श्रीमद् भागवत कथा पुराण हिंदी में
[ अथ द्वयशीतितमोऽध्यायः ]
भगवान कृष्ण बलराम से गोप गोपियों की भेंट-श्रीशुकदेवजी बोले परीक्षित! एक समय सर्व ग्रास सूर्य ग्रहण हुआ जिसमें भगवान के साथ समस्त यादव कुरु क्षेत्र गए तथा समस्त बृजवासी भी वहाँ आए उधर पाण्डव भी वहाँ आए बहुत दिनों पश्चात सब मिल कर बड़े प्रसन्न हुए सबकी पुरानी यादें ताजा हो गई।
इति
द्वयशीतितमोऽध्याय:
[ अथ त्रयशीतितमोऽध्यायः ]
द्रोपदी की पटरानियों के साथ बातचीत-श्रीशुकदेवजी बोले राजन! द्रोपदी भगवान की पटरानियों से मिली तथा उनसे भगवान के साथ विवाह होने की बात पूछने लगी सभी पटरानियों ने अपने-अपने विवाह की कथा द्रोपदी को सुनाई।
इति त्रयशीतितमोऽध्याय:
[ अथ चतुरशीतितमोऽध्यायः ]
वसुदेवजी का
यज्ञोत्सव-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि कुरुक्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि भी पधारे
थे उनसे प्रार्थना कर वसुदेवजी ने एक बड़ा यज्ञ किया और खूब दान पुण्य किया।
इति
चतुरशीतितमोऽध्यायः
[ अथ पन्चाशीतितमोऽध्यायः ]
भगवान
द्वारा वसुदेवजी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकी के छः पुत्रों को लोटा
लाना-श्रीशुकदेवजीवर्णन करते है कि कुरुक्षेत्र में भगवान ने अपने पिता वसुदेवजी
को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया तथा देवकी की प्रार्थना पर उनके मरे हुए छ: पुत्रों
को लाकर भगवान ने उनकी इच्छापूर्ण की वे आए और देवकी का स्तनपान कर चले गए।
इति
पन्चाशीतितमोऽध्यायः
श्रीमद् भागवत कथा पुराण हिंदी में
[ अथ षडशीतितमोऽध्यायः ]
सुभद्रा
हरण-श्रीशुकदेवजी कहते है कि कृष्ण बलराम की एक बहन थी उसका नाम सुभद्रा था
बलरामजी उसका विवाह अपने शिष्य दुर्योधन के साथ करना चाहते थे किन्तु सुभद्रा
अर्जुन को चाहती थी और भगवान भी अर्जुन को ही चाहते थे अत: वसुदेवजी और भगवान की
सहमति से अर्जुन ने सुभद्रा का हरण कर लिया इस पर बलराम जी बहुत बिगड़े अन्त में
भगवान ने उन्हे समझा बुझा कर शान्त कर दिया।
इति
षडशीतितमोऽध्याय:
[ अथ सप्तशीतितमोऽध्यायः ]
वेद स्तुति-श्रीशुकदेवजी
वर्णन करते है कि जब प्रलय काल में भगवान योग निद्रा में शयन करते है तब प्रलय की
समप्ति पर वेद उन्हे जगाते है।
जयजय जयजा
मजित दोष गृभीत गुणां
त्वमसि
यदात्मना समवरुद्ध समस्त भगः
अगजग दोकसा
मखिल शक्त्य ववोधकते
क्वचिदजयात्मना
चचरतोऽनुचरेनिगम:
वेद कहते है
हे अजित आप ही सर्वश्रेष्ठ है आप पर कोई विजय प्राप्त नही कर सकता आपकी जय हो जय
हो आप समस्त ऐश्वर्य पूर्ण है।
इति
सप्तशीतितमोऽध्यायः
[ अथ अष्टाशीतितमोऽध्यायः ]
शिवजी का
संकट मोचन-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय बृकासुर नाम का एक राक्षस शिवजी की घोर तपस्या
करने लगा उस पर प्रसन्न होकर उसे वरदान माँगने को कहा उसने वरदान मे माँगा कि मैं
जिस के मस्तक पर हाथ रख दूँ वही भस्म हो जावे शिवजी ने एव मस्तु कह दिया वह शिवजी
पर ही हाथ रखने को तैयार हो गया शिवजी वहाँ से भागे पीछे-पीछे वह राक्षस भी भागने
लगा शिवजी को भागते देख भगवान को दया आ गई वे रास्ते में ही राक्षस को मिल गए और
बोले राक्षसराज कहाँ जा रहे हो उसने अपना अभिप्राय बताया तुमने शिवजी की बात पर
विश्वास कैसे कर लिया वे तो दक्ष शाप से वरदान देने की क्षमता खो चुके है यदि
विश्वास नहीं तो अपने सिर पर हाथ रखकर देख लो वह भगवान की बातों से ऐसा मोहित हआ
कि अपने ही सिर पर हाथ रखकर भस्म हो गया।
इति
अष्टाशीतितमोऽध्यायः
[ अथ एकोननवतितमोऽध्यायः ]
भृगुजीके द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा-श्रीशुकदेवजी बोले एक समय ऋषियों की सभा में यह बात आई की त्रिदेवों में बड़े कौन है भृगुजी ने परीक्षा का जिम्मा लिया वे प्रथम शिवजी के पास गए और उनको प्रणाम नहीं किया शिवजी क्रोधित हो मारने को दौड़े भृगुजी वहाँ से आ गए और ब्रह्माजी के पास गए वहाँ भी उन्हे प्रणाम नहीं किया बल्कि उनके बराबर जाकर बैठ गए ब्रह्माजी भी क्रोधित होकर उन्हे मारने दौड़े वे वहाँ से भगवान विष्णु के पास गए और जाकर उनकी छाती में लात मारी भगवान ने ऋषि के चरण पकड़ लिए और सहलाने लगे मेरी छाती बडी कठोर है।
आपके चरण कोमल है लगी होगी बस त्रिदेवों की परीक्षा हो
गई भगवान विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ है।
इति
एकोननवतितमोऽध्यायः
[ अथ नवतितमोऽध्यायः ]
भगवान
कृष्णके लीला विहार का वर्णन-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है कि द्वारका में भगवान
अनेक लीला विहार कर रहे हैं भगवान ने बारह वर्ष की लीला बृज में तेरह वर्ष लीला
मथुरा में तथा एक सौ वर्ष की लीला द्वारका में की।
इति नवतितमोऽध्यायः
इति दशम स्कन्ध
श्रीमद् भागवत कथा पुराण हिंदी में
अथ एकादशः
स्कन्धः प्रारम्भ
[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]
यदुवंशियों
को ऋषियों का शाप--
कृत्वा
दैत्य वधं कृष्ण: सरामो यदुभिर्वृतः
भुवोअवतारयद्
भारं जविष्ठं जनयन कलिम्
श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित् भगवान श्रीकृष्ण बलराम ने बहुत से दैत्यों का वध किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी आपसी कलह पैदाकर पृथ्वी का भार उतार दिया फिर भी अजेय यदुवंश अभी मौजूद जान भगवान ने उसे भी समाप्त करने का मानस बनाया।
एक दिन यदवंश के उदण्ड
बालक वहाँ पहुच गए जहाँ दुर्वासादि ऋषि प्रभास क्षेत्र में तपस्या कर रहे थे
उन्होंने साम्ब को स्त्री के वस्त्र पहनाकर उसका बड़ा पेट बनाकर उनके सामने
प्रस्तुत कर बोले यह स्त्री गर्भवती है इसके बालक होगा या बालिका बतावें इस पर
दुर्वासा बोले इसके तुम्हारे कुल का नाशक मूसल पैदा होगा जब पेट खोल कर देखा तो
उसमें से एक मूसल निकला वे सब डर गए और डरते-डरते उग्रसेनजी के पास गए और उन्हें
सारा बृतान्त सुनाया उग्रसेनजी की आज्ञा से उस लोहे के मूसल को घिस-घिस कर चूर्ण
कर समुद्र में फेंक दिया चूर्ण समुद्र की लहरों से किनारे आकर एक घास बन गया।
इति
प्रथमोऽध्यायः
[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]
वसुदेवजी के पास नारदजी का आना तथा उन्हे राजा जनक तथा नौ योगेश्वरों का संवाद सुनाना-श्रीशुकदेवजी कहते है कुरुनन्दन! एक समय नारदजी द्वारका में वसुदेवजी के यहाँ पधारे वसुदेवजी ने उनका स्वागत किया और पूछा प्रभो मैंने तपस्या कर भगवान को पुत्र रूप में चाहा था सो पुत्र रूप में मिल गए किन्तु मैंने उन्हें पुत्र ही समझा तत्व से नही समझा कपया उन्हे तत्व से समझाने की कृपा करें।
नारदजी बोले कि हे वसुदेव जी इसके लिए मैं तुम्हे राजा जनक तथा नो योगेश्वरों की कथा सुनाता हूँ ध्यान से सनिए एक समय राजा निमि के यहाँ वे नो योगेश्वर आए निमि ने उनकी पूजा की और उनसे अपने कल्याण का मार्ग पूछा उनमें से प्रथम योगेश्वर कवि ने कहा राजन् भक्तजनों के हृदय से कभी दूर न होने वाले अच्युत भगवान के चरणों की नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याणकारी है राजा निमि बोले प्रभो भगवान के भक्तों के लक्षण बतावें।
इस पर दूसरे योगी हरि बोले-जो समस्त संसार में जड़ चेतन में प्राणी मात्र में भगवान को देखता है वह परमात्मा का सच्चा भक्त है।
इति
द्वितीयोऽध्यायः
श्रीमद् भागवत कथा पुराण हिंदी में
[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]
माया से पार पाने का उपाय-राजा निमि बोले प्रभो सुना है भगवान की माया बड़ी दुस्तर है मैं उसका स्वरुप जानना चाहता हूँ। अब तीसरे योगेश्वर अन्तरिक्ष बोले-समस्त जड़ जगत तथा श्रृष्टि रचना में भगवान की सहयोगी शक्ति ही माया है। अब राजा निमि ने पूछा प्रभो भगवान की माया से कैसे पार पाया जाता है बतावें। अब चौथे योगेश्वर प्रबुद्धजी बोले--
गुरु बिनु
भवनिधि तरइन कोई।
जो विरंची
शंकर सम होई।।
भगवान की
माया से पार पाने के लिए गुरु की कृपा से भगवत शरणागति मंत्र ही माया से पार कर
सकता है। राजा निमि बोले कृपा कर बतादें कि नारायण का स्वरूप क्या है इस पर पांचवे
योगीश्वर पिप्पलायन बोले-समस्त जड जगत एवं चैतन्य स्वरुप प्राणी मात्र के कारण रूप
श्रृष्टि के रचयिता पालन कर्ता तथा संहर्ता भगवान नारायण का ही रूप है। राजा निमि
बोले अब आप कर्मयोग बताइये इस पर छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी बोलेवेद विहित कर्म ही
कर्म है विपरीत अकर्म है इसमें वेद ही प्रमाण है।
इति
तृतीयोऽध्यायः
bhagwat katha in
hindi
[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]
भगवान के
अवतारों का वर्णन-राजा निमि ने पूछा कि भगवान के अवतारों का वर्णन करें इस पर
सातवें योगीश्वर मिल जी बोले-भगवान ने पंच महाभूतों की रचना कर विराट शरीर
ब्रह्माण्ड की रचना कर उसमें सूक्ष्मरूप से प्रवेश कर गए यह भगवान का पुरुष रूप
अवतार है वही परमात्मा श्रृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा पालन करने के लिए विष्णु व
संहार के लिए रुद्र अवतार है इनके द्वारा श्रृष्टि का क्रम चलता रहता है।
इति
चतुर्थोऽध्यायः
[ अथ पंचमोऽध्यायः ]
भक्तिहीन पुरुषों की गति तथा भगवान की पूजा विधि-राजा निमि ने पूछा जो लोग संसार की कामनाओं में लिप्त है भगवान की भक्ति नही करते उनकी क्या गति होती है बतावे तो आठवें चमसजी बोले-विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण भुजाओं से क्षत्रिय उदर से वैश्य व चरणोंसे शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। उसी तरह उनकी जंघा से गृहस्थाश्रम ह्रदय से ब्रह्मचर्य व वक्षस्थल से वानप्रस्थ और मस्तक से सन्यास आश्रम प्रकट हुए है जो इनका पालन नही करता उनका अध:पतन हो जाता है।
राजा निमि बोले प्रभो किस युग में भगवान का कौनसा वर्ण होता है और उनकी कब-कब कैसे कैसे पूजा की जाती है इस पर नवे कर भाजन योमीश्वर बोले भगवान सतयुग में श्वेत त्रेता में लाल द्वापर में सांवला तथा कलियुग में काला रंग भगवान का होता है सतयुग में भगवान की ध्यान के द्वारा उपासना की जाती है त्रेता में वेदों के द्वारा आराधना की जाती है।
द्वापर में वैदिक व तान्त्रिक विधि से भगवान की पूजा की जाती है और कलियुग में नाम संकीर्तन से पूजा की जाती है। नारदजी बोले वसुदेवजी मैंने आपको नौ योगेश्वरों की कथा से भगवान की महिमा समझाई जिससे आप उनकी महिमा को समझ गए होगें यह सुन वसुदेव-देवकी बहुत प्रसन्न हुए।
इति
पञ्चमोऽध्यायः
[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]
देवताओं की भगवान से स्वधाम पधारने की प्रार्थना यादवोंको प्रभास क्षेत्र जाते देख उद्ववजी का भगवान के पास जाना। श्रीशुकदेवजी वर्णन करते है परी क्षित्! एक दिन ब्रह्मा सहित देवता द्वारका आए और भगवान से स्वधाम पधारने की प्रार्थना की भगवान ने उन्हे शेष कार्य पूरा कर शीघ्र धाम आने को कहा उधर द्वारका में अपशकुन होने लगे अत: भगवान ने समस्त यादवो को बताया कि आज से सातवें दिन यह द्वारका समुद्र में डूब जावेगी अत:आप सब प्रभास क्षेत्र में चले जावें सभी यादव प्रभास क्षेत्र की तैयारी करने लगे यह देख उद्ववजी भगवान के पास आए और भगवान से प्रार्थना की कि प्रभो मैं समझ गया कि अब आप सब यवंशियों को समेट कर स्वधाम पधारेगें किन्तु प्रभो मैं एक क्षण भी आप से दूर नही रह सकता मुझे भी साथ ले चलने की कृपा करें तो भगवान बोले।
इति
षष्ठोऽध्यायः
श्रीमद् भागवत कथा पुराण हिंदी में
[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]
अवधूतोपाख्यान-श्रीभगवान बोले उद्धव तुम सही कहते हो देवताओं ने इस सबध मे प्रार्थना की है उसके अनुसार यदुवश को समेट में स्वधाम जाउगाँ तुमने कहा कि मैं आपके बिना नही रह सकता मैं अपने स्वरूप को भागवत में रख कर जा रहा हूं अत: तुम्हे अकेला पन लगे तभी तुम भागवत को देख लेना यह अवलम्बन आपको देता हं अब मैं तुम्हे महाराजा यदु और दत्तात्रेयजी का आख्यान सुनाता हूँ।
एक समय महाराजा यदु को जंगल में भगवान दत्तात्रेय मिले एक पेड़
के नीचे एक लम्बा चौड़ा हस्ट-पुस्ट शरीर जिसका तन पर कोपीन के अलावा कोई वस्त्र
नहीं बिना बिछौने हाथ का सिराना लगाए एक अवधूत सो रहे है यदुजी ने उनसे प्रणाम कर
पूछा तो बताया कि पेड़ की छाया ही उनका घर है धरती ही बिछोना है आकाश ही ओढना है
उनकी इस मस्ती का कारण है उनके चोबीस गुरु मैंने पृथ्वी से धैर्य ओर क्षमा शीलता
वायु से समरसता आकाश से अखण्डता अग्नि से पवित्रता चन्द्रमा से दुख-सुख में समान
रहना सूर्य से परोपकार की शिक्षा ली है कबूतर से आसक्ति के त्याग की शिक्षा ली है।
इति
सप्तमोऽध्याय:
[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]
अवधूतोपाख्यान-दत्तात्रेयजी
बोले-अजगर से मैंने यथा लाभ सन्तोष की समुद्र से गंभीरता की पतंगे से मोहित न होने
की शिक्षा ली है। मैंने भोरे से सार ग्रहण करने की मधुमक्खी से संग्रह न करने की
तथा शहद निकाल ने वाले से संग्रह की वस्तु का भोग दूसरे ही करते है यह शिक्षा ली
है हिरन से विषय संबंधी गीत न सुनने की शिक्षा ली है मछली से मैंने जीभ को वश में
रखने की। मैंने वैश्या से यह शिक्षा ली कि आशा ही दुख का कारण है इस प्रकार मैंने
शिक्षा ग्रहण की है।
इति
अष्टमोऽध्यायः
[ अथ नवमोऽध्यायः ]
अवधूतोपाख्यान- दत्तात्रेयजी बोले-कुररी पक्षी से संग्रह न करने की मान अपमान की परवाह न करना यह शिक्षा मैंने बालक से ली है कुमारी कन्या से बहत लोग एक साथ रहना कलह का कारण है शिक्षा ली अभ्यास से मन को वश में करने की शिक्षा मैंने बाण बनाने वाले से ली है।
सांप हमेशा अकेला रहता है सन्यासी को उसी तरह रहना चाहिए मकडी अपनी लार से पहले जाला बुनती है फिर उसे निगल जाती है संसार की रचना भी उसी तरह है यह मकडी से सीखा है। भृन्गी कीडे से मैंने सतत प्रयास करने की शिक्षा ली है मैंने अपने शरीर से ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा ली है।
भगवान श्रीकृष्ण बोले उद्धव भगवान दत्तात्रेयजी
ने इस प्रकार यदुजी को अपने गुरुओं की कथा सुनाई यदु बड़े प्रसन्न हुए उनकी पूजा
कर अपने घर को आ गए।
इति
नवमोऽध्यायः