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[ अथ एकोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बांधा जाना-ब्रह्मलोक में भगवान के चरण को आया देख ब्रह्माजी ने भगवान के चरण को धोया और उस जल को अपने कमंडलु में रख लिया वही पतित पावनी गंगा पृथ्वी पर आकर सब को पवित्र कर रहीपूजा कर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए उसी बीच जामवंत ने भगवान की सात प्रदक्षिणा की भगवान ने बलि को नाग पाश में बांध लिया और कहा-

पदानि त्रीणि दत्तानि भूमेर्मह्यं त्वयासुर।

द्वाभ्यां क्रान्ता मही सर्वा तृतीयमुप कल्पय।।

राक्षसराज तुमने मुझे तीन पग भूमि देने का संकल्प किया था मैंने दो पग मे तेरे समस्त राज्य को नाप लिया अब बता तीसरा पैर कहा रखू अब तुझ नरक जाना पड़ेगा यह दृश्य रत्न माला देख रही थी पहले भगवान को पुत्र रूप में देख रही थी पिता को नाग पाश में बंधा देख बोली ऐसे पुत्र को जहर दे दे इस पर भगवान बोले तू स्तनों से जहर लगा के आएगी मैं उसे भी पी जाउंगा।

इति एकोविंशोऽध्यायः


[ अथ द्वाविंशोऽध्यायः ]

बलि केद्वारा भगवान की स्तुति और भगवान का उस पर प्रसन्न होना-

यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं

वचोव्यलीकं सुरवर्य मन्यते।

करोम्य॒तं तन्न भवेत् प्रलम्भनं

पदंतृतीयं कुरु शीर्ण मे निजम्।।

बलि बोले-प्रभो यह सही है कि आपने दो चरणों में ब्रह्म लोक पर्यन्त नाप लिया किंतु अभी नापने के लिए जगह शेष है तीसरा चरण मेरे मस्तक पर रख दें हम संसार के अज्ञानी जीव आपकी महिमा कैसे समझे बडे-बडे ऋषि भी आपकी माया से मोहित हो जाया करते है बलि इस प्रकार कह रहे थे कि वहां प्रह्लाद जी आ गए वे बोले प्रभो आपने अच्छा किया इसे बड़ा अभिमान हो गया था अभिमानी को दण्ड देना भी आप की कृपा ही है इतने में ब्रह्माजी कुछ कहना चाहते वहां बलि की पत्नि विंध्यावलि आ गई और कहने लगी प्रभो आप संसार के कर्ता-धर्ता और संहर्ता है मैं आपको प्रणाम करती हूं ब्रह्माजी बोले स्वामी आपने इस पर कृपा करी है जो इसे अपनाया है अब इसे आप छोड़ दे क्योंकि इसने आप को आत्म समर्पण कर दिया है भगवान बोले मै इस पर प्रसन्न हूं इसे सुतल लोक का राज्य देता हू बलि जावो आनंद पूर्वक सुतल लोक में रहो मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूगा।

इति द्वाविंशोऽध्याय


[ अथ त्रयोविंशोऽध्यायः ]

बलि का बन्धन से छूट कर सुतल लोक को जाना-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् भगवान ने बलि का बन्धन खोल दिया और वह सुतल लोक चला गया इस प्रकार भगवान ने स्वर्ग का राज्य बलि से लेकर इन्द्र को दे दिया प्रह्लादजी ने भगवान की प्रार्थना की तथा शुक्राचार्यजी ने भगवान की प्रार्थना की तब भगवान ने उन्हे बलि के यज्ञ को पूर्ण करने की आज्ञा दी यज्ञ पर्ण हआ ब्रह्मादि देवताओं ने भगवान का अभिषेक किया और उन्हे उपेन्द्र का पद दिया और भगवान अन्तर ध्यान हो गए।

इति त्रयोविंशोऽध्याय:

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[ अथ चतुविंशोऽध्यायः ]

भगवान के मत्स्यावतार की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले-राजन! एक हजार दिव्य वर्षों का ब्रह्माजी का एक दिन होता है और उतनी ही बडी रात्रि-रात्री में जब बृह्मा शयन करते हैं तभी ब्राह्मी प्रलय होती है। 


एक समय की बात है जब द्रविड़ देश का राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान कर तर्पण कर रहा था। उसकी अंजली मे छोटी सी मछली का बच्चा आ गया दयावश उसे राजा ने अपने कमंडलु में डाल लिया जो घर आतेआते इतना बढ़ गया कि कमंउलु भर गया राजा ने उसे तालाब में डाल दिया जब तालाब भी भर गया तब उसे समुद्र में डालते हुए राजा बोले मत्स्य रूप में मोहित करने वाले आप कौन देव हैं। 


भगवान बोले आज के सातवें दिन ब्राह्मी प्रलय होगी उस समय तुम्हें समुद्र में एक नाव मिलेगी तुम समस्त जीवों के बीजों को लेकर नाव में बैठ जाना इतना कह भगवान अन्तर्ध्यान हो गए ब्राह्मी निषा आई ब्रह्माजी को नींद आने लगी तो चारों वेद उनके मुख से निकल बाहर आ गए जिन्हें हयग्रीव राक्षस चुरा कर ले गया उसे मारने के लिए ही भगवान ने मत्स्यावतार धारण किया निषा प्रलय हुइ एक नाव जिसका रस्सा मत्स्य के सींग में बंधा था आई जिसका प्रतिक्षा सत्य ब्रत कर रहे थे वे उसमें बैठ गए निषा पर्यन्त उसमे घूमत रही जब निषा समाप्त हई भगवान ने हयग्रीव को मार वेद ब्रह्माजा का ५ दिए सत्य ब्रत को सातवे वैवस्वत मनु घोषित कर दिए।

इति चतुविंशोऽध्यायः

इति अष्टम स्कन्ध समाप्त


अथ नवम स्कन्ध प्रारम्भ

[ अथ प्रथमोऽध्यायः ]

वैवस्वत मनु के पुत्र सुद्युम्न की कथा-श्रीशुकदेवजी बोलेपरीक्षित! अब तुम्हे सातवें वैवस्वत मनु का वंश सुनाते है सूर्य पुत्र श्राद्वदेव ही वैवस्वत मनु थे श्राद्धदेव की पत्नि श्रद्धा के जब कोई संतान नहीं हुई कुलगुरु वशिष्ठजी ने संतान के लिए मित्रवरुण नामक यज्ञ करवाया। 


श्रद्धा चाहती थी कि उसके कन्या हो अत: होता के पास जाकर प्रणाम पूर्वक बोली मुझे कन्या चाहिए होता ने वषट कार मंत्र की आहूति दी होता के इस विपरीत कर्म से यज्ञ के उपरान्त एक कन्या का जन्म हुआ इसका नाम इला हुआ राजा ने गुरुजी से कहा यह पुत्र के स्थान पुत्री कैसे हो गई। गुरुजी बोले हो सकता है रानी के मन मे ऐसा हो वशिष्ठ जी ने योग बल से कन्या को पुत्र बना दिया जिसका नाम सुद्युम्न हुआ। 


एक दिन सुद्युम्न घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए गया वह बहुत दूर निकल गया और एक ऐसी जगह पहुंच गया जहां जाते ही वह स्त्री बन गया उसके साथी भी स्त्री बन गए उधर से बुधजी की सवारी आ रही थी उन्होंने देखा कि एक सुन्दर स्त्री आ रही है। 


उससे विवाह कर लिया जिससे पुरुरवा नामक पुत्र हुआ जब राजा को मालुम हुआ कि उसका पुत्र फिर स्त्री बन गया वशिष्ठ जी ने शिवजी की प्राथना की तो शिवजी बोले यह एक माह स्त्री एक माह पुरुष रहेगा परीक्षित ने पूछा उस बन मे जाने पर वह स्त्री कैसे हो गया इस पर शुकदेवजी ने बताया कि एक समय शिव पार्वती वहां एकान्त विहार कर रहे थे वहाँ कोई आ गया जिससे उनकी क्रीडा में विघ्न हो गया अत: पार्वती ने शाप दिया जो यहां आएगा स्त्री हो जाएगा बहुत काल राज्य करके सुद्युम्न अपने पुत्र पुरुरवा को राज्य देकर आप वन में चले गए।

इति प्रथमोऽध्यायः


[ अथ द्वितीयोऽध्यायः ]

पृषध्र आदि मनु के पांच पुत्रों का वंश-श्रीशुकदेवजी बोले राजन सुद्युम्न के वन चले जाने पर श्राद्धदेव ने तपस्या करके दस पुत्र प्राप्त किए इनमें इक्ष्वाकु सबसे बडे थे इनके एक पुत्र थे पृषध्र वशिष्ठजी ने उन्हे गौ सेवा में नियुक्त किया था एक दिन वर्षा काल की अंधेरी रात में गौ रक्षा कर रहे थे अंधेरे में एक सिंह आ गया बिजली की चमक में पृषध्र ने सिंह पर वार किया निशाना चूक ने से वह एक गाय को लग गया और गाय समाप्त हो गई इससे गुरुजी ने उसे शूद्र होने का शाप दे दिया भगवान की भक्ति कर वह परमात्मा को प्राप्त हो गया मनु का सबसे छोटा पुत्र था कवि वह भी भगवान की भक्ति कर परम धाम चला गया।

 

इति द्वितीयोऽध्यायः

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[ अथ तृतीयोऽध्यायः ]

च्यवनऋषि और सुकन्या का चरित्र-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मनु के एक पुत्र थे शर्याति उनके सुकन्या नामकी एक कन्या थी एक दिन राजा शर्याति सुकन्या के साथ च्यवन ऋषि के आश्रम पर पहुच गए पर वहाँ इधरउधर ढूंढने पर भी ऋषि नही मिले सुकन्या सखियों के साथ घूमती हुई वहा पहुची जहां एक मिट्टी का डूमला था जिसमें कोई दो चीजें चमक रही थी कौतुहल वश सुकन्या ने उन्हें एक कांटे से बांध दिया उससे रक्त की एक धारा बह निकली वह घबराई हुई पिता के पास पहुंची वहां सबके पेट फुल रहे थे न जाने किस देव का अपराध हुआ है सुकन्या ने आप बीती बताई सब लोग वहाँ गए मिट्टी के ढेर से च्यवन ऋषि को निकाला भयभीत हो शांति ने सुकन्या च्यवन ऋषि को ब्याह दी और अपने घर आ गए सुकन्या उनका सेवा करती रही इधर से अश्विनी कुमार आ निकले वे सुकन्या से बोल इन्द्र ने हमारा यज्ञ भाग बन्द कर दिया है यदि उसे आप दिला दें तो हम ऋषि का नेत्र प्रदान कर सकते हैं सुकन्या ने विश्वास दिलाया अश्विनी कुमारों ने ऋाप के नेत्र ठीक कर उन्हें युवा बना दिया एक दिन अपनी पुत्री को देखने शर्याति उधर आ निकले एक युवा पुरुष के साथ अपनी कन्या को देख वे बड़े नाराज दए जब ज्ञात हआ कि वे ही च्यवन ऋषि हैं वे बड़े प्रसन्न हुए सुकन्या ने अपने पिता यज्ञ करनेवाले थे को कह कर अश्विनी कुमारों को यज्ञ भाग दिला दिया।

इति तृतीयोऽध्यायः


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[ अथ चतुर्थोऽध्यायः ]

नाभाग और अम्बरीष की कथा-श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित! मनु के एक पुत्र थे नभग उनके पुत्र थे नाभाग वे जब ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण कर घर लौटे तो पिता की संपत्ति तो शेष भाई बाँट चुके थे भाईयों से जब अपने हिस्से के बारे मे पूछा तो भाईयों ने केवल पिताजी को ही उनके हिस्से में दिया। 


यह जान वह पिताजी के पास गया पिता ने कहा कोई बात नहीं तुम आगीरस गोत्र के ब्राह्मण जहाँ यज्ञ कर रहे है वहाँ जावो यज्ञ में उनका सहयोग करो वे यज्ञ पश्चात् बचा हुआ धन तुमको दे देगें उसने वैसा ही किया और यज्ञ में बचा हुआ धन उसे मिल गया वह उसे लेकर जब चलने लगा तो उत्तर दिशा से एक काला पुरुष आया और कहने लगा यज्ञ में बचा हुआ। 


धन मेरा होता है प्रमाण मे आप अपने पिता से पूछ लो वह पिता के पास गया और उस पुरुष की कही हुई बात उनसे पूछी पिता बोले सही है बचा हुआ भाग शिवजी का होता है वह शीघ्र यज्ञ स्थल पर पहुंचा और धन शिवजी के चरणों में रख दिया शिवजी ने प्रसन्न होकर वह धन नाभाग को दे दिया।

नाभाग के पुत्र थे अम्बरीष वे परमात्मा के बड़े भक्त थे एक समय ऋषि दुर्वासा उनके यहाँ आये राजा ने उनका स्वागत किया ऋषि ने स्नान के बाद भोजन के लिए कहा वे स्नान के लिए चले गए राजा के निर्जला एकादशी के पारणा खोलने का दिन था त्रयोदशी लगने वाली थी पारणा खोलने का समय निकले जा रहा था ऋषि लोग नही आए तो ब्राह्मणों की आज्ञा से तीन आचमनी भगवान का चरणा मृत लेकर पारणा खोल लिया दुर्वासा जान गए उन्होने क्रोधित हो एक कृत्या अम्बरीष पर छोड़ी जो राजा को खाने दौड़ी इतने में श्री सुदर्शनजी आ गए कृत्या के टुकड़े-टुकड़े कर दुर्वासा के पीछे हो गए दुर्वासा डरकर ब्रह्माजी की शरण में गए।

ब्रह्मोवाचस्थानं मदीयं सहविश्व मेतत्

_क्रीडावसाने द्विपरार्ध संज्ञे।

भ्रूभंग मात्रेण हि संदिधक्षो:

कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति।।

ब्रह्माजी बोले मेरी केवल दो परार्ध आयु उन भगवान के पलक झपकते. ही पूर्ण हो जाती है उनके भक्त द्रोह से बचाने की हमारी क्षमता नही है। दुर्वासा दौड कर शिवजी के पास गए-

वयंन तात प्रभवाम भूम्नि

यस्मिन् परेंअन्ये अप्यज जीवकोशाः।

भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः

सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः।।

शिवजी बोले जिनकी श्रृष्टि मे हम जैसे हजारों शिव ब्रह्मा घूम रहे है उनके भक्त का अपराध करने वाले की मैं रक्षा नहीं कर सकता। दुर्वासा हताश हो भगवान की शरण मे गए सुदर्शन उनका पीछा कर रहा था।

अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इवद्विज

सधुभिर्ग्रस्त ह्रदयो भक्तैर्भक्त जनप्रियः।।

भगवान बोले दुर्वासाजी मैं स्वतन्त्र नही हूं मैं तो भक्तों के अधीन है मेरा ह्रदय उन्होने जीत रखा है।

पद-

मैं तो हूं भक्तन को दास भक्त मेरे मुकुट मणी

मोकू भजे भजू मै वाकू हूं दासन को दास

सेवा करे करूं मै सेवा हो सच्चा विश्वास

यही तो मेरे मन मे ठनी झूठा खाउं गले लगाउं

नही जाति को ज्ञान चार विचार कछु नही देखू देखू

मैं प्रेम समान भगत हित नारी बनी पग चापूं

और सेज बिछाउ नोकर बनू हजाम हांकू

बैल बनू गड वारो बिन तनखा रथवान

अलख की लखता बनी अपनोपरण बिसार के

भगतन को परण निभाउं सधु जाचक बनू कहे तो

बेचे तो बिक जाउं और क्या कहुं मै घणी

गरुड छोड बैकुण्ठ त्याग के नंगे पैरों धाउं

जहां जहां भीड पडे भगतनपर तह तह दोडा जाउं

खबर नही करुं अपनी जो कोई भगती करे कपट से

उसको भी अपनाउ साम दाम अरु दण्ड भेद से

सीधे रस्ते लाउं नकल से असल बनी जो कुछ बने सो बन रही

कर्ता मुझे ठहरावे नरसी हरि चरननकोचेरो

ओर न शीश नवावे पतिव्रता एक धणी

इति चतुर्थोऽध्यायः

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bhagwat katha in hindi

[ अथ पंचमोऽध्यायः ]

दुर्वासाजी की दुःख निवृति-श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं कि परीक्षित इस प्रकार भगवान के भी मनाकर देने पर दुर्वासा भयभीत हो । अम्बरीष की शरण में गए और जाकर उनके चरणों में गिर गए अम्बरीष ने उठाकर हृदय से लगा लिए और सुदर्शनजी की स्तुति कर ने लगे।


सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युत प्रिय।

सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते।।

सुदर्शनजी शान्त हो गए और दुर्वासाजी के दुःख की निवृति हो गई और बोले धन्य हैं आज भगवान के भक्तों की महिमा देखी अम्बरीष दुर्वासा भगे थे तब से वही खड़े थे भोजन भी नही किया था पहले दुर्वासाजी की पूजा की उनके कारण से उन्हें जो पीड़ा हुई उसकी क्षमा याचना की फिर उन्हें भोजन करा कर विदा किया और स्वयं ने भोजन किया।

इति पंचमोऽध्यायः


[ अथ षष्ठोऽध्यायः ]

इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन मान्धाता और सौभरी ऋषि की कथा-सप्तम वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के वंश में एक राजा युवनाश्व हुए उनके कोई सन्तान न होने पर उन्होंने बन मे जाकर ऋषियों से पुत्र प्राप्ति के लिए इन्द्र देवता का यज्ञ कर वाया एक दिन रात्रि में राजा को प्यास लगी इधर उधर कही जल नहीं मिला तो उन्होने यज्ञ मंडप मे एक घड़े में अभिमंत्रित जल रखा था उसे पी लिया प्रात: ऋषियों को घड़ें में जल नहीं मिला तो पूछने पर राजा ने बताया कि जल तो वह पी गया तब तो ऋषियों ने कहा राजा अब तो तुम्हे गर्भ धारण करना पडेगा राजा ने गर्भ धारण किया समय पर उसके पेट को चीर कर बालक को निकाल लिया किंतु उसे दूध कौन पिलावे इन्द्र ने उसके मुँह में अपनी अमृत मयी अगुंली दे दी और कहा मान्धाता मैं तुम्हारी धाय हूं उसका नाम मान्धाता हुआ वे बड़ें प्रतापी चक्रवर्ती राजा हुए। उनके पचास कन्याऐ थी। 


एक दिन सौभरी ऋषि के मन में गृहस्थ पालन की इच्छा हुई वे विवाह के लिए मान्धाता राजा के पास गए और जाकर उनसे एक कन्या की याचना की मान्धाता ने शाप के भय से मना तो नहीं किया किंतु कहा तुम्हे कोई कन्या पसंद कर ले उसे ले लो सौभरी ने योग बल से अपना शरीर दिव्य बना लिया और कन्याओं के महल मे प्रवेश किया उन पचासों ने ही ऋषि के गले में माला डाल दी सौभरी उन्हें लेकर अपने आश्रम चले गए।

इति षष्ठोऽध्यायः


[ अथ सप्तमोऽध्यायः ]

राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा-श्रीशुकदेवजी बोले राजन् मान्धाता के वंश में राजा सत्यव्रत हुए इन्हें ही त्रिशंकु भी कहते है एक बार राजा सत्यव्रत अपने गुरु वशिष्ठ से बोले मैं सशरीर स्वर्ग जाना चाहता हूं इस पर वशिष्ठजी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया तब ये विश्वामित्र जी के पास गए उन्होंने उसे सशरीर अपने तप बल से स्वर्ग भेज दिया। 


देवताओं ने उसे वहां से धकेल दिया जब वह गिरने लगा विश्वामित्रजी ने अपने तप बल से बीच में ही रोक दिया वह आज भी बीच में उल्टा लटक रहा है। त्रिशंकु के पुत्र हरिश्चन्द्र हुए इनके कोई सन्तान नही थी अत: उन्होंने वरुण देवता से प्रार्थना की और कहा यदि मेरे पुत्र हुआ तो उसी से आपका यजन करुंगा हरिश्चन्द्र को पुत्र हो गया तब वरुण देवता आए और उनसे अपना बलिदान मागा हरिश्चन्द्र उसे पहले दस दिन बाद फिर दांत निकल ने पर ऐसे टालते रहे जब रोहित को यह मालूम हुआ वह जंगल में भग गया।


वरुण ने नाराज हो हरिश्चन्द्र को महोदर रोग से ग्रसित कर दिया जब रोहित को यह मालूम हुआ वे एक यज्ञ पशु शुन शेप को खरीद कर पिता को दे दिया हरिश्चन्द्र ने उसे वरुण को देकर रोग से छुटकारा पाया।

इति सप्तमोऽध्यायः


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[ अथ अष्टमोऽध्यायः ]

सगर चरित्र-हरिश्चन्द्र के वंश मे एक राजा हुए बाहुक उनकी बृद्धापकाल से मृत्यु हो गई उसकी रानी जब सती होने लगी तब गर्भवती होने के कारण उसे रोक दिया जब उसकी सोतों को यह मालुम हुआ कि वह गर्भवती है उसे खाने में जहर दे दिया वह बालक जहर यानी गर के साथ पैदा हुआ अत. उसका नाम सगर हुआ।


सगर के एक रानी से साठ हजार पुत्र थे दूसरी रानी से एक ही पुत्र था असमंजस राजा सगर ने कई अश्वमेध यज्ञ किए इन्द्र उनके यज्ञ का घोड़ा चरा कर ले गया उसके साठ हजार पुत्र घोड़ा खोजते हुए कपिल मुनी के आश्रम मे पहुँचे जहां घोडा बंधा था। 


घोड़े को देख कर वे मुनी को भलाबुरा कहने लगे जब मुनी की आंखे खुली सबके सब जलकर भस्म हो गए जब वे नही लौटे तो सगर ने असमंजस के पुत्र अंशुमान को घोडा खोजने भेजा वह अपने चाचाओं के चरण चिह्न पर कपिल आश्रम पहुचे वहां घोड़ा बंधा था और साठ हजार राख की ढेरियां देखी वह समझ गया मेरे चाचा भस्म हो गए मुनी को प्रणाम किया और अपना परिचय दिया मुनी बोले घोड़े के बारे में हम कुछ नहीं जानते अपना घोड़ा लेजावो तुम्हारे चाचाओं का उद्धार गंगाजी से होगा

इति अष्टमोऽध्यायः

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भागवत सप्ताहिक कथा / भाग -1


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