।।सुदामा।।



कृष्ण--

छोड बृथा की यह बात पंडिताइ क्यों दिखात

कछुलायो है सोगात भाभी भेजी सो दिखाय

वहमोको अति प्यारी याद करे जो हमारी

कैसे रहे वो विचारी कछुमो कूहूं बताय

भेज्यो कहा संदेश सुनाय दे लगी चटपटी भारी।।सुदामा।।

 

सुदामा--

 

तू है द्वारका नरेश मेरो साधुकोसो भेष

 

तेरी भाभी को संदेश कहने मे आवे लाज

 

वापै धरी कहा भेंट जाको भरे नही पेट

 

है दरिद्र की चपेट ताहि संग लायो आज

 

आया हूं कछु कामइ ते पर कह न सकू गिरधारी।।सुदामा।।



कृष्ण--

 

कहबे में सकुचाय बृथा दीनता दिखाय

 

रहे मित्र से छिपाय दउं मांगे सोइ तोय

 

काम विपदा मे आवे सांचो मित्र वो कहावे

 

नहीं मित्र को भुलावे मन कपटी नहोय

 

तीन लोक की संपति तेरे चरन पर बलिहारी ।।सुदामा।।





इति अशीतितमोऽध्याय:

bhagwat katha in hindi

[ अथ एकाशीतितमोऽध्यायः ]

 

सुदामाजी को ऐश्वर्य प्राप्ति-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! काँख में दबाई हुई चावल की पोटली सुदामा से भगवान ने छीन ली और उसमें से एक मुट्ठी चावल चबा गए और उसके स्वाद का बखान करते हुए दूसरी मुट्ठी भी चबा गए और जब तीसरी मुट्ठी चबाने लगे तो रुक्मणी ने हाथ पकड़ लिया।



हाथ गयो प्रभुको कमला यहनाथ कहा तुमने चितधारी

 

तंदुलखाय मुठी दोउ दीनसंपदा दौउ लोकन की बिहारी

 

तीसरी मुट्ठी चबाय हरि कहां तुम रहने की आस बिचारी

 

रंकहि आप समान कियो तुम चाहत आपन होन बिखारी




रुक्मणि--

 

ब्राहमण की परतीत में सुख नहीं पायो कोय

 

बलिराजा हरिश्चन्द्र ने दिया राजपट खोय

 

दिया राजपट खोय हरीजिन जनक दुलारी

 

तीन लोक के नाथ लात तिनहुँ को मारी




कृष्ण--

 

भूल गई कमला तुम तो ब्राह्मण सब दुख टारन हारो

 

लेपतियां हमको जुदई वह ब्राह्मण हमको मिलावनवारो

 

गुरु ब्राह्मण है सबरेजगकोजगकी त्रयताप मिटावनवारो

 

ब्राह्मण मेरोहे पूज्यसदा या ब्राह्मण से परमेश्चर हारो


विप्र प्रसादात् धरणी धरोहं विप्रप्रसादात गिरवर धरोहं

विप्रप्रसादात कमलावरोहं विप्रप्रसादात ममनाम रामम

भगवान के मुख से ब्राह्मणों की प्रशंसा सुन शान्त हो गई फिर स्नान कराकर सुदामाजी को भोजन कराया सुन्दर पलंग पर शयन कराया तथा भगवान उनके चरण दबाने लगे बहुत दिनों आद भोजन मिलने के कारण उन्हें तुरन्त नींद आ गई भगवान ने ब्रह्मा को बुलाया और पूछा ब्रह्माजी आपने हमारे मित्र के भाग्य में क्या लिखा है ब्रहमा बोले प्रभु सुदामा के भाग्य में लिखा है-श्रीक्षय-भगवान बोले इसे उलट दो ब्रह्मा ने उसे उलटा लिख दिया-यक्षश्री-यानी कुवेर की संपत्ति यद्यपि सामान्य शास्त्र कहते है।


जे विधिना ने लिख दिया छठी रातके अंक

राइ घटे न तिल बढे रहरे जीव निशंक



किन्तु विशिष्ट शास्त्र कहते हैं--

राम नाम मणि विषम व्याल के

मेटत कठिन कुअंक भालके

भगवान भाल के अंक भी बदल देते हैं प्रात:काल उठते ही सुदामाजी ने घर जाने को कहा भगवान ने उन्हे विदा किया पर कुछ दिया नही अत: वे सोचते जा रहे है--

 

वह पुलकिन वह उठ मिलन वह आदर की बात

यों पठवनि गोपाल की कछु नही जानी जात

घर-घर में मागत फिरो तनिक छाछ के काज

कहा भयो जो अब भयो हरि को साज समाज

हों तो आवत ना ह तो वाहि पठायो ठेलि

अब कहंगो समझाय के बह घन घरो सकेलि


चलते-चलते आगे देखा कि सुदामापुरी की जगह कोई नगर बसा है उनकी कुटिया का भी पता नहीं इतने में महलों से सोने से लडझड सुशीला उतरी सुदामाजी को प्रणाम कर बोली हमें यह सब भगवान ने दिया है। सुदामाजी बोले सुशीला यह सोना चाँदी मुझे नहीं चाहिए मैं तो बाहर कुटिया बनाकर रहंगा और भजन करूँगा।

इति एकाशीतितमोऽध्यायः

bhagwat kathanak


भागवत सप्ताहिक कथा / भाग -1

श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ Shrimad Bhagwat Katha Gyan


Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3