भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ]
भगवान का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना-श्रीशुकदेवजी बोले भगवान ने अक्रूरजी से जब वे ब्रज से मथुरा लाए थे वायदा किया था कि वे अक्रूरजी के घर आयेगें तो भगवान अक्रूरजी के घर पहुंचे अक्रूरजी ने उनका बड़ा सत्कार किया और कहा प्रभु मैं आपको भूलूं नहीं ऐसी कृपा करें। भगवान वहां से कुब्जा के घर भी पहुंचे और उसका मनोरथ सिद्ध किया।
इति
अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः
[ अथ एकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः ]
अक्रूरजी का हस्तिनापुर जाना-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि एक बार भगवान ने अक्रूरजी को यह जानने के लिए कि पाण्डु की मृत्यु के बाद धृतराष्ट्र पाण्डु पुत्रों के साथ कैसा व्यवहार करता है हस्तिनापुर भेजा था जब अक्रूरजी ने वहां देखाकि पाण्डवों के साथ धृतराष्ट्र का व्यवहार ठीक नही है यह जानकारी आकर भगवान को दें दी।
इति एकोनपंचाशत्तमोऽध्यायः
इति दशम
स्कन्ध पूर्वार्ध समाप्त
अथ दशम स्कन्ध उत्तरार्ध
[ अथ पन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि परीक्षित्! कंस की दो रानियाँ थी अस्ति और प्राप्ति ये कंस के मरजाने के बाद अपने पिता जरासंध के पास गई और बोली पिताजी हमें कृष्ण ने विधवा बना दिया यह सुन जरासंध ने तेबीस अक्षोहिणि सेना लेकर मथुरा को चारों ओर से घेर लिया भगवान ने भी इस बहाने दुष्टों का संहार करने का मानस बनाया और बलरामजी के साथ मथुरा से बाहर निकल जरासंध से युद्ध करने लगे बलरामजी ने हल मुसल से जरासंध की सारी सेना का संहार कर दिया और जरासंध को पकड़ लिया उसे मारने ही वाले थे कि भगवान ने उन्हें रोक दिया और कहा दादा अभी यह और दुष्टों को लेकर आयेगा अत: सब दुष्टों को मारने के बाद ही इसे मारेगें बलरामजी ने उसे छोड़ दिया वह फिर सत्रह बार तेबीस-तेबीस अक्षोहिणि सेना लेकर आया और कृष्ण-बलराम ने सेना का सफाया कर जरासंध को छोड़ दिया अठारहवीं बार जरासंध ने कालयवन के साथ मथुरा पर चढाई की अब की बार भगवान ने विश्वकर्मा के सहयोग से समुद्र के बीच द्वारकापुरी का निर्माण कर वहाँ समस्त मथुरा वासियों को भेज दिया।
इति
पञ्चाशतमोऽध्यायः
[ अथ एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ]
कालयवन का भस्म होना मुचुकुन्द की कथा-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परीक्षित! मथुरा वासियों को द्वारका भेज दोनों भाई कृष्णबलराम मथुरा से बाहर आए कालयवन भगवान को देखते ही पहिचान गए कि यही कृष्ण है मैं इसी के साथ युद्ध करूगाँ और वह भगवान की ओर दौडा किन्तु भगवान उसका मुकाबला न कर पीछे मुड़कर भागने लगे कालयवन भी उनके पीछे भागने लगा भगवान एक गुफा में घुस गए वहां त्रेतायुग के राजा मुचुकुन्द सो रहे थे उस पर अपना डुपटा डाल भगवान आगे बढ़ गए जब कालयवन वहाँ पहुँचा तो दुपटा देख कृष्ण समझ कर बुरा भला कहने लगा मुचुकुन्द जग गए उनके देखते ही कालयवन जलकर भस्म हो गया मुचुकुन्द त्रेता में देवासुर संग्राम मे देवताओं की विजय करा कर सोये थे उन्हें यह वरदान था कि जो उन्हें जगाएगा जलकर भस्म हो जायेगा कालयवन के भस्म होते ही भगवान ने मुचुकुन्द को दर्शन दिया और उसे मुक्त कर भगवान ने उसे अगले जन्म में ब्राह्मण बनकर मुझे प्राप्त करोगें--
एकपन्चाशतमोऽध्याय
भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ द्विपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
द्वारका गमन बलरामजी का विवाह रुक्मणीजी का सन्देश लेकर ब्राह्मण का आना-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! भगवान ने जब बाहर आकर देखाकि जरासंध भी आ गया है और वह बलरामजी की तरफ दौड़ रहा है भगवान ने बलरामजी को संकेत किया और वे भी युद्ध छोड़ भाग खड़े हुए और दोनों भाई दौड़कर प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए जरासंध ने पर्वत के चारों ओर आग लगा दी और समझ लिया कि वे दोनों भाई जल कर भस्म हो गए।
भगवान ने वहाँ से छलांग लगाकर दोनों भाई द्वारका आ गए और आनंद से रहने लगे अब कृष्ण बलराम पूरे पच्चीस वर्ष के हो गए अतः भगवान ने विवाह का मानस बनाया पहले बलरामजी के विवाह के लिए रेवत राजा अपनी रेवती कन्या को ब्रह्माजी की आज्ञा से लेकर आया और उसका विवाह बलरामजी के साथ कर दिया।
राजाअसीद भीष्मको नाम विदर्भाधिपतिर्महान्
तस्य पन्चाभवन् पुत्राः कन्यका च वरानना।
रुक्म्यग्रजो रुक्मरथो रुक्मबाहुरनन्तरः
रुक्मकेशो रुक्ममाली रुक्मण्येषां स्वसा सती।।
शुकदेवजी वर्णन करते हैं कि विदर्भ देश के राजा भीष्म के पांच पुत्र और एक कन्या रुक्मणी थी रुक्मणी ने श्रीकृष्ण के गुणों को सुन रखा था अत: उसने मन ही मन उन्हें अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया लेकिन उसका बड़ा भाई रुक्मी उसे शिशुपाल को देना चाहता था यह जान रुक्मणी ने एक ब्राह्मण को पत्रिका लिखकर श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजा।
ब्राह्मण पत्रिका लेकर द्वारकापुरी पहुंचा और भगवान को रुक्मणी जी की पत्रिका ले जाकर दी और कहा प्रभो रुक्मणी को उसका भाई रुक्मी शिशुपाल को देना चाहता है जबकि रुक्मणी आपको चाहती है अत: चलकर रुक्मणी की रक्षा करें और आपका आदेश मुझे बताए।
इति द्विपन्चाशतमोऽध्यायः
bhagwat katha in hindi
[ अथ त्रिपन्चाशतमोऽध्यायः ]
रुक्मणी हरण-भगवान बोले मैं रुक्मणी की रक्षा करूंगा और अभी आपके साथ चलूगां भगवान ने अपना रथ मगवाकर ब्राह्मण को उसमें बैठाया और आप भी उसमें बैठकर प्रस्थान किया।
उधर रुक्मी ने शिशुपाल को लगन भेज दिया और शिशुपाल बहुत बड़ी सेना के साथ कुन्दनपुर को चारों ओर से घेर लिया रुक्मणी के विवाह के उपचार होने लगे किन्तु रुक्मणी न कोई शृंगार कर रही न मेंहदी लगा रही बल्कि भगवान की प्रतिक्षा कर रही हैं।
भगवान का रथ
जब कुन्दनपुर पहुंचा तो देखाकि कुंदनपुर को शिशुपाल ने चारों ओर से घेर रखा है वे
बाहर ही रुक गए और ब्राह्मण को रुक्मणी के पास भेज दिया ब्राह्मण से समाचार सुन
रुक्मणी बहुत प्रसन्न हुई और बोली---
आवो सखी आवो
मुझे मेंहदी लगादो
मुझे श्याम
सुन्दर की दुलहिन बनादो
सत्संग मे
मेरी भइ सगाई।
सतगुरु ने
मेरी बात चलाई
उनको बुलाके
हथलेवा जुडा दो। मुझे।
ऐसी पहनूं
चूडी जो कबहुं न टूटे
ऐसा वरुं
दुल्हा जो कबहुंन छूटे
अटल सुहाग
की बिन्दिया लगादो।मुझे।
ऐसी ओढूं
चुनरी जो रंग ना छूटे
प्रीति का
धागा कबहु न टूटे
आज मेरी
मोतियो से मांग भरादो। मुझे।
भक्ति का
सुरमा मैं आंखों मे लगाउगीं
दुनिया से
नाता तोड उसकी हो जाउंगी
सतगुरु को
बुलाके मेरे फेरे पडवादो। मुझे।
और समस्त
शृंगार कर गौरी पूजन के लिए प्रस्थान किया चारों ओर रक्षक चल रहे थे मन्दिर पहुंच
कर भगवान का ध्यान करने लगी इतने में भगवान आए और सबके देखते-देखते रुक्मणी को रथ
में बैठा कर ले गए जरा संध और शिशुपाल के सैनिक देखते ही रह गए।
इति
त्रिपन्चाशतमोऽध्यायः
भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ चतुःपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
शिशुपाल के
साथी राजाओं की और रुक्मी की हार-श्रीकृष्ण रुक्मणी विवाह श्रीशुकदेवजी वर्णन करते
हैं परीक्षित! शिशुपाल ने भगवान का पीछा किया किन्तु यादव सेना ने सबको परास्त कर
दिया रुक्मी यह प्रतिज्ञा कर कि मैं रुक्मणी को नहीं लाया तो कुन्दनपुर में प्रवेश
नही करुंगा भगवान के पास आए और युद्ध करने लगे भगवान ने उसे पकड कर रथ से बांध
लिया दया कर बलरामजी ने उसे छुड़ा दिया वह कुन्दनपुर नहीं गया और वहीं भोजकट गांव
बसाकर रहने लगा इस प्रकार भगवान ने रुक्मणी के साथ पाणिग्रहण संस्कार किया।
इति
चतुःपन्चाशतमोऽध्यायः
bhagwat katha in
hindi
[ अथ पन्चपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
प्रद्युम्न का जन्म और शम्बासुर का वध-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! जब शिवजी ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया तब रति ने शिवजी से प्रार्थना की तो शिवजी ने बताया कि द्वापर में कृष्ण के पुत्र के रुप मैं तुम्हारा पति जन्म लेगा और शम्बासुर की रसोई में तुम्हें मिलेगा तभी से रति शम्बासुर की रसोई में काम करने लगी उधर रुक्मणी के गर्भ से प्रथम पुत्र के रूप में प्रद्युम्नजी का जन्म हुआ जिसे जन्म ते ही शम्बासुर ले गया ओर समद में फेंक दिया जिसे एक मत्स्य निगल गया मछुवारों ने उसे पकड़कर शम्बासुर की रसोई में दे दिया रसोई में कार्यरत रति ने उसका पेट चीर प्रद्युम्न जी को निकाल लिया बड़े होने पर प्रद्युम्नजी ने शम्बासुर को मार रति से विवाह कर द्वारका आ गए।
इति
पन्चपन्चाशत्तमोऽध्यायः
[ अथ षट्पन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
स्यमन्तक मणि की कथा जाम्बवन्ती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! सत्राजित नाम का एक यादव सूर्य का भक्त था उसने सूर्य से एक मणि प्राप्त की थी जिसे गले में पहिन एक दिन वह भगवान कृष्ण के पास गया वहाँ अन्य यादव भी बैठे थे मणि देख वे सब बोले यह मणि भगवान के गले में कितनी सुन्दर लगेगी सत्राजित को लगा कि ये सब उसकी मणि को लेने में है वहां से वह उठकर चला गया वहाँ से उसका भाई प्रसेन मणि को पहन शिकार के लिए वन में चला गया जिसे एक शेर ने मार दिया जब प्रसेन नहीं लौटा तो सत्राजित को संदेह हो गया कि उसके भाई को कृष्ण ने मरवाकर मणि ले ली यह बात चारों ओर फैल गई तब तो भगवान कुछ मुख्य यादवों को साथ लेकर मणि को खोजने निकले जंगल में प्रसेन और उसका घोड़ा मरा हुआ मिला इसे एक शेर ने मार दिया शेर के पद चिह्नों को लेकर चले तो वह शेर भी कुछ दूरी पर मरा हुआ मिला लेकिन मणि वहाँ भी नही मिली उसे मारने वाला कोई रीछ था उसके पद चिह्नों को लेकर चले तो वह रीछ एक गुफा में घुस गया भगवान ने देखाकि गुफा में कोई खतरा हो सकता है अत: सब यादवों को गुफा के बाहर छोड़ अकेले गुफा में प्रवेश किया वहाँ देखा कि मणि से एक बालिका खेल रही है पास ही रिक्षराज जाम्बवन्त खड़ा है भगवान बोले रिक्षराज यह मणि हमारी है जाम्बवन्त बोले इसे मैं युद्ध में जीत कर लाया हूं यदि यह आपकी है तो युद्ध में जीत कर ले जावे भगवान जाम्बवन्त के साथ युद्ध करने लगे और अन्त में उसे परास्त कर दिया जाम्बवन्त भगवान को पहिचान गए और उनके चरणों में गिर गए और अपनी जाम्बवन्ती कन्या उन्हें समर्पित कर दी साथ में मणि उसके गले में डालदी भगवान गुफा से बाहर आए जहाँ यादव लोग उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे भगवान ने सबको मणि दिखादी और जाम्बवंती के विवाह की बात भी बता दी सबने जाकर मणि सत्राजित को दें दी। सत्राजित बहुत लज्जित हुआ अत: उसने अपनी सत्यभामा नामकी कन्या भगवान को ब्याह दी और वह मणि भगवान को दहेज में देना चाहा किन्तु भगवान ने नहीं ली।
इति
षट्पन्चाशत्तमोऽध्यायः
भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ सप्तपन्चाशत्तमोअध्यायः ]
स्यमन्तक
हरण शतधन्वा उद्धार अक्रूरजी को फिरसे द्वारका बुलाना-श्रीशुकदेवजी बोले जब मणि
सत्राजित को मिल गई तब कृतवर्मा और अक्रूरजी शतधन्वा से जाकर बोले देखो सत्राजित
ने तुम्हारे साथ कितना बड़ा धोखा किया है सत्यभामा जो तुम्हे देने जा रहे थे उसे
उसने कृष्ण को दे दी तुम उसे मार कर मणि प्राप्त करलो शतधन्वा ने उनके कहने में
आकर सोते हुए सत्राजित को मारकर मणि लेली किन्तु कृष्ण के भय से मणि अक्रूरजी की
तरफ फेंक कर धोड़े पर सवार हो वहाँ से भग गया जब भगवान को इस बात का पता चला तो
सत्यभामाजी को ढाढ़स बंधा वे शतधन्वा के पीछे भगे और मिथिलापुरी के नजदीक शतधन्वा
को मार गिराया पर उसके पास मणि नहीं मिली भगवान द्वारकापुरी लौट आये शतधन्वा के
मारे जाने की खबर सुन भय से अक्रूरजी और कृतवर्मा भी द्वारका छोड़ भग गए भगवान ने
अक्रूरजी को ढुढ़वाया और मणि के बारे में पूछा अक्रूरजी ने सब के सामने मणि मेरे
पास है सबको बता दिया इस प्रकार भगवान ने अपना कलंक दूर किया।
इति
सप्तपन्चाशत्तमोऽध्यायः
bhagwat katha in
hindi
भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ अष्टपन्चाशत्तमोऽध्यायः ]
श्रीकृष्ण के अन्यान्य विवाहों की कथा-श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित! एक समय भगवान कृष्ण हस्तिना पुर गए वहां वे अर्जुन के साथ यमुना किनारे भ्रमण कर रहे थे वहां एक सुन्दर कन्या तपस्या कर रही थी अर्जुन ने उससे पूछा कि आप कौन हैं उसने बताया कि मैं कालिन्दी हूं भगवान को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हूं भगवान ने उसे अपने रथ में बैठा लिया और द्वारका आकर उसके साथ विवाह किया इसके पश्चात् उज्जैन देश के राजा विन्द की कन्या मित्रविन्दा भगवान को पति रूप में चाहती थी।
भगवान ने उसका हरण कर उसके साथ विवाह किया। कौशल देश के राजा नग्नजित् की कन्या नाग्नजिती का विवाह भगवान ने सात बैलों को एक साथ नाथ पहनाकर कर लिया। कैकय देश के राजा की कन्या भद्रा का विवाह उसके भाईयों ने भगवान के साथ कर दिया। मद्रदेश के राजा की कन्या लक्ष्मणा का भी भगवान ने स्वयम्बर से हरण कर उसके साथ विवाह किया इस प्रकार ये भगवान की आठ पटरानियों के विवाह हुए।
इति
अष्टपन्चाशत्तमोऽध्यायः
[ अथ एकोनषष्टितमोऽध्यायः ]
भोमासुर का उद्धार, सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ भगवान का विवाह-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित्! भोमासुर नाम के राक्षस ने वरुण का छत्र इन्द्र की माता अदिति के कुण्डल हरण कर लिए तथा सोलह हजार एक सौ कन्याओं को बन्दी बना रखा था।
अत: इन्द्र भगवान के पास गया और कहा प्रभु यह
राक्षस देवताओं को बहुत सता रहा है तब भगवान ने गरुड़ पर सवार होकर सत्यभामाजी के
साथ उसे मारने के लिए प्रस्थान किया उसका किला बड़ा मजबूत था जिसे तोड़कर भगवान ने
उस राक्षस को मार सोलह हजार एक सों कन्याओं को मुक्त किया वे सबकी सब भगवान को पति
रूप में चाहती थी उनका अभिप्राय जान भगवान ने सब को द्वारका भेज दिया और आप सीधे
अमरावती गए इन्द्र की माता अदिति के कुण्डल देकर इन्द्र को परास्त कर एक कल्प
वृक्ष लेकर द्वारका आगए और वहां आकर सोलह हजार एक सौ कन्याओं के साथ विवाह किया।
इति
एकोनषष्ठितमोऽध्यायः
भागवत पुराण हिंदी Bhagwat Puran Hindi
[ अथ षष्टित्तमोऽध्यायः ]
श्रीकृष्ण रुक्मणि संवाद-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित् एक बार भगवान श्रीकृष्ण रुक्मणि जी के महलों में पधारे और उनसे कुछ मनोरंजन करने लगे कहने लगे देवी शिशुपाल सरीखे योद्धाओं को छोड़ तुमने मेरे साथ विवाह कर बहुत बड़ी गलती की शायद तुम उसके लिए पश्चाताप भी कर रही होंगी तो मैं कहता हूँ अभी भी समय है तुम उन्हें प्राप्त करने में स्वतन्त्र हो भगवान के मुख से ऐसी वाणी सुन रुक्मणि बेहोश होकर गिर गई भगवान उन्हे पंखा झलने लगे होश आने पर कहा अरे रुक्मणि मैं तो तुमसे मनोरंजन कर रहा था।
इति
षष्टितमोऽध्यायः
[ अथ एकषष्टित्तमोअध्यायः ]
श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्! भगवान की सोलह हजार एक सौ आठ महारानियों के प्रत्येक के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए रुक्मणीजी के भाई रुक्मी की पुत्री रुक्मवती ने स्वयम्बर में प्रद्युम्नजी के गले में वरमाला डाल दी उपस्थित राजाओं ने इसका विरोध किया तब सबको जीत कर रुक्मवती का हरण कर लाए।
रुक्मी ने अपनी बहिन को प्रसन्न कर
पुराने बैर को मिटाने के लिए प्रद्युम्नजी को अपनी बेटी ब्याह दी तथा अपनी पोत्री
अनिरुद्धजी को ब्याह दी अनिरुद्धजी के विवाह में बलरामजी व रुक्मी में विवाद हो
गया रुक्मी चासर के खेल में बईमानी करने लगा तो बलरामजी ने रुक्मी का वध कर दिया।
इति
एकषष्टित्तमोऽध्यायः