F Shrimad Bhagwat Puran श्रीमद भागवत पुराण - bhagwat kathanak
Shrimad Bhagwat Puran श्रीमद भागवत पुराण

bhagwat katha sikhe

Shrimad Bhagwat Puran श्रीमद भागवत पुराण

Shrimad Bhagwat Puran  श्रीमद भागवत पुराण

 Shrimad Bhagwat Puran  श्रीमद भागवत पुराण

[ अथ त्रिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण के विरह मे गोपियों की दशा-लता वृक्षों से पूछती हुई ढूढ़ने लगी चरण चिह्नों से पता चला कि राधा महारानी उनके साथ है गोपियां कृष्ण लीला करने लगी एक गोपी पूतना बन गई दूसरी कृष्ण ने पूतना को मार दिया ऐसे लीला करने लगी उधर भगवान राधा महारानी के साथ विहार करते करते राधाजी मानवती हो गई कहने लगी प्रभो अब मुझसे नहीं चला जाता मुझे कंधे पर चढा लें। 


भगवान बोले ठीक है कहकर वहां से भी अन्तरध्यान हो गए वह सखी भी मूर्च्छित होकर गिर गई जब अन्य गोपियां भगवान को ढूंढती हुई वहां पहुंची तो वहां राधा महारानी भी बेसुध पड़ी है वे समझ गई कि इनके साथ भी वही हुआ है जो हमारे साथ हुआ है।

इति त्रिंशोऽध्यायः


[ अथ एकत्रिंशोऽध्यायः ]

गोपिका गीत----

दर्शन देवो रास बिहारी प्रभु ढूढ़ रही गोपी सारी

महिमा अधिक बनी बृज की बैकुण्ठ हु ते बनवारी

सुन्दरता मृदुता की देवी लक्ष्मी रमत विहारी-दर्शन

तजि बैकुण्ठ वास बृज कीनो लक्ष्मी दासी तिहारी

नाथ गोपियां ढूढ़ रही है चरणाश्रित प्रभु थारी-दर्शन

प्रेम पूर्ण हिरदा के स्वामी बिनामोल की दासीतिहारी

कमल नयन सों घायल करना क्या वध नही मुरारी-दर्शन

काली दह जल अरु दावानल बृषभासुर व्योमासुर भारी

इन्द्रकोप से रक्षाकीनी बृज की आप असुरारी-दर्शन

यशोदा नन्दन मात्र नही हो जनजन के हितकारी

ब्रह्माजी की विनती सुनकर बृज प्रकटे गिरधारी-दर्शन

शरणागत भवबन्धन मेटत पूरण काम विहारी

हस्त कमल सिर उपर रखदो लक्ष्मीपति वनवारी-दर्शन

बीरशिरोमणि बृज जनरक्षक प्रेमीजन मदहारी

रूठोमत दर्शन दो स्वामी सुन्दरश्याम बिहारी-दर्शन

उरकी ज्वाला शान्त करो प्रभु रख दो चरण मुरारी

कालीफण पर नृत्य कियो जिन नाशक पाप विहारी-दर्शन

मधुर वाणी से मोहित करते ऋषिमुनि तनुधारी

अधरामृत कापान करादो जीवन देवो खरारी। दर्शन

पापताप की मेटनहारी लीला कथा तुम्हारी

ऋषिमुनि जन गान करत हैं लीलामंगलकारी। दर्शन

दर्शन परसन का सुखदीना इकदिन हे गिरधारी।

सुनलो कपटी मित्र आजवे दुखी विरह की मारी। दर्शन

कोमलचरण विचरणबन करते दुखीकरत मनभारी

धूषरधूरिमुख दर्शनदेदो विनती यहीहमारी। दर्शन

तप्त ह्रदय को शान्तकरो उररखदो चरणमुरारी

शरणागत के पूर्णकाम प्रभु जन के कष्टनिवारी। दर्शन

अधरामृत का पान करादो विरह मिटावन हारी

जिनकोनित पीवतबांसुरिया आसक्तिमिटावनहारी। दर्शन

पतिसुतभ्रात कुटुम्ब तजे हम तेरे हित बनवारी

निषाकाल में छोड़ गए विरहवन्त दुखी बृजनारी। दर्शन

हंसीठिठोली करते मोहन प्रेमभरी मुस्कान तिहारी

श्रीनिवास वक्षस्थल उपर सब गोपीजन वारी। दर्शन

दुख संताप मिटाने वाली प्रभु अभिव्यक्ति तुम्हारी

ह्रदयरोग को दूर करो दे दो औषधि बनवारी। दर्शन

स्तन कठोर है चरण कमल सम कोमल कुंजविहारी

कंकडपत्थर कैसे सहेगें मन अधीर गिरधारी। दर्शन

गाती रोती और विलखती गोपी करत पुकारी

दास भागवत दर्शन दीने गोपी भई सुखारी। दर्शन

इति एकत्रिंशोऽध्याय

[ अथ द्वात्रिंशोऽध्यायः ]

भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सान्त्वना देना-

इति गोप्य: प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा

ससदुः सुस्वरं राजन् कृष्ण दर्शन लालसा

तासामाविरभूच्छौरिः स्वयमान मुखाम्बुजः

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथ मन्मथ:

इस प्रकार गोपी भगवान के दर्शन की लालसा से उंचे स्वर से जोरजोर से रोने लगी तो साक्षात् कामदेव के समान भगवान प्रकट हो गए गोपियों के शरीर में प्राण आ गए सभी गोपियों को ह्रदय से लगा लिया भगवान बोले गोपियों अब महा रास होगा।

इति द्वात्रिंशोऽध्यायः


[ अथ त्रयत्रिंशोऽध्यायः ]

महारास निरतत रास मे गोपाल।

वंशीवट जमुना पुलिन पर शरद शशि उजियार

मोर मुकुट सु शीश सोहे तिलक राजे भाल

श्रवण कुण्डल वक्ष धारे वैजयन्ति च माल

मन्द मन्द सुख सुगन्धित पवन शीतल चाल

सरस सारंगी पखावज बाजत बीन रसाल

ताताथेइ ताताथेइ चरण धरत दयाल

देव सब छाये विमानन दरश हित नन्दलाल

गति विसारी इन्दु निरखत बजत मधुरे ताल

इति त्रयत्रिंशोऽध्यायः

 Shrimad Bhagwat Puran  श्रीमद भागवत पुराण


[ अथ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ]

सुदर्शन और शंख चूड का उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एकबार सब बृजवासी नन्द बाबा के साथ अम्बिका वन में शिवजी के दर्शनों हेतु गए ओर वहीं रात्री निवास किया वहाँ एक अजगर रहता था उसने रात में नन्द बाबा को आकर पकड़ लिया बाबा के चिल्लाने पर सब जग गए भगवान भी आ गए उस अजगर को अपना चरण छुआकर उद्धार कर दिया वह एक विद्याधर था शाप वश सर्प बना था। 


भगवान को प्रणाम कर अपने लोक को चला गया। एक दिन कृष्ण बलराम वन में गाये चरा रहे थे कि एक शंख चूड नाम का दैत्य गोपियों को हरण कर ले गया गोपियों के रोने की आवाज सुन भगवान ने उस दैत्य के मस्तक की मणि निकाल ली ओर उसे मार दिया और गोपियों को छुडा लिया।

इति चतुस्त्रिंशोऽध्यायः


[ अथ पंचत्रिंशोऽध्यायः ]

युगल गीत-----

जोरस बरसरह्यो बृजमाहि सोरस तिहलोकन मे नाही

सकरीगली बनीपरवतकी दधि लेचली कुवरि कीरतकी

आगे गाय चरत गिरधर की देगें सखा सिखाय। जोरस

देजादान कुवरि मोहन को तब छोडूं तेरे गोहन को

राज महाबनमे गिरधर को दान लेयगें धाय। जोरस

इनके संग सखी मदमाती उनके संग सखा उत्पाती

घेरलइ ग्वालिन मदमाती मनमे अति हर्षाय। जोरस

सुरतेतीसनकी मतिभोरी भजके चले सब बृजकी ओरी

देख देख या बृज की खोरी ब्रह्मादिक ललचाय। जोरस

इति पंचत्रिंशोऽध्यायः


[ अथ षट् त्रिंशोऽध्यायः ]

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का अक्रूरजी को बृज भेजना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है एक दिन अरिष्टासुर नाम का राक्षस बैल का रूप धारण कर अपने सीगों से बृज वासियों को मारता हुआ उपद्रव मचाने लगा खुरों से भूमि को खोदता हुआ लोगों को डराने लगा भगवान ने उसके दोनो सीगं पकड कर घुमाकर पछाड दिया। 


एक दिन नारदजी कंस के पास आ गए और समाचार पूछे कंस ने बताया कि प्रभो जितने भी राक्षसों को बृज में भेजा एक भी वापस नहीं आया नारदजी बोले यही तो गलती हुई अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है। उन्हे यहाँ बुलावो और अपना कार्य सिद्ध करो कह कर नारदजी चले गए कंस ने कृष्ण बलराम को मथुरा लाने के लिए अक्रूरजी को बृज में भेजने का निश्चय किया।

इति षट्त्रिंशोऽध्यायः


[ अथ सप्तत्रिंशोऽध्यायः ]

केशी और व्योमासुर का उद्धार-नारदजी द्वारा भगवान की स्तुति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित्! कंस का भेजा हुआ केशी नाम का दैत्य घोड़े का रूप बनाकर आया वह दुलत्ती फेंकता हुआ लोगों को काटता हआ उपद्रव मचाने लगा वह भगवान की और मुँह फैलाकर दौड़ा भगवान ने अपना हाथ उसके मुँह में दे दिया और मुँह में ही उसे इतना फैलाया कि उसका स्वांस रुक गया और वह समाप्त हो गया।

 

एक दिन एक व्योमा सुर नाम का राक्षस भी ग्वाल बनकर भगवान के साथ ग्वाल मण्डली में जाकर मिल गया और सब भेड़ चोर खेल खेलने लगे इस खेल में कुछ ग्वाल भेड़ बन गए कुछ रक्षक कुछ चोर बन गए चोर भेडों को उठाकर ले जाते और दूर बैठा आते वह राक्षस भेड़ बने ग्वालों को उठाकर एक गुफा में बन्द कर आता ऐसे कई ग्वालों को ले गया अन्त में बलरामजी को जब उठाकर ले जा रहा था वे समझ गए और एक मुष्टिका में उसके प्राणान्त कर दिए।


नारदजी कंस को समझाकर कि कृष्ण बलराम को मथुरा बुलावो वे सीधे भगवान के पास पहुचे और कहा प्रभो अब समय आ गया है मथुरा पधार कर मुष्टिक चाणूर ओर कंस को समाप्त करें।

इति सप्तत्रिंशोऽध्यायः

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 Shrimad Bhagwat Puran  श्रीमद भागवत पुराण


[ अथ अष्टात्रिंशोऽध्यायः ]

अक्रूरजी की बृजयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि कंस का आदेश सुन अक्रूरजी वृन्दावन जाने की तैयारी करने लगे और प्रात: होने की प्रतिक्षा करने लगे कल मैं भगवान के दर्शन करूंगा इस अभिलाषा में रात को नींद नही आई।


 प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में रथ में बैठकर प्रस्थान किया मार्ग में भगवान के दर्शनों की विभिन्न कल्पनाएँ करते हए संध्या को बृज में पहुंचे तब कृष्ण बलराम गायें चराकर लोटे ही थे भगवान ने अक्रूरजी को प्रणाम किया अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को गले से लगा लिया।

इति अष्टात्रिंशोऽध्याय


[ अथ एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्णबलराम का मथुरा गमन-रात में अक्रूरजी का खूब सम्मान किया भोजन कराया दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे नन्द यशोदा अक्रूरजी से कर कंस के राज्य में कैसे रहते है पूछा अक्रूरजी बोले जैसे दांतों में जीभ रहती है उसी तरह अक्रूरजी ने जब यह बताया कि कंस ने कृष्ण बलरामजी को मथुरा बुलाया है यह बात नन्द यशोदा को अच्छी नही लगी किंतु तत्काल ही कृष्ण बलराम बोले मैया हम अवश्य जावेगें और प्रात: होते ही रथ में सवार हो गए जब गोपियों को पता चला वे भी रथ के मार्ग में आकर सो गई अक्रूरजी ने रथ को दूसरे मार्ग से लेकर प्रस्थान किया और यमुना किनारे पहुँच गए जहां कृष्ण बलराम रथ में बैठकर कलेउ करने लगे ओर अक्रूरजी ने यमुना में डुबकी लगाई तो देखा कृष्ण बलराम जल में है जब रथ में देखा तो वहां भी है वे भगवान की महिमा को याद करने लगे।

इति एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः


[ अथ चत्वारिंशोऽध्यायः ]

अक्रूरजी द्वारा भगवान की स्तुति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित् ! जब अक्रूरजी ने भगवान को रथ में और जल में दोनों जगह देखा तो उन्हें भगवान की महिमा मालुम हुई वे गदगद वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे प्रभो आप कितने दयालु हैं हम जैसे तुच्छों पर भी आपकी कृपा है मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

 

इति चत्वारिंशोऽध्याय:


 

[ अथ एकचत्वारिंशोऽध्यायः ]

श्रीकृष्ण का मथुरा प्रवेश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं राजन् भगवान की स्तुति कर अक्रूरजी रथ पर चढ़े और मथुरा की ओर प्रस्थान किया जब वे मथुरा की सीमा में प्रवेश किए रथ से उतर गए और अक्रूरजी से कहा अक्रूरजी अब आप रथ लेकर अपने घर को जावें अब हम पैदल ही ग्वालबालों के साथ मथुराजी के दर्शन करते हुए आवेगें अक्रूरजी को विदा किया तब तक ग्वालबाल भी वहां आ गए और सबने मिलकर मथुरा जी में प्रवेश किया सर्व प्रथम उन्हें एक धोबी मिला भगवान बोले धोबी क्या तुम हमें राजसी वस्त्र दे सकते हो इस पर धोबी बोला गांव के गंवारो तुमने कभी वस्त्र देखे हैं यह वही रामावतार वाला धोबी जिसने सीता के चरित्र के प्रति ऐसे शंका की थी भगवान ने एक तमाचे में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और उसके वस्त्र ले लिए पास ही एक दर्जी भगवान का भक्त था उसने प्रार्थना की और उन वस्त्रों को ग्वालों के नाप के बना दिए सुन्दर वस्त्र पहन कर आगे बढे एक सुदामा नाम का माली भगवान के दर्शनों की अभिलाषा कर रहा था उसको दर्शन देकर उससे माला पहनी सुदामा को भक्ति का वरदान दिया।

 

इति एकोचत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ]

 

कुब्जा पर कृपा और धनुष भंग-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! सुदामा माली को वरदान देकर भगवान आगे बढ़े जहां कंस की दासी कुब्जा जिसकी कमर टेडी थी जो सोने के कटोरे में चन्दन लेकर नित्य कंस को देती थी के पास पहुँचे कुबजा प्रतिक्षा कर रही थी कि यदि आज मेरे उपर भगवान कृपा करेगें तो यह चन्दन आज मैं उनको लगाउगी भगवान के पहुंचने पर कुब्जा ने उन्हें चन्दन चर्चित किया भगवान ने उसे सीधी और सुन्दर बना दिया और आगे बढे जहां धनुष यज्ञ का मैदान था भगवान ने बलरामजी से पूछा दादा यहां क्या है? बलराम जी बोले कृष्ण यह वही धनुष है जिसे कल तोड़ा जावेगा भगवान बोले दादा यदि आप कहें तो कल का काम आज ही करआउं और अनेक पहरे दारों के बीच में एक छलांग लगाकर कूद गए ओर धनुष के तीन टुकडे कर दिए चारों ओर हाहा कार हो गया कंस घबरा गया और पहरे दारों को डांटने लगा। कृष्ण बलराम अपने डेरे में जहां नन्दादि अन्य बृजवासी ठहरे थे आ गए और विश्राम किया।

 

इति द्विचत्वरिंशोऽध्यायः

[ अथ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ]

कुवललिया पीड का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश-प्रात: काल होते ही सब लोग अखाडों पर जमा होने लगे कृष्ण बलराम भी अखाडे की ओर चल दिए मथुरावासी सब भगवान की प्रशंसा कर रहे थे और भगवान के दर्शन कर धन्य हो रहे थे जब भगवान अखाडे के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो देखा एक विशाल काय हाथी द्वार पर खडा है भगवान ने महावत से कहा हाथी को हटावो ताकि हम भीतर जावें महावत बोला हमने तो सुना है तम कई हाथियों का बल रखते हो इस हाथी को नहीं हटा सकते भगवान ने हाथी की पूछ पकड़ कर पहले तो कुछ समय खेल किया फिर सूंड पकड़कर घुमाकर भूमि पर पछाड़ दिया और अखाडे में प्रवेश किया तो चाणूर और मुष्टिक ने उनसे कहा आवो तुम हमारे साथ मल्लयुद्ध करो भगवान बोले हम तो किशोर बालक हैं आप महान योद्धा युद्ध तो बराबर वालों के साथ होता है चाणूर बोले जानते है आप मल्लोके मल्ल हैं अभी-अभी आपने दस हजार हाथियों का बल रखने वाले कुवलिया पीड हाथी को मारा है।

इति त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः

bhagwat katha in hindi

[ अथ चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ]

चाणूर मुष्टिक और कंस का उद्धार-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि चाणूर और मुष्टिक की बात सुन कर पहले मुष्टिक के साथ बलरामजी भिड़ गए दर्शकों को प्रसन्न करने के लिए पहले कई दावोंपेच दिखाए और अन्त में मुष्टिक को उठाकर ऐसा पटका कि उसके प्राणान्त हो गए। अब तो चार के साथ भगवान का द्वन्द युद्ध प्रारम्भ हआ उसी प्रकार दर्शकों को लुभाने के लिए अनेक खेल खेलने लगे कभी वे गिर जाते तो कभी उसे गिरा देते दर्शक वाह वाह कर रहे थे अन्त में चार को उठाकर भूमिपर दे मारा वह समाप्त हो गया कंस बड़बड़ाने लगा दोनों भाइयों को पकड लो बज वासियों को बन्दी बना लो तब तक भगवान कंस के उंचे मंच पर जा चढे और कंस के केश पकड़कर मंच से नीचे कूद गए और उसकी छाती पर बैठ और बोले तूने मेरी माँ के केश खेंचकर रथ से नीचे गिराया था न कंस की छाती में एक घूसा जमाया कि उसके प्राणान्त हो गए सारे राक्षस भाग गए भगवान ने पहले उग्रसेनजी को जेल से रिहा किया फिर अपने माता पिता को बन्दी से छुड़ाया नानाजी को राज्य दे कंस का अन्तिम संस्कार किया।

 

इति चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः

[ अथ पञ्चचत्वारिंशोअध्यायः ]

श्रीकृष्णबलराम का यज्ञोपवीत संस्कार और गुरुकुल प्रवेश-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि इस समय भगवान बारहवें वर्ष में चल रहे थे क्षत्रियों का यज्ञोपवीत संस्कार बारह वर्ष तक हो जाना चाहिए अत: उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर उन्हें उज्जैन मे सांदीपन गुरु के यहां भेज दिए गए वहां उन्होंने अल्प काल में सब विद्या पढ़ ली और गुरु के मरे हुए पुत्र को लाकर गुरु दक्षिणा दी।

 

इति पंचचत्वारिंशोअध्यायः

[ अथ षट्चत्वारिंशोअध्यायः ]

 

उद्धव की ब्रजयात्रा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं राजन् एक दिन भगवान को ब्रज की याद आइ इतने में उद्धवजी आ गए भगवान को चिन्तन मग्न देख वे बोले प्रभो आपका मन कहीं अन्यत्र है खोये खोये क्यों हैं तब भगवान बोले

 

उधो ब्रज बिसरत मोहि नाहीं

हस सुता की सुन्दरकलरव अरु तरुवन की छायीं

वे सुर भी वे बच्छ दोहनी खिरक दुहावन जाहीं

ग्वालबाल सब करत कोलाहल नाचत गहगह बाही

यह मथुरा कंचन की नगरी मणिमुक्ता जिन माही

जबहि सुरतआवतवा सुख की जिय उमगत सुखनाही

अगणित भांति करीबहु लीला यशोदानन्द निवाई

सूरदास प्रभुरहे मौन हवे यहकह कह पछिताई

 

भगवान बोले उद्धव ब्रज वसियों को समझाने ब्रज जावो उद्धवजी ब्रज में संध्या को पहुंचे नन्द बाबा ने उनका स्वागत किया और कुशल पूछी उन्हें भोजन कराया और विश्राम किया।

इति षट्चत्वारिंशोऽध्याय

[ अथ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ]

उद्धव गोपी संवाद-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है प्रात: होते ही जब गोपियों ने देखाकि नन्द बाबा के यहां एक रथ खड़ा है भगवान आए हैं ऐसा सोच सब गोपियां वहां आ गई जब देखा कि भगवान नही उनके सखा आए हैं सबने उनको घेर लिया और उनसे भगवान के समाचार पूछे,

उद्धवजी बोलेसुनो गोपी हरिको संदेश

करिसमाधि अन्तरगति ध्यावहु यह उनको उपदेश

वहअविगत अविनाशी पूरण सब घट रह्यो समाई

निर्गुण ज्ञान बिन मुक्ति नहोवे वेद पुरणन गाई

सगुण रूप तजि निर्गुण ध्यावो इक चित इकमन लाई

यह उपाय करि विरह तजो तुम मिले ब्रह्म तव आई

दुसह सुनत संदेश माधव को गोपीजन बिलखानी

सूर विरह की कौन चलावे डूबत हैं बिनु पानी

उद्धवजी का एसे संदेश सुन गोपियां बोली

उधो मन न भए दसबीस

एक हुतो सो गयो श्याम संग को अवराधे इश

इन्द्रिय शिथिल भाइ केशव बिन ज्यों देही बिन शीश

आशा लगी रहत तन खासा जीवो कोटि बरीश

तुमतो सखा श्यामसुन्दर के सकल जोग के इश

सूरदास वा सुख की महिमा जा पूछो जगदीश

 

ब्रज गोपियों के ऐसे प्रेम भरे वचन सुन उद्धव गद गद हो गए और बोले इन ब्रज गोपियों के चरण धूलि को प्रणाम करता हूं गोपियां और नन्द बाबा से आज्ञा ले वे मथुरा आ गए।

इति सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

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भागवत सप्ताहिक कथा / भाग -1

 Shrimad Bhagwat Puran  श्रीमद भागवत पुराण




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