shrimad bhagwat katha in hindi
[ अथ नवमोऽध्यायः ]
भागीरथ
चरित्र और गंगावतरण-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित अपने चाचाओं के उद्वार के लिए
गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान ने तपस्या की किंतु वह अपने इस कार्य मे
सफल नहीं हुए तब उनके पुत्र दिलाप ने भी अपने पिता का अनुसरण करते हुए तपस्या की
किंतु वे भी सफल नही हुए तब उनके पुत्र भगीरथ ने भी घोर तपस्या की गंगा उन पर
प्रसन्न हुइआर प्रकट होकर बोली मैं तुम पर प्रसन्न हँ वरदान माँगो इस पर भगीरथ ने
उनसे अपने साथ पृथ्वी पर आने की प्रार्थना की गंगा बोली जब मैं पृथ्वी पर गिरुगी
तो मेरे वेग को कौन धारण करेगा इस पर भगीरथ बोले भगवान शिव आपके वेग को धारण
करेगें गंगा प्रसन्न हो शिवजी के मस्तक पर गिरी शिवजी ने उसे अपनी जटा में बाँध
लिया और उसमें से तीन बूंद छोडी जो तीन धाराओं मे विभक्त हो गई एक अलका पुरी होती
हुई आई अत: उसका नाम अलख नन्दा हुआ दूसरी मंदाकिनी दोनों रुद्र प्रयाग में आकर एक
हो गई तीसरी भगीरथी जो देव प्रयाग में आकर अलख नन्दा से मिल गइ इस तरह पूर्ण गगा
समस्त भारत का सिंचन करते हुए गंगा सागर मे जहां सागर पुत्रों की भस्मी पड़ी थी को
सींचती हुइ समुद्र में मिल गई।
इति
नवमोऽध्यायः
[ अथ दशमोऽध्यायः ]
भगवान
श्रीराम की लीलाओं का वर्णन
खट्वांगाद्
दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात् पृथुश्रवाः।
अजस्ततो
महाराजस्तस्माद् दशरथोअभवत्।।
शुकदेव बोले मनु पुत्र इक्ष्वाकु के वंश मे खटांग के दीर्घबाहु उनके रघु उनके पृथुश्रवा उनके अज और अज के महाराजा दशरथ हुए इनके तीन रानियां थी जिनके यहां साक्षात् भगवान अपने अंशों सहित राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न के रुप में प्रकट हुए राम, लक्ष्मण ने ऋषि विश्वामित्र के साथ जाकर उनके यज्ञ की रक्षा की वारों भाईयों ने जनकपुर में जाकर जनक की पुत्रियों से विवाह किया।
__राजा दशरथ
ने सब प्रकार योग्य अपने जेष्ठ पुत्र राम को राजा बनाने का विचार किया किन्तु भरत
की माता कैकेयी भरत को राजा बनाना चाहती थी उसने राजा दशरथ से अपने पुराने धरोहर
दो वरदान मांग लिए जिसमें एक में भरत को राज्य दूसरे में राम को चौदह वर्ष का बन
वास माँग लिया राम चौदह वर्ष के लिए लक्ष्मण और सीता के साथ बन में गए भरत
शत्रुघ्न ननिहाल थे राम के बन गमन से दुखी दशरथ का स्वर्गवास हो गया भरत भी राज्य
स्वीकार नहीं किया।
वे रामजी को
मनाने वन में गए किन्तु राम नहीं लौटे बल्कि उन्हें चौदह वर्ष राज्य संभाल ने को
कहा वन मे राम को शूर्पणखा मिली लक्ष्मण ने उसके नाककान काट लिए जिसके कारण रावण
सीता का हरण कर ले गए राम रावण का हो संग्राम हुआ जिसमें राक्षसों सहित रावण मारा
गया चौदह वर्ष पश्चात् राम सीता लक्ष्मण के साथ वापस अयोध्या आ गए। रामजी का
राज्याभिषेक हुआ।
इति
दशमोऽध्यायः
[ अथ एकादशोऽध्यायः ]
भगवान
श्रीरामकी शेष लीलाओं का वर्णन-भगवान श्रीराम धर्मपूर्वक अयोध्या का राज्य करने
लगे उन्होने कई यज्ञ किए एक बार जन आलोचना के कारण सीता को बन मे भेज दिया सीता
गर्भवती थी उसने बालमीक आश्रम मे लव कुश को जन्म दिया एक बार रामजी ने अश्वमेध
यज्ञ किया यज्ञ का घोड़ा छोडा गया रक्षा के लिए शत्रुध्न साथ थे घोड़ा घूमता हुआ
बालमीक आश्रम के समीप पहुंचा वहां लव-कुश ने घोड़ा पकड़ लिया शत्रुध्न के साथ
संग्राम हुआ शत्रुध्न बंदी बना लिए गए लक्ष्मण भरत एक-एक करके बंदी बना लिए गए तब
रथ में सवार हो राम स्वयं युद्व में आए और लव-कुश से युद्ध करने लगे लव कुश का
युद्ध कौशल देख राम चकित रह गए ओह! ये किस के बालक है इतने मे सीता वहाँ आ गई और
उसने रामजी को देखा लव-कुश को युद्ध से रोक दिया बालमीकी जी भी आ गए उन्होंने
दोनों ओर का परिचय कराया और साता सहित दोनों पुत्रों को रामजी को सौंप दिया किंतु
सीता अयोध्या नहीं गई वह इस प्रतिक्षा में थी कि राम को उनकी अमानत दोनों पुत्र दे
दे सो देकर वह सबक देखते-देखते पृथ्वी में समाहित हो गई रामजी बड़ें दुखी हुए और
सरयू का चारों भाई भी विमानों में बैठ कर अपने लोक को पहुंच गए।
इति
एकादशोऽध्यायः
Bhagwat katha in
hindi
[ अथ द्वादशोऽध्यायः ]
इक्ष्वाकु
वंश के शेष राजाओं का वर्णन-मनु पुत्र इक्ष्वाकु का वंश बड़ा ही पवित्र है इसमें
बड़े-बड़े प्रतापी राजा हुए उनका वंश अब तक भी चल रहा है क्यों न हो जहाँ साक्षात्
रामजी प्रकट हुए हों।
इति
द्वादशोऽध्यायः
[ अथ त्रयोदशोऽध्यायः ]
राजा निमि
के वंश का वर्णन-इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि एक बार वे वशिष्ठ ऋषि के पास यज्ञ
करवाने के लिए आए वशिष्ठजी ने कहा राजन इस समय मैं इन्द्र का यज्ञ कराने जा रहा
हूँ उसके बाद आकर आपका यज्ञ कराउगाँ और वे इन्द्र का यज्ञ कराने चले गए निमि ने
विचार किया कि क्षण भंगुर संसार है कल रहें न रहें उन्होंने अन्य आचार्य से यज्ञ
करवा लिया जब वशिष्ठजी इन्द्र का यज्ञ करा कर लौटे तो देखाकि निमि यज्ञ करा चुके
तो उन्होने उसे शाप दिया कि तुम्हारा देहपात हो जाय निमि ने भी वशिष्ठजी को शाप
दिया तुम्हारा भी देहपात हो जावे वशिष्ठजी ने अपना शरीर छोड़ दिया और मित्रवरुण के
द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म लिया निमि ने भी शरीर छोड़ दिया और ब्राह्मणों की
आज्ञा से सब प्राणियों के नेत्रों में निवास किया उनके वंश में अनेक राजा हुए जो
मिथिला में रहने के कारण मैथिल कहलाए।
इति
त्रयोदशोऽध्यायः
shrimad bhagwat katha in hindi
[ अथ चतुर्दशोऽध्यायः ]
चन्द्र वंश
का वर्णन-भगवान विष्णु की नाभी से कमल-कमल से ब्रह्मा उनसे अत्रि और अत्रि से
चन्द्रमा का जन्म हुआ चन्द्रमा बड़े बलवान थे उन्होंने एक बार बृहस्पतिजी की पत्नि
तारा का हरण कर अपने पास रख लिया बृहस्पति और चन्द्रमा के बीच घोर युद्ध हुआ
चन्द्रमा की ओर से शुक्राचार्य ओर राक्षस भी लड़ने लगे उधर बृहस्पतिजी की ओर से
देवताभी युद्ध करने लगे अन्त में ब्रह्माजी ने आकर युद्ध बंद करा दिया और तारा
बहस्पतिजी को दिला दी वह गर्भवती थी उससे बुध का जन्म हुआ जो तारा के कहने से
चन्द्रमा को दे दिया बुध से इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ पुरुरवा बड़े वीर
थे उनके द्वारा उर्वशी के गर्भ से छः पुत्र हुए।
इति
चतुर्दशोऽध्यायः
Bhagwat katha in
hindi
[ अथ पंचदशोऽध्यायः ]
ऋचीक जमदग्नि ओर परशुरामजी का चरित्र-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि पुरुरवा के छ: पुत्र थे। आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रथ, जय और विजय इनमें विजय के वंश में एक राजा हुए कुश इनके चार पुत्र थे उनमें से कुशाम्ब के गाधी हुए।
गाधी के एक पुत्री थी सत्यवति जो ऋचीक ऋषि को ब्याही थी जब सत्यवती को कोई सन्तान न थी तब उसने पति से प्रार्थना की कि उसके तथा उसकी माता के लिए पुत्र प्राप्ति का कोई उपाय करे ऋषि ने दो चरु तैयार किए एक सत्यवति के लिए दूसरा उसकी माँ के लिए ओर स्नान करने चले गए पीछे से सत्यवति की माँ ने देखा कि ऋषि ने अपने लिए अच्छा बनाया होगा सत्यवति से उसका चरु लेकर अपना उसे दे दिया जब यह ऋषि को मालुम हुआ तो वे बोले यह तो बहुत गलत हो गया अब सत्यवति के क्षत्रिय पुत्र होगा और गाधी के ब्राह्मण सत्यवति बहुत गिड़ गिड़ाई तब ऋषि बोले पुत्र नहीं तो पोत्र अवश्य ही क्षत्रिय स्वभाव का होगा गाधी के यहाँ विश्वामित्रा ऋषि हुए सत्यवति के पुत्र तो जमदग्नि ऋषि हुए पौत्र क्षत्रिय स्वभाव के परशुरामजी हुए रेणुऋषि की पुत्री रेणुका से जमदग्नि का विवाह हुआ।
उस समय सहस्रबाहु अर्जुन एक दिन जमदग्नि ऋषि के यहा पहुच गए ऋषि के यहाँ
कामधेनु थी ऋषि ने राजा का खूब सत्कार किया राजा ने देखाकि यह सब काम धेनु का
प्रभाव है वह कामधेनु को ही छीन कर लेगया जब कही से परशुरामजी आए और उन्हे जब
ज्ञात हुआ तो वे जाकर सहस्रबाहु का भुजाओं का छेदन कर सिर घड से अलग कर दिया और
कामधेनु को ल आए।
इति
पंचदशोऽध्यायः
shrimad bhagwat katha in hindi
[ अथ षोडषोऽध्यायः ]
परशुरामजी
का क्षत्रिीय संहार विश्वामित्र के वंश की कथाश्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि एकदिन
जमदग्नि ऋषिकी पत्नि रेणुका ऋषिकी संध्या के लिए जल लेने गई थी वहाँ एक गंधर्व
अप्सराओं के साथ जल क्रीड़ा कर रहा था उसे देखने लगी इसलिए कार्य में देर हो गई
ऋषि उनके मानसिक व्यभिचार को जान गए आने पर ऋषि ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि
अपनी माता का सिर काट दो सब पुत्रों ने मना कर दिया तब परशुरामजी को आज्ञा दी माता
और सब भाईयों के सिर काट दो परशुराम जी ने माता और सब भाइयों के सिर काट दिए
प्रसन्न हो ऋषि बोले वरदान मागों तब परशुरामजी ने कहा मेरी माता और भाई जीवित हो
जावे सब जीवित हो गए एक दिन परशुरामजी कही गए थे पीछे से सहस्रबाहु के पुत्रों ने
जमदग्नि को मार दिया जिससे क्रोधित हो परशुराम जी ने चारों ओर क्षत्रियों का संहार
कर दिया।
इति
षोडषोऽध्यायः
Bhagwat katha in
hindi
[ अथसप्तदशोऽध्यायः ]
क्षत्रवृद्ध
रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन
इति
सप्तदशोऽयाय:
[ अथ अष्टादशोऽध्यायः ]
ययाति
चरित्र-श्रीशुकदेवजी कहते हैं कि हे राजा परीक्षित चन्द्र वंश में नहुष पुत्र
ययाति राजा हुए है उसी समय दानव राज बृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा गुरु
शुक्राचार्यजी की पुत्री देवयानी की सहेली थी दोनों सहेलियां अन्य सखियों के साथ
स्नान को गई वहां उन्होने अपने वस्त्र उतार स्नान किया तभी उधर से शिवजी आ निकले
सबने दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहिन लिए गलती से शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र
पहन लिए इस पर देवयानी बहुत नाराज हुई और शर्मिष्ठा को उल्टा सीधा कहने लगी
शर्मिष्ठा ने भी क्रोध में आ देवयानी को निर्वस्त्र कुए में धकेल दिया और घर आ गई
उधर से राजा ययाति निकल रहा था कुए में निर्वस्त्र कन्या को देखा उसने अपना
डुपट्टा कुए में डाल दिया जिसे देवयानी ने पहन लिया राजा ने देवयानी का हाथ पकड़
कुएं से निकाल लिया और चलने लगा तो देवयानी राजा से बोली राजा स्त्री का हाथ जो
पुरुष एक बार पकड़ लेता है उसे छोडता नहीं राजा ने कहा आप ब्राह्मण हैं मैं एक
क्षत्रिय यह उल्टा विवाह संभव नही देवयानी बोली मुझे शाप हैं मेरा विवाह ब्राह्मण
कुल में नही होगा राजा बोले क्या आपके पिता इसे स्वीकार करेगें देवयानी ने कहा
अवश्य करेगें यह बात जब शुक्राचार्यजी को मालुम हुई वे राजा बृषपर्वा पर बहुत
नाराज हुए और शर्मिष्ठा को दासी बनाकर देवयानी का विवाह ययाति से कर दिया देवयानी के दो पुत्र हुए
यदु और तुर्वसु किन्तु शर्मिष्ठा के भी तीन पुत्र हो गए द्रय, अनु और पुरु यह बात जब शुक्राचार्यजी को
मालुम हुई कि ययाति शर्मिष्ठा को भी पत्नि मानता है और उसके भी बच्चे हैं बहुत
नाराज हुए और ययाति को शाप दिया तू वृद्ध हो जा ययाति ने जब क्षमा याचना की तो वे
बोले कोई पुत्र तुम्हे अपनी जवानी दे दे तो ले लो इस पर ययाति ने सबसे बड़े पुत्र
यदु को अपनी जवानी देने को कहा तो वे इन्कार हो गए तब छोटे पुत्र पुरु ने स्वीकार
कर लिया ययाति युवा हो गए विषय भोगों मे लिप्त हो गए।
इति
अष्टादशोऽध्यायः
[ अथ एकोनविंशोऽध्यायः ]
ययाति का
गृहत्याग-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् विषय भोगों में लिप्त राजा ययाति को एक दिन
ज्ञान हुआ कि मैं कितना इन्द्रिय लोलुप हूं दूसरे की दी हुई जवानी से संसार के
भोगों को भोग रहा हूं उसने देवयानी को बुलाकर कहा प्रिये तुम्हे एक कहानी सुनाता
हूँ। एक जंगल में एक बड़ा हृष्ट पुष्ट बकरा था घूमते-घूमते वह एक कुए के पास गया
वहा उसने कुएं में पड़ी एक बकरी को देखा वह बड़ा कामी था उसने उस बकरी को अपनी
पत्नी बनाना चाहा वह कुऐं के बराबर एक गड्ढा खोदने लगा और बकरी को कुऐं से निकाल
लिया और उसे अपनी पत्नी बना लिया और उसके साथ विषयों को भोगता रहा जंगल में उसे और
भी बकरिया मिली वह उनके साथ भी भोग भोगने लगा किंतु उसकी तृप्ति नही हुई। प्रिये
मेरी भी वही स्थिति है मैं संसार के भोगों में डूबा हुआ हूं अब मुझे इनसे वैराग्य
हो गया है यह कह कर ययाति वन में भजन करने चला गया।
इति
एकोनविंशोऽध्याय
[ अथ विंशोऽध्यायः ]
पुरु के वंश
राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन श्री शुकदेव जी कहते है कि ययाति पुत्र
पुरु के वंश में हुए थे दुष्यन्त एक बार वे वन भ्रमण के लिए गए थे एक ऋषि के आश्रम
पर पहुंचे वहां एक सुन्दर स्त्री बैठी थी जिसे देख दुष्यन्त मोहित हो गए और उससे
बोले देवी आप कौन हैं इस वन में अकेली क्या कर रही हैं। वह बोली मेरा नाम शकुन्तला
है विश्वामित्र की पुत्री मेनका के गर्भ से जन्मी कण्वऋषि के, द्वारा पालित हूँ।
मैं यही
आश्रम में रहती हूं आप मेरे अतिथि हैं भोजन करें विश्राम करे राजा ने भोजन कर वहीं
रात्रि निवास किया रात्रि में शकुन्तला दुष्यन्त ने गंधर्व विवाह कर सहवास किया
जिससे शकुन्तला गर्भवति हो गई समय पाकर उसके एक पुत्र हुआ कण्व ने उसका नाम भरत
रखा भरत के कई पुत्र थे किन्तु योग्य न होने के कारण उन्होंने वृहस्पति और उतथ्य
के पुत्र भारद्वाज को गोद ले लिया तथा भारद्वाज के पुत्र मन्यु को राजा बना भरत वन
में भजन करने को चले गए।
इति
विंशोऽध्यायः
shrimad bhagwat katha in hindi
[ अथ एकविंशोऽध्यायः ]
भरत वंश का
वर्णन राजा रन्ति केव की कथा-श्रीशुकदेव जी बोले मन्यु के पांच पुत्र हुए
बृहत्क्षत्र जय महावीर नर गर्ग नर के वंश में न्तिदेव हुए वे जो मिल जाय उसमें
संतोष करने वाले थे एक बार वे अड़तालीस दिन तक भोजन नहीं मिला उनपचासवें दिन जब
थोडा मिला और सब लोग बाँटकर उसे खाने लगे एक भिक्षुक आ गया उन्हें भोजन उसे दे
दिया और जब जल पीने लगे तब एक प्यासा आ गया और जल भी उसको दे दिया और भूखे प्यासे
रह गए। यह सब भगवान की माया थी भगवान उनके सामने प्रकट हो गए मन्यु पुत्र
बृहक्षत्र का पुत्र हुआ हस्ति जिसने हस्तिनापुर बसाया।
इति
एकोविंशोऽध्यायः
[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]
पांचाल कोरव
और मगध देशीय राजाओं का वंश वर्णन-मन्युवंश में दिवोदास के वंशसे पांचाल वंश में
द्रुपद की पुत्री द्रोपदी हुई। सुधन्वा के वंश में जरासंध आदि मगध देशीय राजा हुए
हस्ती के वंश में शान्तनु आदि कोरव वंशीय राजा हुए।
इति
द्वाविंशोऽध्यायः
Bhagwat katha in
hindi
[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]
अनु द्रयु
तुर्वसु और यदुके वंश का वर्णन-ययाति पुत्र यदु का वंश बड़ा ही पवित्र हैं जहाँ
साक्षात् परमात्मा श्री कृष्ण अवतरित हुए।
इति
त्रयोविंशोऽध्याय
[ अथ चतुर्विशोऽध्यायः ]
यदुवंश में
यात्वत पुत्र अंधक के वंश में देवक ओर उग्रसेन हुए देवक के देवकी नामक पुत्री ओर
उग्रसेन के कंस का जन्म हुआ इसी वंश में विदुरथ के पुत्र शूरसेन के पुत्र हुए
वसुदेव और एक कन्या पृथा कुंती भोज के गोद चले जाने से उसका नाम कुन्ती हो गया।
इति
चतुर्विंशोऽध्यायः
इति नवम
स्कन्ध संपूर्ण:
shrimad bhagwat katha in hindi
अथ दशम
स्कन्ध प्रारम्भ
[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]
भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन वसुदेव देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रुप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था।
उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्माजी की शरण में गई उस समय उसने गो रूप धारण कर रखा था उसने ब्रह्माजी को अपना कष्ट सुनाया ब्रह्माजी उसे ले शिवादि देवताओं के साथ क्षीर समुद्र पर पहुंचे और पुरुष सूक्त से भगवान की स्तुति की तो आकाशवाणी हुई वसुदेवजी के घर भगवान अवतार लेगे सब देवता ब्रज में अवतरित होकर उन्हें सहयोग करें स्वयं शेषजी बड़े भाई के रूप में तथा उनकी आद्य शक्ति भी अवतरित होगें। एक बार उग्रसेन पुत्र कंस ने अपनी चचेरी बहिन देवकी का विवाह वसुदेवजी के साथ किया जब वह उसे रथ में बैठा कर पहचाने जा रहा था तभी आकाश वाणी हुई अरे कंस जिसे तू पहुंचाने जा रहा है उसका आठवां पुत्र तेरा काल होगा।
आकाश वाणी सुनते ही कंस ने तलवार खेचली केश
पकड़ देवकी को नीचे खेंच लिया और मारने को उद्यत हो गया। वसुदेवजी ने कंस को
समझाया ओर कहा देवकी के जितनी भी संताने होगी जन्मते ही तुम्हें दे दूगाँ कंस ने देवकी
को छोड़ दिया और वसुदेव देवकी को जेल में डाल दिया जेल में ही उने छः पुत्र हुए
जिन्हें कंस ने मार दिया।
इति
प्रथमोऽध्यायः
[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]
भगवान का
गर्भ प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ स्तुतिश्रीशुकदेवजी बोले सातवें गर्भ में
स्वयं शेषजी थे जिन्हें योग माया ने रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। आठवें गर्भ
मे स्वयं भगवान आए देवता लोग उनकी स्तुति करने लगे,
प्रार्थना
(1) आवोमन मोहना
आवो नन्द नन्दना
गोपी जन
प्राण धन राधा उर चन्दना।। कैसे तुम गणिकाके अवगुण विसारेनाथ
कैसे तुम
भीलनी के झूठेवेर खावणा।। कैसे तुम द्वारका मे द्रोपदी की टेर सुनी
कैसे तुम गज
काज नंगे पैर धावना।। कैसे तुम सुदामा के छिनमे दरिद्र हरे
वैसे
उग्रसेन जी को बन्धन से छुडावोना।। जैसे तुम भारतमें भीष्म को प्रण रायो
वैसे
वसुदेवजी के वनधन छुडावना।।
प्रार्थना
(2) यह विनय जग
कार से अवतार लो अवतार लो
यह
प्रार्थना सरकार से अवतार लो अवतार लो प्रभु सुनिए करुण पुकार को अवतारलो अवतार लो
आवो जगत
उद्धार को अवतार लो अवतार लो सर्वत्र स्वार्थ अनीति है नही धर्म कर्म मे प्रीति है
भूले हैं
प्राणाधारको अवतार लो अवतार लो बढ रहा अत्याचार है मचरहा हाहा कार है
अब हरन भूमि
भारको अवतार लो अवतार लो गायें धरणी पर कट रही अरु धर्म संस्कृति मिटरही
करो घ्वंस
पापा चार को अवतारलो अवतारलो सर्वत्र सद्व्यवहार हो हरि भक्ति का विस्तार हो
धरि सगुन
वपु साकार को अवतार लो अवतार लो
सत्यव्रत
सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि विहितंच सत्यं
सत्यस्य
सत्यमृत सत्य नेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना।
इति
द्वितीयोऽध्यायः
Bhagwat katha in
hindi
[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]
भगवान
श्रीकृष्ण का प्राकट्य-श्रीशुकदेवजी बोले ब्रह्माजी द्वारा स्तुति करने के बाद
भगवान प्रकट हो गए
तमद्भुतं
बालक मम्बुजेक्षण चतुर्भुज शंख गदायुदायुधम्।
श्रीवत्स
लक्ष्मं गलशोभि कोस्तुभं पीताम्बरं सान्द्रपयोद सोभग।।
महार्ह
वैदूर्य किरीट कुण्डल त्विषा परिष्वक्त सहस्र कुन्तलं।
उददाम
कान्च्यांगद कंकणादिभि विरोच मानं वसुदेव ऐक्षत।।
शंख चक्र
गदा पद्म धारण कर चतुर्भज रूप में वसुदेव देवकी को दर्शन दिए। वसुदेव देवकी ने
उनकी प्रार्थना की।
विदितोअसि
भवान् साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
केवलानुभवानन्द
स्वरुप: सर्व बुद्धिदृक।।
वसुदेवजी
बोले प्रभो मैं समझ गया आप प्रकृति से परे साक्षात् भगवान हैं आपका स्वरुप केवल
आनंद और अनुभव है आप सब बुद्वियों के साक्षी हैं।
देवक्युवाचरूपं
यत् तत् प्राहुरव्यक्त माद्यं ब्रह्म ज्योतिर्निगुणं निर्विकारं।
सत्तामात्रं
निर्विशेषं निरीहं सत्वं साक्षाद् विष्णुरध्यात्म दीपः।।
देवकी बोली
प्रभो वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सब का कारण बताया है। जो ब्रह्म ज्योति
स्वरूप समस्त गुणों से रहित और विकार हीन हैं जिसे विशेषण रहित अनिर्वचनीय कहा गया
है वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं।
त्वमेव
पूर्वसर्गेअभूः पृश्नि: स्वायम्भुवे सति।
तदाय सुतपा
नाम प्रजापतिरकल्मषः।।
भगवान बोले
देवी स्वायम्भुव मनवन्तर मे तुम पृश्नि और वसुदेवजी सुतपा थ तुमने मेरी घोर तपस्या
की थी और मेरे प्रसन्न होने पर तुमने मेरे समान पुत्र मागा था इसलिए मैं आया हूं
देवकी बोली हमने तो पुत्र मांगा था आप तो बाप दादा बनकर आए हो क्योंकि बालक तो
छोटा सा दो हाथ वाला होता है। भगवान बोले मैं छोटा शिशु तो हो जाउंगा पर तुम्हें
मुझे गोकुल पहुचाना पड़ेगा।
इत्युक्त्वाअसीद्धरिस्तूष्णीं
भगवानात्म मायया।
पित्रोः
सम्पश्यतोः सद्यो वभूव प्राकृतः शिशु।।
इतना कह भगवान चुप हो गए और छोटा सा प्राकृत शिशु बन गए वसुदेव देवकी के बेडी हथकडी खुल गए तथा जेल के कपाट भी खुल गए सब पहरे दार सो गए वसुदेव जी ने भगवान को एक टोकने मे रखकर सिर पर रख लिया और गोकुल को प्रस्थान किया। आकाश मे बादल छा गए हल्की-हल्की बूंदे गिरने लगी शेषजी ने अपने फन से भगवान के उपर छाया कर ली।
यमुना में प्रवेश
किया तो यमुना भगवान के चरण स्पर्श के लिए उपर उठने लगी वसुदेवजी घबराये भगवान ने
अपना चरण नीचे बढ़ा दिया यमुना चरण स्पर्शकर शान्त हो गई वसुदेवजी गोकुल पहुचे
वहां यशोदा सो रही थी पास ही एक छोटी सी बालिका सो रही थी। वसुदेवजी बालक को वहा
सुला बालिका को ले मथुरा आगए बेडी हथकडी वापस लग गए। भगवान बन्धन खुलवाते है माया
बन्धन करती है।
इति
तृतीयोऽध्यायः